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गुरुवार, अक्तूबर 12, 2023

वक्त

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 ये वक्त है

गुजर ही जायेगा

अभी बुरा है

तो 

अच्छा भी आयेगा, 

वक्त है

गुजरना जिसकी फितरत है

गुजर ही जायेगा।

बुधवार, मई 17, 2023

तस्वीर

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 ज़िन्दगी

तुम खीचना तस्वीरें

अपने कैमरे से ऐसी,

ना दिखे

दर्द वेदना विरह जिसमें।

शुक्रवार, मई 12, 2023

अम्मा

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अम्मा

बुनती है रंग बिरंगी गेंदें ,

वो जानती है

पहाड़ की तलहटी में

सर्दियों के मौसम में

खेल होगा

और

जुटेंगे अनगिनत लोग,

अम्मा ने देखा नहीं है

सर्दियों के मौसम का ये खेल

उसकी आँखों ने देखे है

अपनों के साथ

अपनों का ही खेल,

वो बुनती है गेंदें चुपचाप

गेंदें रंग बिरंगी

तलहटी में उस खेल के लिए ।

गुरुवार, मई 11, 2023

कान

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दिवारों के कान होते हैं।

हमेशा सुना है।

लेकिन ये कान बहरे होते हैं।

ये सच और सही सुन नहीं पाते

यही बहरे कान अक्सर अफवाह फैलाते है

रविवार, नवंबर 06, 2022

मत आना मेरे नगर

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 मत आना

तुम मेरे नगर

मैं बहुत तंग हो जाता हूँ 

और उससे भी ज्यादा

तंग करते हैं सुरक्षा कर्मी,

मैं नहीं खरीद पाता हूँ सब्जियां,

मुझे नहीं मिलती है

दवाइया तुम्हारे आने पर, 

तरेरता है आँखें सुरक्षा कर्मी

जैसे मैं  कोई अपराधी हूँ,

मुझे नहीं मिलता है 

थ्री वीलर,

मैं अब पैदल नहीं चल पाता

ढूंढना पड़ती है 

मुझे कोई सवारी

वो भी तुम्हारे  

आने पर अपना रेट

एकाएक बढा देते है

जैसे कल तो आना ही नहीं है

आज ही जी लो जीवन, 

और सुनो

बड़े चौक पर 

बढ़ी मुछो वाला 

तुम्हारे आने पर

और ज्यादा  डरावना लगता है

तुम्हारे आने पर 

वो क्यों घूरता रहता है हमेशा,

स्वागत किया है मैंने 

तुम जब भी आए हो मेरे नगर

मैंने सुन ली है

तुम्हारी बहुत सी बातें

नहीं है मुझे तुम पर विश्वाश

तुम्हारी भाषा 

अब मुझे समझ नही  आती

मत आना तुम मेरे 

नगर दुबारा।

शनिवार, मार्च 12, 2022

सामाजिक ऊहापोह को सटीक उकेरतीं कविताएं

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  साहित्यश्री, रम्भाश्री और शकुन्तला स्मृति सम्मान से सम्मानितकवि हृदय श्री रौशन जसवाल 'विक्षिप्त' की अस्सी के दशक से निरन्तर पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं, लेख, लघुकथाएँ, क्षणिकाएं प्रकाशित होती रहीं हैं तथा आकाशवाणी एवं दूरदर्शन केन्द्र शिमला से समाचार वाचन तथा साहित्य की कई विधाओं में आलेख, कविताएं, वार्ताएं, रेडियो नाटक आदि प्रसारित होते रहते हैं। हिन्दी और इतिहास में आनर्स स्‍नातक स्तरीय उत्तीर्ण कर इन्हीं विषयों में हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय, शिमला से स्‍नातकोत्तर उपाधियाँ प्राप्त कर जसवाल जी राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय सराहां सिरमौर (हि०प्र०) में इतिहास प्रवक्‍ता नियुक्त हुए तथा इसके पश्चात विभिन्न पदों पर पदोन्‍नत होकर 31 अक्तूबर 2021 को संयुक्त शिक्षा निदेशक स्‍कूल हि.प्र. के पद से सेवा-निवृत्त हुए हैं।

                                        इतिहास और हिन्दी में निष्णात इन्होंने इतिहास को अध्यापन का विषय चुना और पूर्ण निष्ठा के साथ सारस्वत दायित्व वहन करते सामाजिक, पारिवारिक महत्त्वपूर्ण जिम्मेवारियों का सम्यक निर्वाह करते साहित्यिक समृद्धि में भी सतत कटिवद्ध रहे। सन् 1986 से इनका साहित्य लेखन प्रकाशित, प्रसारित, संकलित और पुरस्कृत होता रहा है। तलाश (कविताएं और लघुकथाएं) अम्मा कहती थी, पगडण्डियाँ (कविता संग्रह) इनके सुधी सम्पादन में प्रकाशित हुई हैं । ' ननु ताकती है दरवाजा' इनका प्रथम प्रकाशित कविता संग्रह है। कविता संग्रह का शीर्षक 'ननु ताकती है दरवाजा' एक अवोध, निरीहा, स्वच्छहृदया बालिका की मानसिकता व्यक्त करता है। संस्कृत में ननु का अर्थ पूछताछ, प्रश्‍न, निश्‍चय ही, अवश्‍य, निस्‍संदेह आदि सात अर्थों में प्रयुक्त होता है। बालिका भी निश्चित ही आश्रयदाताओं की प्रतीक्षा में निर्निमेष ताकती रहती है तथा खामोशी व एकाकीपन को मित्र बनानेकी विवशता व्यक्त होती है। (पृष्‍ठ 50-51)

                                      इनकी आलोच्य कृति मैं बच्चा होना चाहता हूं’, सौ पृष्‍ठों  में 80 पठनीय कविताओं से युक्त द्वितीय कविता-संग्रह है। यह संग्रह 2021 में प्रकाशित हुआ है तथा इसका मूल्य मात्र 120 रुपये है। पुस्तक के आरम्भ में 'अपनी बात' शीर्षक से जहाँ कवि जसवाल जी अपनी कविता लेखन यात्रा उत्स की ओर इंगित करते हैं वहाँ वे साहित्य की ओर प्रेरक व्यक्तियों का निस्संकोच आभार भी व्यक्त करते हैं और यही प्रणति परम्परा किसी लेखक के महान व्यक्तित्व को दर्शाती है।

                                    मैं इनके व्यक्तित्व और कृतित्व से पूर्व परिचित हूँ। लेखक या कवि होने का दम्भ इन्हें कदापि स्पर्श नहीं कर सका है और यह लक्षण साहित्यकारों में बहुत कम पाया जाता है। आज छपते कम हैं प्रचार-प्रसार प्रदर्शन अधिक, होता है। नातिमानिता का अप्रतिम दृष्टान्त इनके व्यक्तित्व में सहज देखा जा सकता है। अपने नाम के अनुरूप कवि जसवाल ने समाज की अच्छाइयों और विद्रूपताओं को जस की तस रोशन कर सार्थक किया है। इनकी रचनाओं के शीर्षक पाठकों को बलात् आकृष्ट करते हैं। समीक्षक किसी भी रचना के शीर्षक को महत्वपूर्ण तत्‍व स्वीकार करते हैं। द्वितीय कविता संग्रह का शीर्षक मैं बच्चा होना चाहता हूँ। नामक कविता संग्रह के पृष्ठ 84 पर प्रकाशित है। इस कविता के माध्यम से कवि ने भौतिकता की चकाचौंध से सुदूर सामाजिक पद-कद की व्‍यर्थ ऊंचाइयों के व्‍यामोह से हटकर बालभाव की श्रेष्ठता का समर्थन किया है। समाज की मौका परस्त झंझटों भरी फितरत कवि को कहीं भीतर तक आहत करती है। शैशव के खेल खिलौने और वात्सल्य पूर्ण माँ की ममता कवि को खूब अभिभूत करती है। भावनाओं की उत्ताल ऊर्मियों से उमड़ता घुमड़ता उदधि कवि को भावुक बना देता है और वह चन्द्रचुम्बी प्रासाद का मोह छोड़ सुखशान्ति पूर्ण निश्छल जीवन व्यतीत करने के आश्रय की चाह व्यक्त करता है। कितना सुन्दर, सुखद बालभाव सन्देश शीर्षक के माध्यम से प्रस्तुत किया है।

                                            कवि 'विक्षिप्त' पूर्व निर्मित पथ के पथिक बनना स्वीकार नहीं करते वे स्वयं नूतन सरणि का निर्माण करते हैं। इस संग्रह में प्रकाशित उनासी कविताओं को मात्र संख्या से ही परिगणित किया है। कविता की प्रथम पंक्ति पाठकों की सुविध के लिए अनुक्रम में दर्शायी है। (पृष्‍ठ 7-10) केवल अन्तिम मुक्तक या क्षणिकाओं को 'अधूरे पन्‍ने की संज्ञा दी है। कविता संग्रह की अधिकांश कविताएं हास्य व्यग्‍य शैली में पाठकों को गुदगुदाने, सोचने पर विवश कर देती है। कवि की ध्‍वनि भंगिमा देखें :–

हर आदमी का यहाँ अलग अंदाज है,

होंठों पर मिठास और खुश्क आवाज़ है। (पृष्ठ-17)

                                     जीवन के उत्थान-पतन अपेक्षा-उपेक्षाओं, सफलता विफलताओं का गणित कवि ने मानव इतिहास को खूब जाँचा-परखा है। इस दिशा में कवि-कथ्य विचारणीय है:-

मत पुछिएगा सबब मेरी नाकामियों का,

जिक्र आएगा तुम्हारी मेहरबानियों का । (पृष्ठ-18)

तुमने कही कहानियाँ और किस्से कई,

        धनवान भी संसार में लुट जाते हैं आखिर। (पृष्ठ-19)

                                   कवि जसवाल में उत्प्रेक्षाओं के क्षितिज स्थापित करने की अनुपम क्षमता है तथा अपने मनो भावों को व्यक्त करने की मसृणता भी अद्‌भुत है:-

देख खतों को याद आई तो होगी,

कोई नज्म देख बुदबुदाई तो होगी।

काँपे होगे हाथ थरथराये होगे होंठ,

थोड़ा जरूर वह मुस्कुराई तो होगी। (पृष्ठ-20)

                       जीवन के उतार-चढ़ाव, परिस्थितियों को भी अपने ढंग से रूपकों में उकेरा है :-   

        जिन्दगी है धीरे-धीरे जलती लकड़ी,

खुद को ऐसे खत्म किया है हमने।

सूखे पेड़ के मानिंद खड़े हैं आज,

जिन्दगी को इस तरह ज़िया है हमने। (पृष्ठ 22)

                                 कवि की मिलनसारी की हठधर्मिता भी विचित्र भावों का वितान पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करती है :-

इल्ज़ाम पर इल्ज़ाम लगाए जाते हैं,

फिर भी हम उनकी महफिल में जाते हैं।

आज रोके नहीं रुकता आँसूओं का सैलाब,

कुछ तो बात है जो हम मुस्कुराये जाते हैं। (पृष्ठ 24)

                            जन-मानसिकता के पारखी विक्षिप्त' निज मनोभावों को तदनुरूप शब्द शैया प्रदान करते हैं :-

अक्सर गुजरता देख मुझे यहाँ वहाँ विक्षिप्त सा,

उलाहने देते और मन्द मन्द मुस्कुराने लगे हैं लोग। (पृष्ठ 25)

नज़रें उठतीं हैं सभी की मेरी ओर,

इतना विक्षिप्त बन गया है जीवन। (पृष्ठ-26)

                               बदलते सामाजिक परिवेश को कवि ने अतीव निकटता से जाँचा-परखा है और उसे उचित शब्द भी प्रदान किये हैं :-

रास आ गई तन्हाइ‌याँ रात की,

अब तो प्रभात से डर लगता है। (पृष्ठ-28)

खेलते हैं अस्मत से बन्द कमरों में,

वही चरित्र का सबक सुनाते हैं। (पृष्ठ- 29)

वो खत और तहरीरें क्या एक बहाना था,  

तेरा बातों से लुभाना क्या इक बहाना था। (पृष्ठ 30)

                                कवि अध्यापन और प्रशासन कार्य से लम्बी अवधि तक जुड़े रहे, अत: उपदेशात्मक शैली यत्र -तत्र मुखरित होना स्वाभाविक ही है:-

बन कर ऊषा उडेलो मधु परिवेश में,

मिटे संताप सब कुछ ऐसा प्रयास कर दो। (पृष्ठ-34)

 सांस रोके हैं हवायें भी,

घर में जयचन्द घुस आया है। (पृष्ठ 37)

बंद मस्तिष्क के किवाड़ तो खोलिए,

सम्बन्धों को सपनों में मत तोलिए। (पृष्ठ-63)

 बेहतर है कोई अर्थ दे दे जिन्दगी को,

इन बुझते दीपों को बचाएंगे कैसे।  (पृष्ठ-45)

                          कवि की लोक रीति के प्रति प्रीति अवलोकनीय है :-

कभी षड़यन्त्र तो कभी दिलासे,

गिरगिट की तरह रंग बदलता है आदमी। (पृष्ठ-47)

'गिरगिट की तरह रंग बदलना' लोकोक्ति मुहावरे दार प्रयोग में निपुण कार्यालयीय उत्कोच वृत्ति की ओर भी कवि का संकेत ध्यातव्य हैं

आपकी फाईल निर्जीव पड़ी है जनाब,

हो सके तो नोटों के टायर पहनाइए । (पृष्ठ-51)

सामाजिक स्वार्थवृत्ति विषय में कवि तंज कसते हैं :-

आसां नहीं है, किसी के दर्द में शामिल होना,

मुझे विक्षिप्त बताया जाता है उस घर में। (पृष्ठ 53)

प्रतीकात्मक और श्लेषात्मक वर्णन निपुणता भी उल्लेखनीय है :-

बन सकोगी क्या मीरा विक्षिप्त की,

पीकर हलाहल अमरगीत तुम बन जाओ। (पृष्ठ-54)

                         आत्मीय सम्बन्धों में लोक व्यवहार में घिरते द्वंद्व को भी कविता का विषय बनाया गया :-

मकानों की बजाय दिलों में घर बनाए होते.

लोक सज़दा करते हमने भी सर झुकाए होते। (पृष्ठ-59)

सम्बन्धों के समीकरण बदलते हैं धीरे धीरे,

अर्थ शब्दों के निकलते हैं धीरे धीरे (पृष्ठ-60)

छला है अपना बन कर सभी ने

यूँ ही नहीं विक्षिप्त सा घूमता हूँ मैं। (पृष्ठ-80)

             जात पात का उपदंश, समाज के लिए घात‌क होता है। दलित वर्ग की विवशता की ओर इंगित करते कवि कहते हैं :-

जात अब जात नहीं रही गाली हो गई,

गरीब की जोरू सबकी साली घे गई। (पृष्ठ-81)

बंटे हो गुटों जात पात वर्ग भेद में,

जीवन कौड़ियों में नीलाम करता है यार तू । (पृष्ठ-87)

 व्यवस्था पर भी कवि का करारा व्‍यंग्‍य श्रवणीय है:-

बन्द कमरों में योजनाएं बनानी है आसान,

कभी यथार्थ के धरातल पर भी आइये जनाब (पृष्ठ-88)

दो मुँहे साँपों से भरा है आस पास

          दोस्‍त बन कौन डस जाए क्‍या मालूम (पृष्ठ-72)

गोरे गए अब काले लूट रहे  हैं

तिजोरियों के ताले टूट रहें  हैं। (पृष्ठ-68)

 कर ले बदनाम ठग ले हक मेरा

लूटेरा तू है, लूटे, सब ज़र जोरू जमीन॥ (पृष्ठ-75)

                          सामाजिक भविष्‍य के सुखद स्‍वप्‍न और उनका कार्यान्‍वयन प्रक्रिया भी कदाचित फलवती प्रतीत होती है:-

बहुत काम करने है अभी

कुछ न रहे शेष तुम दुआ करना  (पृष्ठ-76)

बेवजह यूं घर से जाया नहीं  करते,

मां को अपनी रूलाया नहीं करते । (पृष्ठ-82)

खुशबू फैलाओ तो कुछ बात बने,

विष यहां वहां भरा पड़ा है जनाब। (पृष्ठ-74)

                               यथा तथ्य चित्रण का चितेरा कवि कल्पा यात्रा के समय कड़च्‍छम के समीप सतलुज नदी का शब्‍द चित्र उकेरता है

पहाड़ सिसकता है अन्तस है सूखा,

पानी की एक बूंद अरमान हो गई। (पृष्ठ-83)

                                      कवि क्षणभंगुर काया माया से सुपरिचित हैं तथा लेखकीय धर्म बोध विषय‌क अन्‍तर्ध्‍वनि इस प्रकार व्यक्त करते हैं:-

जीवन है क्षणभंगुर न जाने कब क्या हो,

कर ले कुछ नाम इक निशानी लिखते हैं। (पृष्ठ 85)

                                   निष्कर्षत: समग्र रचनाओं के अध्ययन से कहा जा सकता है कि सहृदय कवि जसवाल "यथाSमै रोचते विश्वम् तथैदं, परिवर्तते ।" की पौराणिक परम्परा की सर्वथा अनुपालना के निकष पर सही उतरे हैं।  सभी रचनाओं में विषय का प्रतिपादन और उनके अनुरूप शब्द चयन तथा उनमें असीमित भाव सम्‍पदा का प्रस्तुतीकरण पाठकों को बलात् आकृष्ट करता है। संग्रह की जिस भी  रचना को पढ़ते है सर्वत्र पद्यों  की कसावट का अनुशासन, प्रसाद गुणाश्रित अर्थ की सहज सम्प्रेषणीयता चित्त को आह्लादित कर देती हैं।

                                 सामाजिक ऊहापोह को उकेरती कविताएं परिवेश के अधिकांश विषयों की अभिव्यक्ति से पाठकों को गुदगुदाया है, सम्मोहित किया है।  जहाँ कवि का कथ्य पाठकों के मन-मस्तिष्‍क पर तत्काल प्रभाव छोड़ दे वहीं लेखकीय धर्म सफल हो जाता है। हिन्दी गजलों के समीप प्रगणित होने वाली रचनाओं में कहीं मर्यादित शृंगार का पुट यथा अवसर शब्‍दों के प्रयोग में तत्सम, तद्भव, देशी, विदेशी, उर्दू, फारसी जहाँ जिसकी आवश्यकता समझी निःसंकोच समुचित स्थान प्रदान किया है। उर्दू-फारसी अनभिज्ञ पाठकों की सुविधा के लिए पाद टिप्‍पणियाँ दिये जाने का भी प्रचलन है ।

                              इसमें रंच भी अतिशयोक्ति नहीं है कि कवि श्री रौशन जसवाल 'विक्षिप्त' का कविता-संग्रह  मैं बच्चा होना चाहता हूँमें ध्वनि, भाव-भाषा, प्रतीकों, बिम्बों, शब्द शक्तियों आदि काव्य शास्त्रीय तत्त्वों की कसौटी पर सटीक उतरी- निखरी कविताएँ हैं। एतदर्थ कवि को मेरा हार्दिक साधुवाद एवं अनन्त शुभकामनाएँ।

 (डॉ० प्रेमलाल गौतम शिक्षार्थी)‍

सरस्वती सदन, रबौण,

पत्रालय-सपरून 173211

जिला - सोलन (हिप्र) वार्ड नं0 16

गुरुवार, मई 14, 2020

हाइकु

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(1)
                         
बड़े सपने

छोटे छोटे अपने
बड़े बेगाने

(2)

माता ताकती

एकटक देखती
आएगी पाती

(3)


विरोध करे
जीवन अवरुद्ध
वायु अशुद्ध

(4)

प्रेम अतुल
अपरिभाषित है

स्वच्छंद प्रेम

(5)

समझे कौन
अंतर्वेदना मेरी
हैं सब मौन

शुक्रवार, मई 01, 2020

संवेदनाओं की बयार है काव्य संग्रह ‘ननु ताकती है दरवाजा' --- मनोज चौहान

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'ननु ताकती है दरवाजा’ वरिष्ठ साहित्यकार रौशन जसवाल ‘विक्षिप्त’ जी का हाल ही में प्रकाशित प्रथम काव्य संग्रह है । उनकी वर्षों की साहित्य साधना का परिणाम है यह कविता संग्रह l अपने आस-पास के परिवेश को गहनता से महसूस कर और जीवन के संजीदा अनुभवों को कलमबद्ध करके उन्होंने पाठकों को यह सौगात दी है, जिसे पढ़कर पाठक बहुत गहरे तक डूबता चला जाता है और कई कविताओं में खुद को ढूंढने की कोशिश करता है  l किसी भी संग्रह या कृति की महता तभी है जब एक साधारण पाठक या आम जनमानस उससे जुड़ाव महसूस करे और इस कसौटी पर यह संग्रह खरा उतरता है l

 प्रस्तुत संग्रह में छोटी - बड़ी 64 कविताएँ संकलित हैं, जो कि अलग- अलग कालखंड में रची गई हैं l वर्तमान में हिमाचल प्रदेश शिक्षा विभाग में उप- निदेशक के पद पर कार्यरत जसवाल जी 1983 -84 से साहित्य कर्म से जुड़े हैं और लघुकथा लेखन में भी उनका विशेष दखल रहा है, जिसके परिणामस्वरुप उन्हें कई संस्थाओं द्वारा कई सम्मानों से भी नवाजा जा चुका है l

संग्रह की पहली ही कविता 'वो क्षण' में कवि ने स्पष्ट किया है कि सर्वप्रथम जिस समय में उनके भीतर सृजन का बीज अंकुरित हुआ था,उस समय को उनके लिए बताना कितना कठिन है । कविता की पंक्तियां देखें :

बताना कठिन है
वो क्षण कौन से थे
जब सहसा अनुभव किया मैंने
हिलोरे ले रहा है विचारों का समुद्र
मेरे भीतर
और करनी है
अभिव्यक्ति जिसकी मुझे शब्दों में l

यह सच है कि एक आदमी के भीतर एक नहीं बल्कि अनेक चेहरे होते हैं, जिसे कोई और नहीं बल्कि व्यक्ति विशेष स्वयं ही महसूस कर सकता है l कवि की दृष्टि बहुत ही सूक्ष्म है, जिसे वो अपनी ‘चेहरा’ नामक कविता में स्पष्टतया उकेरते नज़र आते हैं  । कविता की बानगी देखें :

आज देखिएगा टकटकी बांधकर
चेहरे के भीतर
एक और चेहरा नजर आएगा तुम्हें
छल और कपट से भरा हुआ
जरुर देखिएगा l

गरीबी और अभावग्रस्त जीवन हालातों को बदतर कर देते  है और  मजबूर भी l हमारे समाज की असम्बेदनशीलता की पोल खोलते हुए कवि ‘उसका मासूम चेहरा’ नामक कविता में कहते हैं कि :

आज फिर देखा है उसे
मिट्टी से सने पाँव
चीथड़ों को लिए हुए
आराम सुखों का छोड़ कर
चल दिया काम की तलाश में
ढूंढने लगा जीवन
उस कूड़े के ढेर में
गिराता था सारा मोहल्ला
गंदगी जिसमें l

‘मैं की व्यथा’ नामक कविता सोचने पर विवश करती है, जिसे पढ़ते हुए पाठक वर्तमान, भूत और भविष्य के भंवर में डूबता चला जाता है । कविता की पंक्तियों पर जरा गौर करें :

नदियों के छलछल बहते जल में
रेत की तपिश में
और सरिता के किनारे
जहाँ कभी खेलते थे बच्चे मेरे गाँव के
और उन्ही में मैं था
परन्तु अब अपना ही
झुर्रियों वाला चेहरा देखता हूँ l

घर एक ऐसा स्थान होता है जिससे हर इंसान की बचपन से लेकर बड़े होने की स्मृतियाँ जुड़ी होती है और यह हमारे पूर्वजों की अमूल्य धरोहर होता है l  अपने घर से जुड़ी इन्हीं समृतियों को कवि ने ‘घर’ नामक कविता में उद्घाटित किया है l समाज में अपराधिक प्रवृति जब बढ़ जाती है तो एक माँ के लिए अपने बेटे की चिंता जायज है, जिसे कवि ने ‘अँधेरा’ नामक  कविता में निम्न पंक्तियों के माध्यम से उजागर किया है :

सुबह जब मैं घर से निकलता हूँ  तो
माँ कहती है, बेटा जल्दी आ जाना
अँधेरा होने से पहले
क्योंकि मेरे शहर में
जवान लड़के -लड़कियां गुम होने लगे हैं
मेरे शहर में अब
इंसानी भेड़ियों ने घर बना लिए हैं
और ढूंढने लगते हैं खुराक
अँधेरा घिरते ही l

सत्य वास्तव में ही कड़वा होता है और कई बार पीड़ादायक भी । ‘तुम्ही कोई शीर्षक दो’ नामक कविता में कवि एक प्रश्न खड़ा करते  हैं, जिसे कविता की निम्न पंक्तियों से साफ समझा जा सकता है :

उस महल की नीवं का दर्द
कोई नहीं समझ सकता
जिसके आधार में हों करोड़ों चीखें
इतनी कराहें कि कल्पना मात्र से सिहर उठे हम
उन लोगों की सुबह कैसी होती होगी
जिन्हें चखना पड़ता है स्वाद
सिर्फ कराहों और चीखों का ?

कई बार जीवन में ऐसे अवसर भी आते हैं जब  गिले – शिकवे, शिकायतें और गलतफहमियाँ हावी हो जाती हैं l  इन सबके  बाबजूद भी कवि का संवेदी मन कराह उठता है l मानव हृदय की विशालता को प्रकट करती कविता ‘उसका सच’ की ये पंक्तियाँ भीतर तक स्पर्श करती हैं :

बहुत दिनों तक
जब देख नहीं पाता हूँ उस शख्स को
जिससे मुझे बेहद नफरत है
तब सालने लगती है मुझे एक चिंता
और मैं पूछ बैठता हूँ उदासी से
वो ठीक तो होगा न ?

पारिवारिक जरूरतें जब गाँव में पूरी नहीं हो पाती तो व्यक्ति शहर या महानगर का रुख करता है, मगर शहर की भीड़ और तेज रफ़्तार जिंदगी में कहीं खो सा जाता है l  और कभी -कभार हादसों का भी शिकार हो जाता है l  ‘महानगर’ नामक कविता में कवि ने इसी पीड़ा को उजागर किया है l कुछ इस तरह से कि :

महानगर क्या तुम थोडा रुकोगे
गाँव तुमसे बतियाना चाहता है
गाँव पूछना चाहता है
ढेरों प्रश्न तुमसे
पिछले वर्ष
रामू की बेटी तुमसे मिलकर
कहाँ खो गई ?

शब्दों की सही ताकत को परिभाषित करती और सामाजिक बदलाव और क्रांति का आवाहन करती लघु मगर मारक कविता ‘शब्द’ में वे लिखते हैं: 

क्रांति आती नहीं
उदास और मुरझाए चेहरों से
क्रांति लाते नहीं
प्रेयसी के आगोश में छुपे युवक
क्रांति के लिए शब्दों में रमना पड़ता है
और लिखना होता है लहू से क्रांति
सिर्फ क्रांति !

संग्रह की शीर्षक कविता ‘ननु ताकती है दरवाजा’ एक भावना प्रधान कविता है, जो बाल मन की निश्चलता और भोलेपन को खुबसुरती से उकेरती है l कई बार बच्चे अपने इसी नैसर्गिक गुण के कारण बड़ों को भी बहुत कुछ सीखा जाते हैं  और सोचने पर मजबूर कर देते हैं l कविता की पंक्तियाँ देखें :

कैसे सीख लिया है ननु ने इन्तजार करना
अब मैं झूठा बनता जा रहा हूँ
जब भी छोड़ना होता है ननु को
कह डालता हूँ एक भारी झूठ
ननु करती रहती है प्रतीक्षा
दोपहर बाद तक l

रोग ग्रस्त व्यक्ति जब अस्पताल में  दाखिल होता है तो उसके दिमाग में अनेक तरह के झंझावात चलते रहते हैं l इसी मनोस्थिति को कवि ने बहुत गहरे से महसूस किया है l भीतर तक छूने वाली ‘जिजीविषा’ नामक कविता की पंक्तियों पर गौर करें   :

जिजीविषा निरंतर देखती रहती है
सिरिंज में बूंद- बूंद रक्त
और सह लेती है
डायलिसिस की वेदना
नर्सों की अनावश्यक डांट l

गाँव से दूर जब वहां बिताएं बक्त की स्मृतियाँ दस्तक देती हैं तो मन में एक टीस सी उठती है और मन करता है की फिर से वहीं उस खुशनुमा बक्त में लौट आएं l कवि के गाँव, खेत, खलिहानों और माँ  के प्रति गहरे जुड़ाव को दर्शाती कविता ‘वादे’ भाव-विभोर कर जाती है l कविता की निम्न पंक्तियां देखें :

बहुत दिनों से देख नहीं पाया हूँ
गोबर से लिपीपुती दीवार
और देखी नहीं किसी आँगन में तुलसी
बहुत दिनों से भेड़ों के साथ
जंगल नहीं गया हूँ
भूल गया हूँ
मक्की की रोटियाँ और लस्सी का स्वाद
गाँव से शहर आकर
दूर हो गया हूँ मैं ‘माँ’ से l

इसके अलावा संग्रह में  ‘सवाल’,‘औरत’ , ‘चुप ही रहना’, आदि कविताएं नारी विमर्श पर लिखी गई हैं जो कई सवाल खड़े करती हुई भीतर तक उद्देलित कर जाती हैं । ‘अपनी जमीन अपने लोग', ‘मैं डर गया हूँ’, ‘कथानक’, ‘नेपथ्य से’, ‘माठू’, ‘पराजय’, ‘इबारतें’, ‘दिनचर्या, ‘गिद्ध’, ‘पहाड़’, ‘अस्पताल’, ‘योग्यता’, विद्यार्थी  नामक कविताएं भी बहुत ही सशक्त बन पड़ी हैं ।

रौशन जसवाल 'विक्षिप्त' जी के लेखन का फलक असीम है । कविता का मूल तत्व संवेदना उनकी कविताओं की विशेषता कही जा सकती है l उनकी कविताओं में जहां एक ओर दार्शनिकता एवं मानवीय मनोविज्ञान का ताना- बाना है तो वही दूसरी ओर आम जनमानस और समाज की चिंताएं भी उद्घाटित होती हैं । पर्यावरण के प्रति भी वे अपनी कविताओं में मुखर हैं l

प्रस्तुत संग्रह पेपर बैक में है, जिसकी छपाई उम्दा दर्जे की है । 88 पृष्ठीय इस पुस्तक की कीमत मात्र 100 रुपए है । यह संग्रह बोधि प्रकाशन, जयपुर (राजस्थान) से प्रकाशित हुआ है । यह पुस्तक अमेज़न से भी ऑनलाइन मंगवाई जा सकती है । आशा है कि यह काव्य संग्रह सुधी पाठकों के मध्य अवश्य सराहा जाएगा । इस संग्रह के प्रकाशन हेतु कवि रौशन जसवाल 'विक्षिप्त' जी को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं !
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मनोज चौहान, एसजेवीएन कॉलोनी दत्तनगर, रामपुर बुशहर, शिमला (हिमाचल प्रदेश) -172001

रविवार, अप्रैल 05, 2020

पहाड़ चुप है

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शहर
गमलों से निकल कर
निहार रहा है पहाड़ो को,

शहर देख रहा है
प्रकृति की अठखेलिया
स्वच्छ होता नभ
मनमोहक चांदनी
जीवों वनस्पतियों की 
चहलकदमी
और  
कर रहा है
स्वयं से मंथन,

लेकिन पहाड़
उदास है
गमगीन है
क्योंकि
वो जानता है
स्तिथियाँ बदल जाएगी
एक अंतराल के बाद
वो रह जायेगा एकाकी,

पहाड़ जानता है
ये प्रसन्नताएँ उल्हास
ये मन्त्रणाएँ
क्षणिक है
खो जाएगा ये सब
कहीं सुदूर
और
इन्ही गमलों में
खो जाएगा शहर
 पहाड़ चुप है
हमेशा की तरह।

बुधवार, नवंबर 06, 2019

घर ढूंढ़ता है कोई

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इस शहर में घर ढूंढता है कोई,
क्या यहां अपना रहता है कोई।

उफ ये दौड़ , ये भागमभाग,
चुपचाप सा बहता है कोई।

बदहवास ज़िंदगी का सबब है क्या,
अपना ही पता यहां पूछता है कोई। 

एक दूसरे की साँसों से बंधे है हम,
फिर भी जुदा जुदा सा रहता है कोई। 

चेहरे तो हैं सभी जाने पहचाने, 
फिर भी अपना लापता है कोई। 

पूछ रहा हूं मैं उससे उसी का नाम,
मुझे ही विक्षिप्त कहता है कोई। 

जारी....

शनिवार, मई 18, 2019

दिल

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अच्छा है कहीं दिल लगा कर रखें
अकेले यूँ ज़िन्दगी बसर नहीं होती।

दीजिये लीजिए जो भी, श्रद्धा से करें
बिन भावना के दुआ असर नहीं होती ।

सोमवार, फ़रवरी 04, 2019

दीवारों से बतियाना

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मां
अक्सर बातें करती थी
दीवारों से अकेले ही,
कभी
समझा नहीं
मां का बतियाना
दीवारों से,
आज समझा हूँ 
होता क्या है
अकेलापन
और
एकटक
दीवारों को देखना,
दीवारों से
बतियाना,
एक उम्र के बाद
लगता है अच्छा
एकाकी
दीवारों को एकटक देखना
और
उनसे
अकेले बतियाना।

शनिवार, नवंबर 03, 2018

शब्द

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खो गए हैं
कुछ शब्द मेरे
जो है मेरे समीप
रहते थे आसपास मेरे ही,
मां के शब्द
भाई के शब्द
दोस्तों के शब्द
आत्मीय, प्रेम
और स्नेह के शब्द,
कहाँ होंगे
क्यों खो गए वे शब्द,
कहना चाहता हूँ
ढेरों कहानियां कविताएं
कुछ आपबीती
और कुछ जगबीती
परंतु वो शब्द खो गए हैं,
ढूंढता रहता हूं उन्हें
कहीं तो होंगे ही
मिलेंगे जरूर , है ये आस,
तब मैं शामिल हो जाऊंगा
तुम्हारी महफ़िल में
तुम्हारे कहकहों में
अभी मैं ढूंढ लूं उन्हें,
तुम भी देखना
तुम्हारे पास ही तो नहीं कहीं
वो शब्द
जो खो गए है
और ढूंढ रहा हूँ जिन्हें
मैं आसपास।

गुरुवार, फ़रवरी 22, 2018

जात गाली हो गई

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जात अब  जात नहीं रही गाली हो गई 
गरीब की जोरू सबकी साली हो गई है।
जिसे भी देखिए उगल देता है बहुत कुछ 
रिश्‍ते नाते जिन्‍दगी सवाली हो गई है।

आप क्‍या सोचते हो भला कर रहे हो
सेवाभाव मदद की बातें मवाली हो गई है।

रूतबा पद सम्‍मान सब बेकार की हैं बातें 
पल पल अब सांसो की रखवाली हो गई है।

दर्द है वेदना और जलालत है 
झूठे सब , मुस्कुराहटें जाली हो गई है।

बच कर रहना जनाब ये अजब शहर है
इश्‍क मुहब्‍बत पुरानी कव्‍वाली हो गई है।

मुस्‍कुरा रहे हो ग़ज़ल कोई पुरानी पढ़ कर
विक्षिप्‍त की बातें जनाब निराली हो गई है।

गुरुवार, अक्तूबर 19, 2017

स्मृतियां

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दबे पांव
कुछ स्मृतियां
आएगी सामने
छम से रौशनी लिए ,
ढूंढेंगे शब्द, अर्थ 
और शब्दावली,
फिर हो जाएगी गुम
रौशनी स्मृतियां 
तुरंत 
कहीं अंधकार में 
प्रश्न अनेक छोड़ ...

सोमवार, अक्तूबर 16, 2017

गांव

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गांव,
नहीं रहा है गाँव अब,
गांव बन गया है
षड्यंत्रकारियों,
चोरों और उच्चकों का गढ़,
संवेदना खत्म हो गई है
भर गई कड़वाहट
रिश्तों में है शून्यता,
सुरक्षित नहीं रहा है
गाँव अब
रास्ते , पगडंडियां और गालियां
हो गई है असुरक्षित,
ना जाने
कहाँ से निकल आये कोई
और
कत्ल कर दे
सम्मान, संवेदना और सहृयता का,
नहीं रहा है गांव
अब गाँव ।

मंगलवार, सितंबर 05, 2017

अंतर तो बताइए

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धे घोड़े में अंतर ज़रा समझाइये जनाब, 

नियम उप नियम क्या है बताइये जनाब।

बन्द कमरों में योजनाएं बनानी है आसान ,

कभी यथार्थ के धरातल पर भी आइये जनाब।

हमी से ये बाग बागीचे और शानो शौकत,

दो मिट्ठे बोल और गले तो लगाइये जनाब।

हर इल्ज़ाम हमी पर हम सब चोर है क्या,

शक अगर है इतना तो थाना बैठाइए जनाब।

टूट जाये दिल गुम जाए अरमान तुमको क्या,

ग्राहक बहुत है आप दुकान सजाइये जनाब।

शासक जनता का फर्क समझता है  विक्षिप्त,

प्रजा है आपकी इतना मत हड़काइये जनाब 

गुरुवार, फ़रवरी 02, 2017

तबियत

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तबियत नासाज़ है तुम दुआ करना
मुझे और जीना है तुम दुआ करना

आना जाना है एक कटु सत्य
चलते जाना है तुम दुआ करना

उड़ता रहू पंख न थके मेरे
लगे न प्यास तुम दुआ करना

बहुत काम करने है अभी
कुछ न रहे शेष तुम दुआ करना

सुनी है ढेरों झूठी कथाएं यहाँ
मैं सच पर रहूँ तुम दुआ करना

इक दौड़ है एक खेल है जीवन
जीतता रहूँ मैं तुम दुआ करना

यारब ये अफवाहों  का दौर कैसा
बेगुनाही रहे मेरी तुम दुआ करना

विक्षिप्त हूँ समझता हूँ  बेरुखी तुम्हारी
मर कर जी जाऊं तुम दुआ करना

मंगलवार, जनवरी 31, 2017

मीत

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छोड़िये कटुता मीत बन जाइए                                                          
पराजित  की  जीत बन जाइए                                                     
क्षण भंगुर जीवन का क्या है पता                                             
फैलाकर मधुरता संगीत बन जाइए

सोमवार, जनवरी 23, 2017

ममत्व

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संसार तब तक
ही सुन्दर है
जब इसे
देखते है
माँ की आँखों से
संसार
भयानक है
डरावना है
अवसरवादी है
जब भी देखा
अपनी आखों से
संसार में मात्र
ममत्व  सुन्दर है
और कुछ भी नहीं

 
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