'ननु ताकती है दरवाजा’ वरिष्ठ साहित्यकार रौशन जसवाल ‘विक्षिप्त’ जी का हाल ही में प्रकाशित प्रथम काव्य संग्रह है । उनकी वर्षों की साहित्य साधना का परिणाम है यह कविता संग्रह l अपने आस-पास के परिवेश को गहनता से महसूस कर और जीवन के संजीदा अनुभवों को कलमबद्ध करके उन्होंने पाठकों को यह सौगात दी है, जिसे पढ़कर पाठक बहुत गहरे तक डूबता चला जाता है और कई कविताओं में खुद को ढूंढने की कोशिश करता है l किसी भी संग्रह या कृति की महता तभी है जब एक साधारण पाठक या आम जनमानस उससे जुड़ाव महसूस करे और इस कसौटी पर यह संग्रह खरा उतरता है l
प्रस्तुत संग्रह में छोटी - बड़ी 64 कविताएँ संकलित हैं, जो कि अलग- अलग कालखंड में रची गई हैं l वर्तमान में हिमाचल प्रदेश शिक्षा विभाग में उप- निदेशक के पद पर कार्यरत जसवाल जी 1983 -84 से साहित्य कर्म से जुड़े हैं और लघुकथा लेखन में भी उनका विशेष दखल रहा है, जिसके परिणामस्वरुप उन्हें कई संस्थाओं द्वारा कई सम्मानों से भी नवाजा जा चुका है l
संग्रह की पहली ही कविता 'वो क्षण' में कवि ने स्पष्ट किया है कि सर्वप्रथम जिस समय में उनके भीतर सृजन का बीज अंकुरित हुआ था,उस समय को उनके लिए बताना कितना कठिन है । कविता की पंक्तियां देखें :
बताना कठिन है
वो क्षण कौन से थे
जब सहसा अनुभव किया मैंने
हिलोरे ले रहा है विचारों का समुद्र
मेरे भीतर
और करनी है
अभिव्यक्ति जिसकी मुझे शब्दों में l
यह सच है कि एक आदमी के भीतर एक नहीं बल्कि अनेक चेहरे होते हैं, जिसे कोई और नहीं बल्कि व्यक्ति विशेष स्वयं ही महसूस कर सकता है l कवि की दृष्टि बहुत ही सूक्ष्म है, जिसे वो अपनी ‘चेहरा’ नामक कविता में स्पष्टतया उकेरते नज़र आते हैं । कविता की बानगी देखें :
आज देखिएगा टकटकी बांधकर
चेहरे के भीतर
एक और चेहरा नजर आएगा तुम्हें
छल और कपट से भरा हुआ
जरुर देखिएगा l
गरीबी और अभावग्रस्त जीवन हालातों को बदतर कर देते है और मजबूर भी l हमारे समाज की असम्बेदनशीलता की पोल खोलते हुए कवि ‘उसका मासूम चेहरा’ नामक कविता में कहते हैं कि :
आज फिर देखा है उसे
मिट्टी से सने पाँव
चीथड़ों को लिए हुए
आराम सुखों का छोड़ कर
चल दिया काम की तलाश में
ढूंढने लगा जीवन
उस कूड़े के ढेर में
गिराता था सारा मोहल्ला
गंदगी जिसमें l
‘मैं की व्यथा’ नामक कविता सोचने पर विवश करती है, जिसे पढ़ते हुए पाठक वर्तमान, भूत और भविष्य के भंवर में डूबता चला जाता है । कविता की पंक्तियों पर जरा गौर करें :
नदियों के छलछल बहते जल में
रेत की तपिश में
और सरिता के किनारे
जहाँ कभी खेलते थे बच्चे मेरे गाँव के
और उन्ही में मैं था
परन्तु अब अपना ही
झुर्रियों वाला चेहरा देखता हूँ l
घर एक ऐसा स्थान होता है जिससे हर इंसान की बचपन से लेकर बड़े होने की स्मृतियाँ जुड़ी होती है और यह हमारे पूर्वजों की अमूल्य धरोहर होता है l अपने घर से जुड़ी इन्हीं समृतियों को कवि ने ‘घर’ नामक कविता में उद्घाटित किया है l समाज में अपराधिक प्रवृति जब बढ़ जाती है तो एक माँ के लिए अपने बेटे की चिंता जायज है, जिसे कवि ने ‘अँधेरा’ नामक कविता में निम्न पंक्तियों के माध्यम से उजागर किया है :
सुबह जब मैं घर से निकलता हूँ तो
माँ कहती है, बेटा जल्दी आ जाना
अँधेरा होने से पहले
क्योंकि मेरे शहर में
जवान लड़के -लड़कियां गुम होने लगे हैं
मेरे शहर में अब
इंसानी भेड़ियों ने घर बना लिए हैं
और ढूंढने लगते हैं खुराक
अँधेरा घिरते ही l
सत्य वास्तव में ही कड़वा होता है और कई बार पीड़ादायक भी । ‘तुम्ही कोई शीर्षक दो’ नामक कविता में कवि एक प्रश्न खड़ा करते हैं, जिसे कविता की निम्न पंक्तियों से साफ समझा जा सकता है :
उस महल की नीवं का दर्द
कोई नहीं समझ सकता
जिसके आधार में हों करोड़ों चीखें
इतनी कराहें कि कल्पना मात्र से सिहर उठे हम
उन लोगों की सुबह कैसी होती होगी
जिन्हें चखना पड़ता है स्वाद
सिर्फ कराहों और चीखों का ?
कई बार जीवन में ऐसे अवसर भी आते हैं जब गिले – शिकवे, शिकायतें और गलतफहमियाँ हावी हो जाती हैं l इन सबके बाबजूद भी कवि का संवेदी मन कराह उठता है l मानव हृदय की विशालता को प्रकट करती कविता ‘उसका सच’ की ये पंक्तियाँ भीतर तक स्पर्श करती हैं :
बहुत दिनों तक
जब देख नहीं पाता हूँ उस शख्स को
जिससे मुझे बेहद नफरत है
तब सालने लगती है मुझे एक चिंता
और मैं पूछ बैठता हूँ उदासी से
वो ठीक तो होगा न ?
पारिवारिक जरूरतें जब गाँव में पूरी नहीं हो पाती तो व्यक्ति शहर या महानगर का रुख करता है, मगर शहर की भीड़ और तेज रफ़्तार जिंदगी में कहीं खो सा जाता है l और कभी -कभार हादसों का भी शिकार हो जाता है l ‘महानगर’ नामक कविता में कवि ने इसी पीड़ा को उजागर किया है l कुछ इस तरह से कि :
महानगर क्या तुम थोडा रुकोगे
गाँव तुमसे बतियाना चाहता है
गाँव पूछना चाहता है
ढेरों प्रश्न तुमसे
पिछले वर्ष
रामू की बेटी तुमसे मिलकर
कहाँ खो गई ?
शब्दों की सही ताकत को परिभाषित करती और सामाजिक बदलाव और क्रांति का आवाहन करती लघु मगर मारक कविता ‘शब्द’ में वे लिखते हैं:
क्रांति आती नहीं
उदास और मुरझाए चेहरों से
क्रांति लाते नहीं
प्रेयसी के आगोश में छुपे युवक
क्रांति के लिए शब्दों में रमना पड़ता है
और लिखना होता है लहू से क्रांति
सिर्फ क्रांति !
संग्रह की शीर्षक कविता ‘ननु ताकती है दरवाजा’ एक भावना प्रधान कविता है, जो बाल मन की निश्चलता और भोलेपन को खुबसुरती से उकेरती है l कई बार बच्चे अपने इसी नैसर्गिक गुण के कारण बड़ों को भी बहुत कुछ सीखा जाते हैं और सोचने पर मजबूर कर देते हैं l कविता की पंक्तियाँ देखें :
कैसे सीख लिया है ननु ने इन्तजार करना
अब मैं झूठा बनता जा रहा हूँ
जब भी छोड़ना होता है ननु को
कह डालता हूँ एक भारी झूठ
ननु करती रहती है प्रतीक्षा
दोपहर बाद तक l
रोग ग्रस्त व्यक्ति जब अस्पताल में दाखिल होता है तो उसके दिमाग में अनेक तरह के झंझावात चलते रहते हैं l इसी मनोस्थिति को कवि ने बहुत गहरे से महसूस किया है l भीतर तक छूने वाली ‘जिजीविषा’ नामक कविता की पंक्तियों पर गौर करें :
जिजीविषा निरंतर देखती रहती है
सिरिंज में बूंद- बूंद रक्त
और सह लेती है
डायलिसिस की वेदना
नर्सों की अनावश्यक डांट l
गाँव से दूर जब वहां बिताएं बक्त की स्मृतियाँ दस्तक देती हैं तो मन में एक टीस सी उठती है और मन करता है की फिर से वहीं उस खुशनुमा बक्त में लौट आएं l कवि के गाँव, खेत, खलिहानों और माँ के प्रति गहरे जुड़ाव को दर्शाती कविता ‘वादे’ भाव-विभोर कर जाती है l कविता की निम्न पंक्तियां देखें :
बहुत दिनों से देख नहीं पाया हूँ
गोबर से लिपीपुती दीवार
और देखी नहीं किसी आँगन में तुलसी
बहुत दिनों से भेड़ों के साथ
जंगल नहीं गया हूँ
भूल गया हूँ
मक्की की रोटियाँ और लस्सी का स्वाद
गाँव से शहर आकर
दूर हो गया हूँ मैं ‘माँ’ से l
इसके अलावा संग्रह में ‘सवाल’,‘औरत’ , ‘चुप ही रहना’, आदि कविताएं नारी विमर्श पर लिखी गई हैं जो कई सवाल खड़े करती हुई भीतर तक उद्देलित कर जाती हैं । ‘अपनी जमीन अपने लोग', ‘मैं डर गया हूँ’, ‘कथानक’, ‘नेपथ्य से’, ‘माठू’, ‘पराजय’, ‘इबारतें’, ‘दिनचर्या, ‘गिद्ध’, ‘पहाड़’, ‘अस्पताल’, ‘योग्यता’, विद्यार्थी नामक कविताएं भी बहुत ही सशक्त बन पड़ी हैं ।
रौशन जसवाल 'विक्षिप्त' जी के लेखन का फलक असीम है । कविता का मूल तत्व संवेदना उनकी कविताओं की विशेषता कही जा सकती है l उनकी कविताओं में जहां एक ओर दार्शनिकता एवं मानवीय मनोविज्ञान का ताना- बाना है तो वही दूसरी ओर आम जनमानस और समाज की चिंताएं भी उद्घाटित होती हैं । पर्यावरण के प्रति भी वे अपनी कविताओं में मुखर हैं l
प्रस्तुत संग्रह पेपर बैक में है, जिसकी छपाई उम्दा दर्जे की है । 88 पृष्ठीय इस पुस्तक की कीमत मात्र 100 रुपए है । यह संग्रह बोधि प्रकाशन, जयपुर (राजस्थान) से प्रकाशित हुआ है । यह पुस्तक अमेज़न से भी ऑनलाइन मंगवाई जा सकती है । आशा है कि यह काव्य संग्रह सुधी पाठकों के मध्य अवश्य सराहा जाएगा । इस संग्रह के प्रकाशन हेतु कवि रौशन जसवाल 'विक्षिप्त' जी को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं !
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मनोज चौहान, एसजेवीएन कॉलोनी दत्तनगर, रामपुर बुशहर, शिमला (हिमाचल प्रदेश) -172001
2 Reviews:
बहुत ही उम्दा लिखावट , बहुत ही सुंदर और सटीक तरह से जानकारी दी है आपने ,उम्मीद है आगे भी इसी तरह से बेहतरीन article मिलते रहेंगे
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