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शनिवार, मार्च 12, 2022

सामाजिक ऊहापोह को सटीक उकेरतीं कविताएं

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  साहित्यश्री, रम्भाश्री और शकुन्तला स्मृति सम्मान से सम्मानितकवि हृदय श्री रौशन जसवाल 'विक्षिप्त' की अस्सी के दशक से निरन्तर पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं, लेख, लघुकथाएँ, क्षणिकाएं प्रकाशित होती रहीं हैं तथा आकाशवाणी एवं दूरदर्शन केन्द्र शिमला से समाचार वाचन तथा साहित्य की कई विधाओं में आलेख, कविताएं, वार्ताएं, रेडियो नाटक आदि प्रसारित होते रहते हैं। हिन्दी और इतिहास में आनर्स स्‍नातक स्तरीय उत्तीर्ण कर इन्हीं विषयों में हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय, शिमला से स्‍नातकोत्तर उपाधियाँ प्राप्त कर जसवाल जी राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय सराहां सिरमौर (हि०प्र०) में इतिहास प्रवक्‍ता नियुक्त हुए तथा इसके पश्चात विभिन्न पदों पर पदोन्‍नत होकर 31 अक्तूबर 2021 को संयुक्त शिक्षा निदेशक स्‍कूल हि.प्र. के पद से सेवा-निवृत्त हुए हैं।

                                        इतिहास और हिन्दी में निष्णात इन्होंने इतिहास को अध्यापन का विषय चुना और पूर्ण निष्ठा के साथ सारस्वत दायित्व वहन करते सामाजिक, पारिवारिक महत्त्वपूर्ण जिम्मेवारियों का सम्यक निर्वाह करते साहित्यिक समृद्धि में भी सतत कटिवद्ध रहे। सन् 1986 से इनका साहित्य लेखन प्रकाशित, प्रसारित, संकलित और पुरस्कृत होता रहा है। तलाश (कविताएं और लघुकथाएं) अम्मा कहती थी, पगडण्डियाँ (कविता संग्रह) इनके सुधी सम्पादन में प्रकाशित हुई हैं । ' ननु ताकती है दरवाजा' इनका प्रथम प्रकाशित कविता संग्रह है। कविता संग्रह का शीर्षक 'ननु ताकती है दरवाजा' एक अवोध, निरीहा, स्वच्छहृदया बालिका की मानसिकता व्यक्त करता है। संस्कृत में ननु का अर्थ पूछताछ, प्रश्‍न, निश्‍चय ही, अवश्‍य, निस्‍संदेह आदि सात अर्थों में प्रयुक्त होता है। बालिका भी निश्चित ही आश्रयदाताओं की प्रतीक्षा में निर्निमेष ताकती रहती है तथा खामोशी व एकाकीपन को मित्र बनानेकी विवशता व्यक्त होती है। (पृष्‍ठ 50-51)

                                      इनकी आलोच्य कृति मैं बच्चा होना चाहता हूं’, सौ पृष्‍ठों  में 80 पठनीय कविताओं से युक्त द्वितीय कविता-संग्रह है। यह संग्रह 2021 में प्रकाशित हुआ है तथा इसका मूल्य मात्र 120 रुपये है। पुस्तक के आरम्भ में 'अपनी बात' शीर्षक से जहाँ कवि जसवाल जी अपनी कविता लेखन यात्रा उत्स की ओर इंगित करते हैं वहाँ वे साहित्य की ओर प्रेरक व्यक्तियों का निस्संकोच आभार भी व्यक्त करते हैं और यही प्रणति परम्परा किसी लेखक के महान व्यक्तित्व को दर्शाती है।

                                    मैं इनके व्यक्तित्व और कृतित्व से पूर्व परिचित हूँ। लेखक या कवि होने का दम्भ इन्हें कदापि स्पर्श नहीं कर सका है और यह लक्षण साहित्यकारों में बहुत कम पाया जाता है। आज छपते कम हैं प्रचार-प्रसार प्रदर्शन अधिक, होता है। नातिमानिता का अप्रतिम दृष्टान्त इनके व्यक्तित्व में सहज देखा जा सकता है। अपने नाम के अनुरूप कवि जसवाल ने समाज की अच्छाइयों और विद्रूपताओं को जस की तस रोशन कर सार्थक किया है। इनकी रचनाओं के शीर्षक पाठकों को बलात् आकृष्ट करते हैं। समीक्षक किसी भी रचना के शीर्षक को महत्वपूर्ण तत्‍व स्वीकार करते हैं। द्वितीय कविता संग्रह का शीर्षक मैं बच्चा होना चाहता हूँ। नामक कविता संग्रह के पृष्ठ 84 पर प्रकाशित है। इस कविता के माध्यम से कवि ने भौतिकता की चकाचौंध से सुदूर सामाजिक पद-कद की व्‍यर्थ ऊंचाइयों के व्‍यामोह से हटकर बालभाव की श्रेष्ठता का समर्थन किया है। समाज की मौका परस्त झंझटों भरी फितरत कवि को कहीं भीतर तक आहत करती है। शैशव के खेल खिलौने और वात्सल्य पूर्ण माँ की ममता कवि को खूब अभिभूत करती है। भावनाओं की उत्ताल ऊर्मियों से उमड़ता घुमड़ता उदधि कवि को भावुक बना देता है और वह चन्द्रचुम्बी प्रासाद का मोह छोड़ सुखशान्ति पूर्ण निश्छल जीवन व्यतीत करने के आश्रय की चाह व्यक्त करता है। कितना सुन्दर, सुखद बालभाव सन्देश शीर्षक के माध्यम से प्रस्तुत किया है।

                                            कवि 'विक्षिप्त' पूर्व निर्मित पथ के पथिक बनना स्वीकार नहीं करते वे स्वयं नूतन सरणि का निर्माण करते हैं। इस संग्रह में प्रकाशित उनासी कविताओं को मात्र संख्या से ही परिगणित किया है। कविता की प्रथम पंक्ति पाठकों की सुविध के लिए अनुक्रम में दर्शायी है। (पृष्‍ठ 7-10) केवल अन्तिम मुक्तक या क्षणिकाओं को 'अधूरे पन्‍ने की संज्ञा दी है। कविता संग्रह की अधिकांश कविताएं हास्य व्यग्‍य शैली में पाठकों को गुदगुदाने, सोचने पर विवश कर देती है। कवि की ध्‍वनि भंगिमा देखें :–

हर आदमी का यहाँ अलग अंदाज है,

होंठों पर मिठास और खुश्क आवाज़ है। (पृष्ठ-17)

                                     जीवन के उत्थान-पतन अपेक्षा-उपेक्षाओं, सफलता विफलताओं का गणित कवि ने मानव इतिहास को खूब जाँचा-परखा है। इस दिशा में कवि-कथ्य विचारणीय है:-

मत पुछिएगा सबब मेरी नाकामियों का,

जिक्र आएगा तुम्हारी मेहरबानियों का । (पृष्ठ-18)

तुमने कही कहानियाँ और किस्से कई,

        धनवान भी संसार में लुट जाते हैं आखिर। (पृष्ठ-19)

                                   कवि जसवाल में उत्प्रेक्षाओं के क्षितिज स्थापित करने की अनुपम क्षमता है तथा अपने मनो भावों को व्यक्त करने की मसृणता भी अद्‌भुत है:-

देख खतों को याद आई तो होगी,

कोई नज्म देख बुदबुदाई तो होगी।

काँपे होगे हाथ थरथराये होगे होंठ,

थोड़ा जरूर वह मुस्कुराई तो होगी। (पृष्ठ-20)

                       जीवन के उतार-चढ़ाव, परिस्थितियों को भी अपने ढंग से रूपकों में उकेरा है :-   

        जिन्दगी है धीरे-धीरे जलती लकड़ी,

खुद को ऐसे खत्म किया है हमने।

सूखे पेड़ के मानिंद खड़े हैं आज,

जिन्दगी को इस तरह ज़िया है हमने। (पृष्ठ 22)

                                 कवि की मिलनसारी की हठधर्मिता भी विचित्र भावों का वितान पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करती है :-

इल्ज़ाम पर इल्ज़ाम लगाए जाते हैं,

फिर भी हम उनकी महफिल में जाते हैं।

आज रोके नहीं रुकता आँसूओं का सैलाब,

कुछ तो बात है जो हम मुस्कुराये जाते हैं। (पृष्ठ 24)

                            जन-मानसिकता के पारखी विक्षिप्त' निज मनोभावों को तदनुरूप शब्द शैया प्रदान करते हैं :-

अक्सर गुजरता देख मुझे यहाँ वहाँ विक्षिप्त सा,

उलाहने देते और मन्द मन्द मुस्कुराने लगे हैं लोग। (पृष्ठ 25)

नज़रें उठतीं हैं सभी की मेरी ओर,

इतना विक्षिप्त बन गया है जीवन। (पृष्ठ-26)

                               बदलते सामाजिक परिवेश को कवि ने अतीव निकटता से जाँचा-परखा है और उसे उचित शब्द भी प्रदान किये हैं :-

रास आ गई तन्हाइ‌याँ रात की,

अब तो प्रभात से डर लगता है। (पृष्ठ-28)

खेलते हैं अस्मत से बन्द कमरों में,

वही चरित्र का सबक सुनाते हैं। (पृष्ठ- 29)

वो खत और तहरीरें क्या एक बहाना था,  

तेरा बातों से लुभाना क्या इक बहाना था। (पृष्ठ 30)

                                कवि अध्यापन और प्रशासन कार्य से लम्बी अवधि तक जुड़े रहे, अत: उपदेशात्मक शैली यत्र -तत्र मुखरित होना स्वाभाविक ही है:-

बन कर ऊषा उडेलो मधु परिवेश में,

मिटे संताप सब कुछ ऐसा प्रयास कर दो। (पृष्ठ-34)

 सांस रोके हैं हवायें भी,

घर में जयचन्द घुस आया है। (पृष्ठ 37)

बंद मस्तिष्क के किवाड़ तो खोलिए,

सम्बन्धों को सपनों में मत तोलिए। (पृष्ठ-63)

 बेहतर है कोई अर्थ दे दे जिन्दगी को,

इन बुझते दीपों को बचाएंगे कैसे।  (पृष्ठ-45)

                          कवि की लोक रीति के प्रति प्रीति अवलोकनीय है :-

कभी षड़यन्त्र तो कभी दिलासे,

गिरगिट की तरह रंग बदलता है आदमी। (पृष्ठ-47)

'गिरगिट की तरह रंग बदलना' लोकोक्ति मुहावरे दार प्रयोग में निपुण कार्यालयीय उत्कोच वृत्ति की ओर भी कवि का संकेत ध्यातव्य हैं

आपकी फाईल निर्जीव पड़ी है जनाब,

हो सके तो नोटों के टायर पहनाइए । (पृष्ठ-51)

सामाजिक स्वार्थवृत्ति विषय में कवि तंज कसते हैं :-

आसां नहीं है, किसी के दर्द में शामिल होना,

मुझे विक्षिप्त बताया जाता है उस घर में। (पृष्ठ 53)

प्रतीकात्मक और श्लेषात्मक वर्णन निपुणता भी उल्लेखनीय है :-

बन सकोगी क्या मीरा विक्षिप्त की,

पीकर हलाहल अमरगीत तुम बन जाओ। (पृष्ठ-54)

                         आत्मीय सम्बन्धों में लोक व्यवहार में घिरते द्वंद्व को भी कविता का विषय बनाया गया :-

मकानों की बजाय दिलों में घर बनाए होते.

लोक सज़दा करते हमने भी सर झुकाए होते। (पृष्ठ-59)

सम्बन्धों के समीकरण बदलते हैं धीरे धीरे,

अर्थ शब्दों के निकलते हैं धीरे धीरे (पृष्ठ-60)

छला है अपना बन कर सभी ने

यूँ ही नहीं विक्षिप्त सा घूमता हूँ मैं। (पृष्ठ-80)

             जात पात का उपदंश, समाज के लिए घात‌क होता है। दलित वर्ग की विवशता की ओर इंगित करते कवि कहते हैं :-

जात अब जात नहीं रही गाली हो गई,

गरीब की जोरू सबकी साली घे गई। (पृष्ठ-81)

बंटे हो गुटों जात पात वर्ग भेद में,

जीवन कौड़ियों में नीलाम करता है यार तू । (पृष्ठ-87)

 व्यवस्था पर भी कवि का करारा व्‍यंग्‍य श्रवणीय है:-

बन्द कमरों में योजनाएं बनानी है आसान,

कभी यथार्थ के धरातल पर भी आइये जनाब (पृष्ठ-88)

दो मुँहे साँपों से भरा है आस पास

          दोस्‍त बन कौन डस जाए क्‍या मालूम (पृष्ठ-72)

गोरे गए अब काले लूट रहे  हैं

तिजोरियों के ताले टूट रहें  हैं। (पृष्ठ-68)

 कर ले बदनाम ठग ले हक मेरा

लूटेरा तू है, लूटे, सब ज़र जोरू जमीन॥ (पृष्ठ-75)

                          सामाजिक भविष्‍य के सुखद स्‍वप्‍न और उनका कार्यान्‍वयन प्रक्रिया भी कदाचित फलवती प्रतीत होती है:-

बहुत काम करने है अभी

कुछ न रहे शेष तुम दुआ करना  (पृष्ठ-76)

बेवजह यूं घर से जाया नहीं  करते,

मां को अपनी रूलाया नहीं करते । (पृष्ठ-82)

खुशबू फैलाओ तो कुछ बात बने,

विष यहां वहां भरा पड़ा है जनाब। (पृष्ठ-74)

                               यथा तथ्य चित्रण का चितेरा कवि कल्पा यात्रा के समय कड़च्‍छम के समीप सतलुज नदी का शब्‍द चित्र उकेरता है

पहाड़ सिसकता है अन्तस है सूखा,

पानी की एक बूंद अरमान हो गई। (पृष्ठ-83)

                                      कवि क्षणभंगुर काया माया से सुपरिचित हैं तथा लेखकीय धर्म बोध विषय‌क अन्‍तर्ध्‍वनि इस प्रकार व्यक्त करते हैं:-

जीवन है क्षणभंगुर न जाने कब क्या हो,

कर ले कुछ नाम इक निशानी लिखते हैं। (पृष्ठ 85)

                                   निष्कर्षत: समग्र रचनाओं के अध्ययन से कहा जा सकता है कि सहृदय कवि जसवाल "यथाSमै रोचते विश्वम् तथैदं, परिवर्तते ।" की पौराणिक परम्परा की सर्वथा अनुपालना के निकष पर सही उतरे हैं।  सभी रचनाओं में विषय का प्रतिपादन और उनके अनुरूप शब्द चयन तथा उनमें असीमित भाव सम्‍पदा का प्रस्तुतीकरण पाठकों को बलात् आकृष्ट करता है। संग्रह की जिस भी  रचना को पढ़ते है सर्वत्र पद्यों  की कसावट का अनुशासन, प्रसाद गुणाश्रित अर्थ की सहज सम्प्रेषणीयता चित्त को आह्लादित कर देती हैं।

                                 सामाजिक ऊहापोह को उकेरती कविताएं परिवेश के अधिकांश विषयों की अभिव्यक्ति से पाठकों को गुदगुदाया है, सम्मोहित किया है।  जहाँ कवि का कथ्य पाठकों के मन-मस्तिष्‍क पर तत्काल प्रभाव छोड़ दे वहीं लेखकीय धर्म सफल हो जाता है। हिन्दी गजलों के समीप प्रगणित होने वाली रचनाओं में कहीं मर्यादित शृंगार का पुट यथा अवसर शब्‍दों के प्रयोग में तत्सम, तद्भव, देशी, विदेशी, उर्दू, फारसी जहाँ जिसकी आवश्यकता समझी निःसंकोच समुचित स्थान प्रदान किया है। उर्दू-फारसी अनभिज्ञ पाठकों की सुविधा के लिए पाद टिप्‍पणियाँ दिये जाने का भी प्रचलन है ।

                              इसमें रंच भी अतिशयोक्ति नहीं है कि कवि श्री रौशन जसवाल 'विक्षिप्त' का कविता-संग्रह  मैं बच्चा होना चाहता हूँमें ध्वनि, भाव-भाषा, प्रतीकों, बिम्बों, शब्द शक्तियों आदि काव्य शास्त्रीय तत्त्वों की कसौटी पर सटीक उतरी- निखरी कविताएँ हैं। एतदर्थ कवि को मेरा हार्दिक साधुवाद एवं अनन्त शुभकामनाएँ।

 (डॉ० प्रेमलाल गौतम शिक्षार्थी)‍

सरस्वती सदन, रबौण,

पत्रालय-सपरून 173211

जिला - सोलन (हिप्र) वार्ड नं0 16

 
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