google.com, pub-7517185034865267, DIRECT, f08c47fec0942fa0 आधारशिला : धर्म आस्‍था

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शुक्रवार, जुलाई 08, 2011

मां भगयाणी मन्दिर हरिपुर धार

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ज़िला सिरमौर के हरिपुरधार में स्थित मां भगयाणी मन्दिर समुद्रतल से आठ हज़ार की ऊंचाई पर बनाया गया है! यह मन्दिर उतरी भारत का प्रसिद्ध मन्दिर है! यह मन्दिर कई दशकों से श्रद्धालुओं की आस्था का केन्द्र बना हुअ है! वैसे तो यहां वर्ष भर भक्तों का आगमन रहता है परन्तु नवरात्रों और संक्राति में भक्तों की ज्यादा श्रद्धा रहती है! इसका पौराणिक इतिहास श्रीगुल महादेव से की दिल्ली यात्रा से जुडा है जहां तत्कालीन शासक ने उन्हे उनकी दिव्यशक्तियों के कारण चमडे की बेडियों में बांध बन्दी बना लिया था और दर्वार में कार्यरत माता भगयाणी ने श्रीगुल को आज़ाद करने में सहायता की थी! इस कारण श्रीगुल ने माता भगयाणी को अपनी धरम बहन बनाया और हरिपुरधार मेंस्थान प्रदान कर सर्वशक्तिमान का वरदान दिया! आपार प्राकृतिक सुन्दरता के मध्य बना यह मन्दिर आस्था का प्रमुख स्थल है!  बाहर से आने वाले श्रद्धालुओं के लिये मन्दिर समिति ने ठहरने का प्रबन्ध किया हुआ है! हरिपुरधार  शिमला से वाया सोलन राजगढ एक सौ पचास किलोमीटर दूर है! जबकि चण्डीगढ से १७५ किलोमीटर है! हरिपुरधार के लिये देहरादून से भी यात्रा की जा सकती है!

बुधवार, जून 08, 2011

श्रीखण्ड यात्रा 2011

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Shrikhand Mahadev
श्रीखण्ड सेवा दल और स्थानीय प्रशासन ने वर्ष 2011 में श्रीखण्ड यात्रा की तिथि की घोषणा कर दी है। सभी शिव भक्तजनों को यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता होगी कि हर साल की भांति इस वर्ष भी 16वीं बार श्रीखण्ड महादेव कैलाश यात्रा 15 जुलाई 2011 (श्रावण संक्रांति) से शुरू होने जा रही है और श्रीखण्ड सेवादल के तत्वावधान में यह यात्रा 23 जुलाई 2011 तक चलेगी। इस अवधि में 15 से 22 जुलाई तक श्रीखण्ड सेवादल द्वारा सिंहगाड से प्रतिदिन प्रातः 5 बजे यात्रा के लिए विधिवत जत्था रवाना किया जाएगा। 
यह स्थान समुद्रतल से लगभग 18000 फुट(5155 मीटर) की ऊंचाई पर है जिस कारण यहां मौसम ठण्डा रहता है। अतः यात्रियों से अनुरोध है कि अपने साथ, गर्म कपड़े, कम्बल, छाता, बरसाती व टार्च साथ लाएं। इस यात्रा की पवित्रता को ध्यान में रखते हुए किसी भी प्रकार के नशीले पदार्थ व प्लास्टिक के लिफाफे साथ न लाएं। यात्रियों से निवेदन है कि पूर्ण रूप से स्वस्थ होने पर ही इस यात्रा में भाग लें। श्रीखण्ड सेवादल कोई सरकारी सहायता प्राप्त संस्था नहीं है, सारा आयोजन सदस्यों के सहयोग से किया जाता है।

आप रामपुर बुशहर (शिमला से 130 किलोमीटर) से 35 किलोमीटर की दूरी पर बागीपुल या अरसू सड़क मार्ग से पहुँच सकते हैं। बागीपुल से 7 किलोमीटर जाँव तक गाड़ी से पहुँचा जा सकता है। जाँव से आगे की यात्रा पैदल होती है। यात्रा के तीन पड़ाव सिंहगाड़ , थाचडू और भीम डवार है। जाँव से सिंहगाड़ तीन किलोमीटर, सिंहगाड़ से थाचडू आठ किलोमीटर की दूरी और थाचडू से भीम डवार नौ किलोमीटर की दूरी पर है। यात्रा के तीनों पड़ाव में श्रीखण्ड सेवादल की ओर से यात्रियों की सेवा में लंगर (निशुल्क भोजन व्यवस्था ) दिन रात चलाया जाता है। भीम डवार से श्रीखण्ड कैलाश दर्शन सात किलोमीटर की दूरी पर है तथा दर्शन उपरांत भीम डवार या थाचडू वापिस आना अनिवार्य होता है।
Shrikhand Mahadev
श्रीखंड महादेव यात्रा के दौरान भक्त जन निरमंड क्षेत्र के कई दर्शनीय स्थलों का भ्रमण भी कर सकते हैं। इस क्षेत्र के प्रसिद्ध दर्शनीय स्थल हैं-

प्राकृतिक शिव गुफा देव ढांक, प्राचीन एवं पौराणिक परशुराम मन्दिर, दक्षिणेश्वर महादेव व अम्बिका माता मन्दिर निरमंड, संकटमोचन हनुमान मन्दिर अरसू, गौरा मन्दिर जाँव, सिंह गाड, ब्राह्टी नाला, थाच्डू, जोगनी जोत, काली घाटी, ढांक डवार, कुनशा, भीम डवार, बकासुर वध, दुर्लभ फूलों की घाटी पार्वती बाग़, माँ पार्वती की तपस्थली नैन सरोवर, महाभारत कालीन विशाल शिलालेख भीम बही।

रविवार, मई 29, 2011

तानु जुब्‍बड़ मेला 30 मई

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                                                                                                       शिमला जिला में नारकंडा ब्लाक के तहत ग्राम पंचायत जरोल में स्थित तानु जुब्बढ़ झील एक सुंदर पर्यटक स्थल है। यहाँ नाग देवता का प्राचीन मन्दिर हैं ! यह झील नारकंडा से 9 किलो मीटर दूर समुद्रतल से 2349 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है ! इस झील का एक पुरातन इतिहास रहा है ! इतनी ऊंचाई पर समतल मैदान के बीचो बीच आधा किलोमीटर के दायरे लबालब पानी से भरी इस झीलं को देख कर हर कोई सोच में पड़ जाता है ! जुब्बढ़ का स्थानीय भाषा में अभिप्राय है घास का मैदान ! इस झील की खोज का श्रेय उन भेड़ बकरी पलकों को जाता है जो यहाँ भेड़ और बकरियों को यहाँ चराने आते थे ! समतल मैदान होने के कारण इन पशु पालकों ने यहाँ पर खेती करने की सोची ! खेती करते समय उन पशु पालकों को यहाँ ठंडे इलाके के बाबजूद सांप नज़र आते थे ! वे उन साँपों को मरने का प्रयास करते तो वो वही पर लुप्त हो जाते थे ! इतना होने पर भी वे पशु पालक वहां पर खेती करते रहे ! एक दिन खेती करते समय एकाएक 18 जोड़ी बैल मैदान के मध्य छिद्र हो जाने से वहा उत्पन हुई जलधारा में समां गए ! इस जलधारा से मैदान पानी से पूरा भर गया ! मान्यता है की इस दृश्य को देखने वाले अभी हैरान परेशां ही थे की वहा नाग देवता जी की प्रतिमा उभर आई ! लोगों ने इसे देव चमत्कार मानते हुए नाग देवता की स्थापना यहाँ कर दी ! आज भी नाग देवता का मंदिर यहाँ पर आलोकिक है और लोगो में बेहद मान्यता है !

उस समय उस चमत्कार में गायब हुए चरवाहे औए बैल सैंज के समीप केपु गाँव में निकले ! यह सब केसे हुआ इसे देव चमत्कार ही माना जाता है !इसके प्रमाण आज भी केपु के मंदिर में देखे जा सकते है !
हर वर्ष यहाँ पर मई मास में 31तारीख के आस पास मेले का आयोजन किया जाता है जो की लगभग तीन दिनों तक चलता है इस मेले में चतुर्मुखी देवता मेलन मेले की शोभा बढाते है ! इस मेले में दूर दूर से श्रद्धालु दर्शनों के लिए आते है ! स्थानीय स्थाई निवासी इस मेले में ज़रूर शिरकत करते है। झील के चारो ओर देवदार के वृक्ष इस स्थल की सुन्दरता को और भी बढ़ा देते है ! ठंडी ठंडी हवा वातावरण को और भी सुहावना बना देती है ! इस मेले में खेल कूद प्रतियोगिता का भी आयोजन किया जाता है जिसमें वोल्ली बाल क्रिकेट इत्यादि प्रतियोगिता प्रमुख है !
कुछ भी कहा जाये परन्तु आज भी पुरातन काल में हुए इन चमत्कारों के प्रमाणों को देख कर लोग चकित रह जाते है ! इस क्षेत्र का प्राकृतिक सोंदर्य अद्भुत तो है ही और पर्यटकों को आकर्षित भी करता है ! आवश्यकता है इस क्षेत्र को और अधिक विकसित करने की क्योंकि यहाँ पर्यटन की आपार संभावनाएं है !

मंगलवार, अक्तूबर 26, 2010

प्रकृति की सबसे खूबसूरत रचना -चांद

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करवा चौथ पर कोई वैदिक जानकारी अपने मित्रो को देना चाहता था कोशिश करने पर दैनिक भास्कर में  पं. रमेश भोजराज द्विवेदी, जोधपुर. राजस्थान का लेख पढ़ा ! लेखक ने बहुत अच्छी जानकारी चंद्रमा  पर दी ! अपने मित्रो के लिए पं. रमेश भोजराज द्विवेदी, जोधपुर. राजस्थान का लेख दे रहा हूँ 
रिवाज  वेदों के अनुसार विराट पुरुष के मन से चंद्रमा की उत्पत्ति हुई है। प्रकृति की सबसे सुंदर कृति चंद्रमा को अत्यधिक चंचल माना गया है, मन भी चंचल है। चंचल यानी तेज़ गति से चलने वाला। ज्योतिष के अनुसार चन्द्रमा सबसे तेज़ चलने वाला ग्रह है, जो लगभग 54 घंटों में राशि परिवर्तन कर देता है। यह भी कहा जाता है कि यदि सूर्य जगत की आत्मा है, तो चंद्रमाप्राण है।
जगत काप्राण है चंद्रमा  ज्योतिष के अनुसार व्यक्ति को धनवान बनाने का कारक भी चंद्रमा ही है। कहा जाता है कि भगवान धन्वंतरि के साथ जो अमृत कलश था, उसी से चंद्रमा की उत्पत्ति हुई है। अमृत का काम जीवन को अमर बनाना होता है, शायद इसलिए चंद्रमा को जगत का प्राण माना गया है। चंद्रमा कृष्ण पक्ष में रोज घटता है और शुक्ल पक्ष में बढ़ता है। यह जल तत्व का कारक ग्रह है इसलिए जल तत्व को प्रभावित करता है और इसकी कलाओं के कारण ही समुद्र में ज्वार आता है। हमारे शरीर में लगभग 70 प्रतिशत जल है। अत: यह हमारे जीवन पर भी बहुत प्रभाव डालता है।
सुंदरतम् है चंद्रमा  कहते हैं चंद्रमा राजा है। 27 नक्षत्र इसकी रानियां हैं। लक्ष्मी सहोदरी (बहन) है। इनके पुत्र का नाम बुध है, जो तारा से उत्पन्न हुए हैं। चंद्रमा को सृष्टि में सबसे सुंदर माना गया है। साथ ही यह भावुकता प्रधान और सौंदर्य का उपासक है। चंद्रमा को सोलह कलाओं से युक्त कहा जाता है। प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक तथा अमावस्या के सहित चंद्रमा की कुल सोलह कलाएं बनती हैं।
शरद पूर्णिमा का चंद्रमा  आश्विन मास की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा कहते हैं। इसके अलावा इसे रास पूर्णिमा भी कहा जाता है। पूरे साल में आश्विन मास की पूर्णिमा का चंद्रमा ही सोलह कलाओं का होता है। कहते हैं कि इस रात चंद्रमा अमृत की वर्षा करता है। पूर्णिमा को चंद्रमा पूर्णबली होता है और शरद कालीन चंद्रमा सबसे सुंदर होता है। 
शरद पूर्णिमा-व्रत विधान  इस दिन लक्ष्मी जी को संतुष्ट करने वाला कोजागर व्रत किया जाता है। विवाह के बाद शरद पूर्णिमा से ही पूर्णमा के व्रत को आरम्भ करने का विधान है। कार्तिक का व्रत भी इसी दिन से ही शुरू किया जाता है। इसी दिन भगवान कार्तिकेय का जन्म हुआ है। कहते हैं कि पूर्णमासी के दिन जन्म लेने वाला जातक चंद्रमा की तरह ही सुंदर होता है और चंद्रमा की पूर्ण रश्मियां व सोलह कलाओं के पूर्ण गुण भी जातक को मिलते हैं। इस दिन स्नान करके विधिपूर्वक उपवास रखना चाहिए। तांबे या मिट्टी के कलश पर वस्त्र से ढंकी हुई मां लक्ष्मी जी की प्रतिमा स्थापित करके उनकी पूजा करें। कथा सुनते समय हाथ में गेहूं के दाने रखें। साथ ही एक लोटे में जल, कटोरी में रोली व चावल रखें।  कथा समाप्त होने पर हाथ के गेहूं को चिड़ियों को डाल दें और लोटे के जल से रात्रि को अघ्र्य दें। शाम को चंद्रोदय होने पर सोने, चांदी या मिट्टी के घी से भरे हुए 11 दीपक जलाएं। इसके बाद घी मिश्रित खीर तैयार कर चंद्रमा की चांदनी में रख दें।  एक प्रहर बीतने के बाद इस खीर को देवी लक्ष्मी को अर्पित करें। ब्राह्मण को इस प्रसाद रूपी खीर का भोजन कराएं और मांगलिक गीत गाकर रात्रि जागरण करें। अगली सुबह स्नान कर लक्ष्मीजी की वह प्रतिमा ब्राह्मण को अर्पित करें। माना जाता है कि पूजा से प्रसन्न होकर लक्ष्मीजी इस लोक में तो समृद्धि देती ही हैं, साथ ही परलोक में भी सद्गति प्रदान करती हैं। 
रास पूर्णिमा का महत्व  नि:संदेह शरद पूर्णिमा का चंद्रमा, चांदनी रात, शीतल पवन और अमृत वर्षा करता आकाश, जिस दिव्य वातावरण की सर्जना करता है, वह अद्वितीय है। यहीं से शरद ऋतु भी प्रारंभ होती हैं। आयुर्वेद में इस रात्रि का विशेष महत्व माना गया है। कहते हैं शरद पूर्णिमा की रात्रि को श्वास रोग की औषधियां रोगी को देने से उसे जल्द ही लाभ मिलता है।  साथ ही यह भी कहा जाता है कि चांद की रोशनी में सुई पिरोने से आंखों की रोशनी बढ़ती है। आज ही के दिन श्रीकृष्ण ने महारास रचा था। यह भी माना जाता है कि वर्ष में केवल शरद पूर्णिमा की रात को ही खिलने वाले ब्रम्हकमल पुष्प देवी लक्ष्मी को चढ़ाने से उनकी विशेष कृपा प्राप्त होती है।

मंगलवार, जून 15, 2010

चार प्रमुख तीर्थ

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सनातन धर्मावलंबियों के लिए देवभूमि उत्तराखंड के चार प्रमुख तीर्थ - गंगोत्री, यमुनोत्री, बद्रीनाथ और केदारनाथ के कपाट खुलने के साथ ही पावन धामों की वार्षिक यात्रा वैशाख मास यानि मई माह में आरंभ होती  है। चार धाम यात्रा के लिए गंगोत्री और यमुनोत्री के कपाट इस वर्ष ग्रीष्म काल के लिए अक्षय तृतीया के पुण्य दिन पर 16 मई को, केदारनाथ के 18 मई तथा बद्रीनाथ के कपाट 19 मई को खुले !  इन चार धामों की यात्रा पहले की तरह दुर्गम नहीं रह गई है। तीर्थयात्री धार्मिक महत्व के अनुसार चार धाम में सबसे पहले यमुनोत्री, गंगोत्री जाते हैं। उसके बाद केदारनाथ और आखिर में बद्रीनाथ की यात्रा का पुण्य लाभ लेते हैं। चार धामों की इस यात्रा में देश-विदेश से लाखों की संख्या में तीर्थयात्री शामिल होते हैं। अब यह यात्रा नौ से दस दिन में ही पूरी हो जाती है। अनेक तीर्थयात्री कुंभ मेले में शामिल होकर चार धाम की यात्रा के लिए कपाट खुलने से पहले ही पहुंच गए।  चार धामों की ऊंचाई लगभग ३ हज़ार  मीटर है। इन चार धामों की यात्रा की शुरुआत प्रमुख रुप से तीर्थ नगरी हरिद्वार से गंगा स्नान के साथ होती है। यहां से चार धामों की यात्रा का दायरा लगभग १५ सौ  किलोमीटर है। सरकारी नियमों के अनुसार चार धाम की यात्रा दस दिन, तीन धाम की यात्रा आठ दिन, दो धाम की यात्रा छ: दिन और एक धाम की यात्रा एक दिन में पूरी हो जाना चाहिए। हालांकि वर्तमान में टिहरी बांध के निर्माण के बाद से यमुनोत्री और गंगोत्री धाम की दूरी लगभग २० से २५ किलोमीटर ज्यादा हुई है। किंतु पूर्व की तुलना में यमुनोत्री तक पहुंचने का सड़क मार्ग अब लगभग १० किलोमीटर कम हो गया है। पहले जहां बस या निजी वाहन हनुमान चट्टी तक ही पहुंच पाते थे, किंतु सड़क निर्माण के बाद यह जानकी चट्टी तक चले जाते हैं। जिससे अब यात्रा में अब लगभग चार या पांच किलोमीटर ही पैदल चलना होता है, जो पूर्व मे लगभग १५ किलोमीटर तक पैदल मार्ग था। इसके कारण चार धाम की यात्रा में भी एक या दो दिन की बचत हो जाती है। गंगोत्री तक भी सड़क मार्ग बना है। केदारनाथ की यात्रा की शुरुआत गौरीकुंड से होती है। यह यात्रा लगभग १५ से २० किलोमीटर की पैदल यात्रा है। बद्रीनाथ धाम की यात्रा तुलनात्मक रुप से सुविधाजनक है। प्रशासनिक स्तर पर चार धाम यात्रा में तीर्थयात्रियों की सुविधा के लिए हर स्तर पर अच्छी  व्यवस्था की जाती है। प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए भी आपातकालीन सुरक्षा इंतजाम किए जाते हैं। यात्रियों को सभी मूलभूत सुविधाएं जैसे आवागमन, वाहन व्यवस्था, रहने, ठहरने, खान-पान, जल, चिकित्सा, नित्यकर्मों के लिए सुलभ स्थानों की पूरी व्यवस्था सरकार और स्थानीय धार्मिक सेवा संस्थाओं की ओर से की जाती है। विशेषकर महिलाओं, बच्चों और बुजूर्गों की सुविधा का विशेष ध्यान रखा जाता है। अधिक मास के कारण इस वर्ष यह तीर्थ यात्रा घटकर पांच माहों की रह गई है। चार धाम यात्रा के लिए हरिद्वार पहुंचने के लिए भारत के सभी प्रमुख शहरों से रेल, सड़क, वायु मार्ग से आवागमन के साधन उपलब्ध है।

सोमवार, मई 17, 2010

भराणा मेला कुमारसेन-2

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आदरणीय समीर जी ने पिछली पोस्ट पर टिप्प्णी में आदेश दिया की  इसमें जानकारी ज्यादा होनी चाहिये अतः जो जानकारी जुटा पाया हूं वो प्रस्तुत कर रहा हूं!
शिमला ज़िला के कुमारसेन में पारंपरिक भराड़ा जागरा क्षेत्र के ईष्ट श्री कोटेश्वर महादेव के आगमन और पूजन से आरम्भ होता है! मूल निवास मंढोली से देवता जी का आगमन प्रातः होता है और लगभग तीन किलोमीटर के रास्ते में स्थानिय लोग अपनी प्राचीन परम्परा के अनुसार पूजन कर देवता जी का स्वागत करते है और देवता जी भराड़ा नामक स्थान पर पंहुचते है!  भराड़ा में देव स्थान पर श्री कोटेश्वर महादेव जी का अभिनंदन किया जाता है! क्शेत्र के लोग देवता जी का दर्शन कर सुख समृद्दी की कामना करते है! इस बार यह मेला दो साल के बाद हुआ क्योंकि देवता जी पिछले वर्ष केदारनाथ की यात्रा पर गये थे! यह एक बेहद प्राचीन मेला है! यह मेला हर वर्ष ज्येष्ठ माह की संक्राति को मनाया जाता है! मेले में बाहर से व्यापारी भी अपने स्टाल लगाते है! स्थानिय प्रशासन ने मेले पर अवकाश घोषित किया था ! इसी मेले के बाद यहां के अन्य मेले हाटू मेला (नारकंडा) ( हिमाचल के पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान में केन्द्रिय इस्पात मंत्री श्री वीरभद्र सिंह हमेशा हाटू मेले में अपनी उपस्थिति देते है! उनकी हाटू देवी पर अगाध श्रधा है!), तानी जुबड़(कोटगढ़), सांचा मेला(बड़ागांव), पाटी जुबड़ मेला आरम्भ होते है! ये सभी मेले धार्मिक आस्था से तो जुड़े है साथ ही दर्शनीय स्थल भी है खास कर तानी जुबड का क्षेत्र ! ये सभी स्थल शिमला से रामपुर बुशेहर के राष्ट्रीय मार्ग 22 पर स्थित है! 

रविवार, मई 16, 2010

भराणा मेला कुमारसेन

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शनिवार, मई 15, 2010

माता वैष्णोदेवी

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पूरे जगत में माता रानी के नाम से जानी जाने वाली माता वैष्णोदेवी का जागृत और पवित्र मंदिर भारत के जम्मू कश्मीर राज्य के उधमपुर जिले में कटरा से १२ किलोमीटर दूर उत्तर पश्चिमी हिमालय के त्रिकूट पर्वत पर स्थित है। यह एक दुर्गम यात्रा है। किंतु आस्था की शक्ति सब कुछ संभव कर देती है। माता के भक्तों की आस्था और विश्वास के कारण ही ऐसा माना जाता है कि माता के बुलावे पर ही कोई भी भक्त दर्शन के लिए वैष्णो देवी के भवन तक पहुंच पाता है। व्यावहारिक दृष्टि से माता वैष्णो देवी ज्ञान, वैभव और बल का सामुहिक रुप है। क्योंकि यहां आदिशक्ति के तीन रुप हैं - पहली महासरस्वती जो ज्ञान की देवी हैं, दूसरी महालक्ष्मी जो धन-वैभव की देवी और तीसरी महाकाली या दुर्गा शक्ति स्वरुपा मानी जाती है। जीवन के धरातल पर भी श्रेष्ठ और सफल बनने और ऊंचाईयों को छूने के लिए विद्या, धन और बल ही जरुरी होता है। जो मेहनत और परिश्रम के द्वारा ही संभव है। माता की इस यात्रा से भी जीवन के सफर में आने वाली कठिनाईयों और संघर्षों का सामना कर पूरे विश्वास के साथ अपने लक्ष्य को प्राप्त करने की प्रेरणा और शक्ति मिलती है।
कथा - पौराणिक मान्यताओं में जगत में धर्म की हानि होने और अधर्म की शक्तियों के बढऩे पर आदिशक्ति के सत, रज और तम तीन रुप महासरस्वती, महालक्ष्मी और महादुर्गा ने अपनी सामूहिक बल से धर्म की रक्षा के लिए एक कन्या प्रकट की। यह कन्या त्रेतायुग में भारत के दक्षिणी समुद्री तट रामेश्वर में पण्डित रत्नाकर की पुत्री के रुप में अवतरित हुई। लगभग ९ वर्ष की होने पर उस कन्या को जब यह मालूम हुआ है भगवान विष्णु ने भी इस भू-लोक में भगवान श्रीराम के रुप में अवतार लिया है। तब वह भगवान श्रीराम को पति मानकर उनको पाने के लिए कठोर तप करने लगी। जब श्रीराम सीता हरण के बाद सीता की खोज करते हुए रामेश्वर पहुंचे। तब समुद्र तट पर ध्यानमग्र कन्या को देखा। उस कन्या ने भगवान श्रीराम से उसे पत्नी के रुप में स्वीकार करने को कहा। भगवान श्रीराम ने उस कन्या से कहा कि उन्होंने इस जन्म में सीता से विवाह कर एक पत्नीव्रत का प्रण लिया है। किंतु कलियुग में मैं कल्कि अवतार लूंगा और तुम्हें अपनी पत्नी रुप में स्वीकार करुंगा। उस समय तक तुम हिमालय स्थित त्रिकूट पर्वत की श्रेणी में जाकर तप करो और भक्तों के कष्ट और दु:खों का नाश कर जगत कल्याण करती रहो।
इसी प्रकार एक अन्य पुरातन कथा के अनुसार -
वर्तमान कटरा के पास हंसाली गांव में मां वैष्णवी के परम अनुयायी श्रीधर रहते थे। वह नि:संतान होने से दु:खी रहते थे। एक बार उसने नवरात्रि पूजा में कन्या पूजन हेतु कन्याओं को बुलाया। उन कन्याओं के साथ माता वैष्णोंदेवी भी आई। पूजन के बाद सभी कन्याएं तो चली गई पर माँ वैष्णोदेवी वहीं रहीं और श्रीधर से कहा कि पूरी बस्ती को भोजन करने का बुलावा दे दो। श्रीधर ने उस कन्या रुपी माँ वैष्णवी की बात मानकर पूरे गांव को भोजन के लिए निमंत्रण देने चला गया। वहां से लौटकर आते समय बाबा भैरवनाथ और उनके शिष्यों को भी भोजन का निमंत्रण दिया। भोजन का निमंत्रण पाकर सभी गांववासी अचंभित थे कि वह कौन सी कन्या है जो सभी को भोजन करवा रही है।
इसके बाद श्रीधर के घर में अनेक गांववासी आकर भोजन के लिए एकत्रित हुए। तब कन्या रुपी माँ वैष्णोदेवी ने सभी को भोजन परोसना शुरु किया। भोजन परोसते हुए जब वह कन्या भैरवनाथ के पास गई। तब उसने कहा कि मैं तो मांस भक्षण और मदिरापान करुंगा। तब कन्या रुपी माँ ने उसे समझाया कि यह ब्राह्मण के यहां का भोजन है, इसमें मांसाहार नहीं किया जाता। किंतु भैरवनाथ ने जान-बुझकर अपनी बात पर अड़ा रहा। तब माँ ने उसके कपट को जान लिया। माँ ने वायु रुप में बदलकर त्रिकूट पर्वत की ओर चली गई। भैरवनाथ भी उनके पीछे गया। माना जाता है कि माँ की रक्षा के लिए पवनपुत्र हनुमान भी थे। इस दौरान माता ने एक गुफा में प्रवेश कर नौ माह तक तपस्या की। भैरवनाथ भी उनके पीछे वहां तक आ गया। तब एक साधु ने भैरवनाथ से कहा कि तू जिसे तू एक कन्या समझ रहा है, वह आदिशक्ति जगदम्बा है। इसलिए उस महाशक्ति का पीछा छोड़ दे।
भैरवनाथ साधु की बात नहीं मानी। तब माता गुफा के दूसरे मार्ग से बाहर निकली। यह गुफा आज भी अद्र्धकुंवारी या गर्भजून के नाम से प्रसिद्ध है। गुफा से बाहर निकल कर कन्या ने देवी का रुप धारण किया। माता ने भैरवनाथ को चेताया और वापस जाने को कहा। फिर भी वह नहीं माना। माता गुफा के भीतर चली गई। तब तक वीर हनुमान ने भैरव से युद्ध किया। भैरव ने फिर भी हार नहीं मानी तब माता वैष्णवी ने महाकाली का रुप लेकर भैरवनाथ का संहार कर दिया। भैरवनाथ का सिर कटकर त्रिकूट पर्वत की भैरव घाटी में गिरा। मृत्यु के पूर्व भैरवनाथ ने माता से क्षमा मांगी। तब माता ने उसे माफ कर वर भी दिया कि मेरा जो भी भक्त मेरे दर्शन के बाद भैरवनाथ के दर्शन करेगा उसके सभी मनोरथ पूर्ण होंगे। तब से आज तक अनगिनत माता के भक्त माता वैष्णोंदेवी के दर्शन करने के लिए आते है।
माता का भवन - माता वैष्णों देवी का पवित्र स्थान माता रानी के भवन के रुप में जाना जाता है। यहां पर ३० मीटर लंबी गुफा के अंत में महासरस्वती, महालक्ष्मी और महादुर्गा की पाषाण पिण्डी हैं। इस गुफा में सदा ठंडा जल प्रवाहित होता रहता है। कालान्तर में सुविधा की दृष्टि से माता के दर्शन हेतु अन्य गुफा भी बनी हैं।
दर्शनीय स्थान -
माता वैष्णोदेवी के दर्शन के पूर्व माता से संबंधित अनेक दर्शनीय स्थान हैं।
चरण पादुका - यह वैष्णों देवी दर्शन के क्रम में पहला स्थान है। जहां माता वैष्णो देवी के चरण चिन्ह एक शिला पर दिखाई देते हैं।
बाणगंगा - भैरवनाथ से दूर भागते हुए माता वैष्णोदेवी ने एक बाण भूमि पर चलाया था। जहां से जल की धारा फूट पड़ी थी। यही स्थान बाणगंगा के नाम से प्रसिद्ध है। वैष्णोदेवी आने वाले श्रद्धालू यहां स्नान कर स्वयं का पवित्र कर आगे बढ़ते हैं।
अद्र्धकुंवारी या गर्भजून - यह माता वैष्णों देवी की यात्रा का बीच का पड़ाव है। यहां पर एक संकरी गुफा है। जिसके लिए मान्यता है कि इसी गुफा में बैठकर माता ने ९ माह तप कर शक्ति प्राप्त की थी। इस गुफा में गुजरने से हर भक्त जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो जाता है।
सांझी छत - यह वैष्णोदेवी दर्शन यात्रा का ऐसा स्थान है, जो ऊंचाई पर स्थित होने से त्रिकूट पर्वत और उसकी घाटियों का नैसर्गिक सौंदर्य दिखाई देता है।
भैरव मंदिर - यह मंदिर माता रानी के भवन से भी लगभग डेढ़ किलोमीटर अधिक ऊंचाई पर स्थित है। ऐसा माना जाता है कि माता द्वारा भैरवनाथ को दिए वरदान के अनुसार यहां के दर्शन किए बिना वैष्णों देवी की यात्रा पूर्ण नहीं मानी जाती है।
वैदिक ग्रंथों में त्रिकूट पर्वत का उल्लेख मिलता है। इसके अलावा महाभारत में भी अर्जुन द्वारा जम्बूक्षेत्र में वास करने वाली माता आदिशक्ति की आराधना का वर्णन है। मान्यता है कि १४वीं सदी में श्रीधर ब्राह्मण ने इस गुफा को खोजा था।
उत्सव-पर्व -
माता वैष्णो देवी में वर्ष भर में अनेक प्रमुख उत्सव पूरी श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाएं जाते हैं।
नवरात्रि - माता वैष्णोदेवी में चैत्र और आश्विन दोनों नवरात्रियों में श्रद्धालुओं का सैलाब उमड़ता है। इस काल में यहां पर यज्ञ, रामायण पाठ, देवी जागरण आयोजित होते हैं।
दीपावली - दीपावली के अवसर पर भी माता का भवन दीपों से जगमगा जाता है। यह उत्सव अक्टूबर - नवम्बर में मनाया जाता है। इसी माह में जम्मू से कुछ दूर भीरी मेले का आयोजन होता है।
माघ मास में श्रीपंचमी के दिन महासरस्वती की पूजा भी बड़ी श्रद्धा और भक्ति से की जाती है।
जनवरी में ही लोहड़ी का पर्व और अप्रैल माह में वैशाखी का पर्व यहां बहुत धूमधाम से मनाया जाता है। जिनमें स्नान, नृत्य और देवी पूजा का आयोजन होता है।
पूजा का समय :-
माता वैष्णो देवी की नियमित पूजा होती है। यहां विशेष पूजा का समय सुबह ४:३० से ६:०० बजे के बीच होती है। इसी प्रकार संध्या पूजा सांय ६:०० बजे से ७:३० बजे तक होती है।
पहुंच के संसाधन -
वायु मार्ग - माता वैष्णोदेवी के दर्शन हेतु सबसे पास हवाई अड्डे जम्मू और श्रीनगर के हैं। रेलमार्ग - रेल मार्ग से वैष्णोदेवी पहुंचने के लिए जम्मूतवी, पठानकोट और अमृतसर प्रमुख रेल्वे स्टेशन है। जहां से कटरा सड़क मार्ग द्वारा पहुंचा जा सकता है। सड़क मार्ग - वैष्णोदेवी के दर्शन हेतु श्रीनगर, जम्मू, अमृतसर से कटरा पहुंचा जा सकता है। जहां से वैष्णोदेवी का भवन १२ किलोमीटर दूर है।
सलाह - इस स्थान पर दिसम्बर से जनवरी के बीच शून्य से नीचे हो जाता है और बर्फबारी भी होती है। इसलिए यात्रा के लिए उचित समय को चूनें।

ध्यान

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मेडिटेशन यानी ध्यान के लिए यूं तो कोई बंधा  नहीं है लेकिन फिर भी श्रेष्ठ परिणाम के लिए समय तय किया जाए तो बेहतर होता है। ध्यान के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है शांति और एकाग्रता। ये दोनों जब सुलभ हों, वह समय ध्यान के लिए सबसे अच्छा होता है। योगी के लिए समय का कोई बंधन नहीं है किंतु नए साधक (अभ्यासकर्ता) के लिए समय की मर्यादा तय की गई है। यह अभ्यास को मजबूत करने के लिए है। निश्चित समय पर ध्यान का अभ्यास करने से न सिर्फ संकल्प शक्ति दृढ़ होती है बल्कि सफलता भी आसान होती है। 
ध्यान के लिए प्रात:, मध्याह्न्, सायं और मध्यरात्रि का समय उचित बताया गया है। इन्हें संधिकाल कहते हैं। संधिकाल यानी जब दो प्रहर मिलते हैं। जैसे प्रात:काल में रात्रि और सूर्योदय, मध्याह्न् में सुबह और दोपहर मिलती है। सबसे उत्तम समय ब्रह्म  मुहूर्त (सूर्योदय से पहले का समय) का है। मान्यता है इस समय ध्यान करने से विशेष लाभ मिलता है। कारण कि रात में नींद पूरी होने से हमारे मन के विकार भी शांत हो चुके होते हैं। नींद से जागते ही ध्यान में बैठने से एकाग्रता बनती है

बुधवार, मार्च 31, 2010

बड़ु साहिब

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हिमाचल प्रदेश के सिरमौर ज़िला में राजगढ़ से 29  किलोमीटर दूर बड़ु साहिब: तपोभूमि, संतो की स्थली और शिक्षा के विस्तार की स्थली बन गई है! यहां जाने का मौका  मुझे 1995 में मिला उस समय किसी काम से राजगढ़ गया तो बड़ु साहिब जाने का अवसर मिला! बड़ु साहिब पर मेरा पहला लेख चण्डीगढ़ से प्रकाशित होने वले अखवार दैनिक ट्रिब्यून हिंदी में 24  जुलाई 1995  को छ्पा था!  तब से लेकर अब तक यहां अभूतपूर्व विकास हुआ है! 
बड़ु साहिब के तपोभूमि बनने की भविष्यवाणी लगभग 90 साल पहले ही हो गई थी ।  इस स्थली में संतो के चमत्कार भी इतिहास में दर्ज है । बडू साहिब का गुरूद्वारा, गुरू की स्तुति के लिए पूर्ण हो चुका है । जिसकी बाहरी सजावट देखते ही बनती है! बड़ु साहिब के प्रमुख कार्यक्रताओं से जानकारी लेते समय जान्कारी मिली की सजावट पर 30 करोड रूप्ये खर्च होने का अनुमान था लेकिन  इस राशि को शिक्षा के विस्तार पर खर्च करने का फैसला किया है ।
 यहाँ  पहले कच्चा गुरूद्वारा  पक्का सिक्ख हुआ करता था । 1986 में कलगीधर ट्रस्ट के अंतगर्त 5 स्कूल थे जिनकी संख्या अब बढकर 70 तक पहुंच गई है । इस ट्रस्ट की उतर भारत में 2012 तक 200 स्कूल खोलने की योजना है जिनकी संख्या 2020 तक 500 तक  बढाई जायेगी! बड़ु सहिब में 1960 से ही लंगर का आयोजन किया गया जा रहा है! 
 मान्यता है की  संत अतर सिंह ने अपने अनुयायियों को 18वीं सदी के अंत में इस स्थली को ढूंढने की बात कही थी । वर्तमान स्थली कभी जोगेन्द्र सिंह की मलकियत होती थी जिसे जोगेन्द्र सिहं ने संतो को सौंप दिया था । 1906 में सन्तो ने इस बात की भविष्यवाणी कर दी थी कि इस स्थली पर शिक्षा का अभूतपूर्व विकास होगा । इस स्थली को गौतम ऋषि, गुरू गोविद सिंह व गुरू नानक देव का आर्शीवाद भी प्राप्त है ।
 बड़ु साहिब में आध्यात्मिक तरीके से इस स्थान पर नशा मुक्ति केन्द्र भी संचालित किया जा रहा है । अढाई सौ बिस्तरों के अस्पताल में मरीजों का उपचार मुफ्त किया जा रहा है । हर साल 4 निःशुल्क कैम्पों के आयोजन के लिए डेढ करोड रूप्ये की राशि खर्च की जाती है ।  बडू साहिब में निर्मित गुरूद्वारें में 10 हजार श्रद्धालुओं के एक साथ बैठने की व्यवस्था है । साथ ही इस स्थान पर  युनिवर्सिटी की स्थापना भी की जा रही है ।
 बड़ु साहिब का वर्तमान स्वरुप हर किसी को आश्चर्य चकित कर देता है कि जंगल के बीच सन्तो के आर्शीवाद से यह धर्मस्थल बन पाया जो आज आस्था का केन्द्र बन गया है! सतनाम वाहेगुरु का पवित्र उदघोष आत्मिक शांति प्रदान करता है! शहरों की भागदोड़ से दूर यह सथल पुनः आने का आमंत्रण स्वतः ही देता है!

शुक्रवार, फ़रवरी 19, 2010

ठोडा

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ठोडा हिमाचल  प्रदेश के कुछ जिलों में विशेष अवसरों पर खेला जाने वाला संगीतमय खेल है ! तीर कमान के प्रदर्शन के  इस खेल को महाभारत काल से जोड़ कर भी देखा जाता है ! माना जाता है की ठौड़ा की उत्पति महाभारत काल में हुई थी! इसे पांडवों और कोरवों के मध्य हुए युद्ध के रूप में देखा जाता है ! ठौड़ा दल में दो दल होते है जिन्हें पाषंड   और शाठंड  कहा जाता है ! पाषंड को पांडव और शाठंड को कोंरव का रूप माना जाता है! प्रदेश के गाँव में होने वाले मेलों में ठौड़ा दलों को प्रदर्शन के लिए बुलाया जाता है ! दल एक विशेष प्रकार की सफ़ेद पोशाक पहनता है ! हिमाचल प्रदेश के उपरी इलाको ठियोग और चोपाल क्षेत्रो तथा सिरमौर के राजगड क्षेत्र में मेलों के अवसर पर ठौड़ा खेल का आयोजन किया जाता है ! ठौड़ा को ये दल अपने स्तर पर ही जिन्दा रखे हुए है जो सराहनीय है !
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शुक्रवार, दिसंबर 18, 2009

महात्मा बुध

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बोध साहित्य के  अनुसार बुध दरअसल बोधिसत्व  नाम की आत्मा है , जिन्होंने सम्यक  ज्ञान प्राप्त करने के लिए डेड सौ साल ज्यादा बार अलग अलग रूपों में जन्म लिया ! इनमें 28  बार बोधिसत्व को ज्ञान मिला ! सर्वश्रेष्ठ ज्ञान 28  वीं बार में सिद्धार्थ गौतम को मिला इसलिए इनेह सम्मास्सम बुध यानि सर्वश्रेष्ठ भी कहा जाता है ! शाक्य वंश में होने के कारण इन्हें शाक्य बुध भी कहते है !
जैसे हिन्दू धर्म में कल्कि अवतार की धरना है यानि कलियुग में विष्णु का एक और अवतार होगा उसी तरह बोधसत्व एक बार फिर अवतार लेंगे ऐसा बोध धर्म में माना जाता है ! बोधसत्व अगली बार मैत्रेय   बोधिसत्व के रूप में आएंगे और मैत्रेय बुध बनकर भटकते हुए विश्व को एक बार फिर ज्ञान का प्रकाश देंगे !

गुरुवार, अक्तूबर 15, 2009

सेवा

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 एक बार भगवन श्रीकृषण और युधिष्टर  धर्म चर्चा कर रहे थे !  श्रीकृषण ने मानव के कर्तव्यों पर प्रकाश डालते हुए कहा की हर मानव, देवता  अतिथि  प्रिय   जनों तथा पितरों का ऋणी होता है !   इसलिए मानव का कर्त्तव्य है की वह अपने जीवन में ही इनका ऋण ज़रूर चुकाने का प्रयास करें ! श्रीकृषण ने बताया की वेद शास्त्रों के स्वाध्याय द्वारा ऋषिओं के ऋण ,यज्ञ कर्म द्वारा देवताओं के ऋण, श्राद्ध से पितरों के ऋण तथा स्वागत से अतिथियों के ऋण से छुटकारा पाया जा सकता है  और उपयुक्त पालन पोषण से प्रिय जनों के ऋण से मुक्ति मिलती है ! 
अतिथि सेवा को सर्वोपरि महत्त्व देते हुए उन्होंने बताया  गृहस्थ पुरुष कभी भी अतिथि का अनादर न करे ! अतिथि घर पर आये  तो उसका यथाशक्ति आदर करे !  भोजन के समय   यदि चंडाल भी आ जाये तो गृहस्थ  को अन्न द्वारा उसका सत्कार करना चाहिए ! जो व्यक्ति किसी भिक्षु या अतिथि के भय से अपने घर का दरवाजा बंद कर  भोजन करता है वह अपने लिए स्वर्ग के दरवाजे  बंद कर देता है !  जिस गृहस्थ के दरवाजे से कोई अतिथि निराश लोट जाता है वह उस गृहस्थ को अपना पाप दे उसका पुण्य ले कर चला जाता है ! जो ऋषि विद्वानों ,अतिथिओं और निराश्रय मानव को अन्न से तृप्त करता है उसकों महान पुण्य की प्राप्ति होती है ! अतिथि सेवा का महत्त्व सुन कर युधिष्टर गदगद हो गए !


बुधवार, अक्तूबर 07, 2009

करवा चौथ

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आज करवा चौथ है पत्नियों का एक महत्वपूरण त्यौहार  ! इन्ही त्योहारों के माध्यम से भारतीय उच्च परम्परा का परिचय मिलता है ! सभी को मुबारक 

बुधवार, सितंबर 16, 2009

पावन सत्संग

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परमात्मा मिलना उतना कठिन नहीं है जितना की पावन सत्संग का मिलना ! यदी सत्संग के द्वारा परमात्मा की महिमा का पत्ता न हो तो संभव है की परमात्मा मिल जाये फिर भी उसकी  पहचान न  हो , उनके वास्तविक आनंद से वंचित रह जाओ ! सच पूछो तो परमात्मा मिला हुआ हुआ ही है ! उससे बिछुड़ना असंभव है ! फिर भी पावन सर्संग के आभाव में उस मिले हुए मालिक को दूर समझ लेते है !

शुक्रवार, जुलाई 31, 2009

चम्बा का मिन्ज़र मेला

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हिमाचल प्रदेश जहाँ देवी देवताओं की भूमि है वहीँ पर हिमाचल को मेलों और त्योहारों की भूमि भी कहा जाता है ! आज कल हिमाचल के चम्बा में मिन्ज़र मेला चला हुआ है ! चम्बा का मिन्ज़र मेला बेहद प्राचीन तथा संस्कृति और भातृत्व का परिचायक है ! यह मेला मक्की की फसल से जुडा हुआ है ! मक्की की फसल बाली जिसे मिन्ज़र कहा जाता है के निकलने पर मेला शुरू होता है ! इस मेले की शुरुआत दसवीं शताब्दी पूर्व हुई ! कहानी है की रावी नदी के दाईं तरफ चम्पबती मंदिर का पुजारी हरिराय मंदिर की सैर को रोज नदी में तैर कर जाता था ! एक बार लोगो ने राजा से निवेदन किया की ऐसी व्यवस्था की जाए की लोग भी आसानी से हरिराय मंदिर जा सके ! इसके लिए पुजारी ने रजा की आज्ञा से बनारस के ब्राहमणों के सहयोग से चम्पावती मंदिर में सात दिन का यज्ञ किया और नदी ने अपना रुख ही इसके बाद बदल दिया ! पुजारी ने सात रंगों की डोरी बने जिसका नाम मिन्ज़र रखा गया ! एक दूसरी कहानी के अनुसार राजा साहिल वर्मन पडोसी राज्य पर विजय हासिल कर वापस अपने राज्य लोटे तो नाल्होरा स्थान पर जनता ने मक्की की मिन्ज़रों को भेंट कर इनका स्वागत किया !
चम्बा का मिन्ज़र मेला श्रावन माह के दुसरे रविवार से एक सप्ताह तक चौगान में मनाया जाता है ! इस दोरान लक्ष्मीनारायण मंदिर में पूजा की जाती है ! कुंजडी मल्हार गायन होता है ! मिन्ज़र का विसर्जन शोभायात्रा के साथ होता है ! यह शोभायात्रा चम्बा के राजा के महल अखंड चंडी महल से शुरू होती है ! भगवन रघुवीर और अन्य देवी देवता पालकी में बेठ कर महल से बहार आ कर यात्रा में शामिल होते है ! रावी नदी में मिन्ज़र का विसर्जन किया जाता है ! मेला प्राचीन संस्कृति वैभव धार्मिक प्रेम भावः का परिचायक है ! अपने रिश्तेदारों मित्रों को फल मिठाई भेट की जाती है तथा अच्छी फसल की कमाना भी जाती है ! इन्ही उत्सवों के कारण हिमाचल प्रदेश देवी देवताओं और उत्सवों की भूमि कहलाती है !

बुधवार, जुलाई 22, 2009

अंधश्रद्धा

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राजा वसुसेन को ज्योतिष पर अंधश्रद्धा थी और वे अपने ज्योतिषी से मुहूर्त जाने बिना कोई काम नहीं करते थे। जब यह बात राजा के शत्रुओं तक जा पहुंची तो वे ऐसे वक्त हमले की योजना बनाने लगे, जिसमें प्रतिकार का मुहूर्त न बने। एक बार राजा देशाटन पर निकले। साथ में हमेशा की तरह राज ज्योतिषी भी थे। मार्ग में एक किसान मिला जो हल-बैल लेकर खेत जोतने जा रहा था। राज ज्योतिषी ने उसे रोककर कहा - मूर्ख! जानता नहीं, आज उस दिशा में दिशाशूल है और तू उसी ओर चला जा रहा है। ऐसा करने से तुझे भयंकर हानि उठानी पड़ेगी। यह सुनकर किसान बोला - मैं तो प्रतिदिन इसी दिशा में जाता हूं। उसमें दिशाशूल वाले दिन भी होते होंगे। यदि आपकी बात सच होती तो मेरा अब तक सर्वनाश हो चुका होता। राज ज्योतिषी सकपकाकर बोले - तेरी कोई हस्तरेखा प्रबल होगी। दिखा अपना हाथ। किसान ने हाथ तो बढ़ाया किंतु हथेली नीचे की ओर रखी। राज ज्योतिषी चिढ़कर बोले - हस्तरेखा दिखाने के लिए हथेली ऊपर की ओर रखी जाती है। किसान ने कहा - हथेली वह फैलाए, जिसे कुछ मांगना हो। मैं जिन हाथों की कमाई से अपना गुजारा करता हूं, उन्हें क्यों किसी के आगे फैलाऊं? मुहूर्त वह देखे जो कर्महीन व निठल्ला हो। यहां तो 365 दिन ही पवित्र हैं। किसान का उत्तर सुनकर राजा की आंखें खुल गईं और उन्होंने भी परिस्थिति के अनुसार काम करना शुरू कर दिया। वस्तुत: कर्म भाग्य से अधिक फलदायक होता है। जो कर्म करेगा, वह फल भी पाएगा। अकर्मण्यता से कुछ हासिल नहीं होता।

बुधवार, जुलाई 15, 2009

अटूट रिश्ते

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रिश्ते स्वर्ग से बनकर आते हैं। लाहौल स्पीति के उदयुपर उपमंडल में हिंदू और बौद्ध धर्म की आस्था की संगमस्थली त्रिलोकनाथ गांव में भगवान त्रिलोकनाथ की जन्मस्थली सातधारा में आज भी रिश्ते की यह डोर बलवती होती जा रही है। 3 साल में यहां एक बार देवता की विहार यात्रा होती है और यह यात्रा रविवार देर रात को संपन्न हुई। इस शोभा यात्रा में देवता त्रिलोकनाथ के प्रतीक को सफेद कपड़े में लपेटकर सफेद घोड़े के ऊपर रखकर लाया जाता है। यह दूरी करीब 15 किलोमीटर की होती है। इसमें हजारों की संख्या में श्रद्धालु शिरकत करते हैं। सातधारा के पवित्र स्थल पर पहुंचने पर त्रिलोकनाथ की पूजा-अर्चना करने पर सातधारा की पवित्र झील में शुद्धिकरण करते हैं। इस मौके पर श्रद्धालु भी पवित्र पानी में सराबोर हो जाते हैं। उसके बाद उस रस्म को निभाया जाता है जिसका श्रद्धालुओं को इंतजार होता है। वहां पर हर व्यक्ति अपनी निशानी रखता है और उस पर अपनी पहचान के लिए चिन्ह लगा देता है। पुजारी में देवता का समावेश होने के कारण वह उन निशानियों को जोड़ियों में निकालता है। जो जोड़ी निकलती है उनका आपस में भाई-भाई व भाई-बहन का रिश्ता होता है। श्रद्धालु भी उस अटूट रिश्ते को देवता का आशीर्वाद मानकर इसे सहर्ष स्वीकार करते हैं। यहां का ऐसा भी इतिहास रहा है एक बार पति-पत्नीभी इस धार्मिक उत्सव की रस्म में पति-पत्नी से भाई-बहन बन चुके हैं। आज भी यह दोनों इस रस्म को पूरी शिद्दत से निभा रहे हैं। देवता कारदार का कहना है कि इस तरह के रिश्तों में अभी तक कड़वाहट नहीं आई है। उसे श्रद्धालु देवते का आशीर्वाद मानकर सगे रिश्ते की तरह निभाते आ रहे हैं।

मंगलवार, जून 30, 2009

माता का उपदेश

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सम्राट अशोक को चक्रवर्ती सम्राटों में गिने जाने की धुन सवार थी! अनेक राज्यों को जीतते हुए अशोक ने कलिंग पर आक्रमण किया ! रणभूमि में पड़े असंख्य रक्तरंजित शवों को देख कर अशोक का हृदय द्रवित हो गया ! अशोक ने शस्त्र फेंक दिए और युद्घ रोककर सेना सहित वापिस लौट आया! सम्राट अशोक की माँ धार्मिक विचारों और दया की मूर्ति थी ! वह समय समय पर अशोक को सत्य अंहिसा तथा दया की शिक्षा देती थी! परन्तु महत्वांकाक्षी अशोक विजय अभियान पर निकल पड़ा ! कलिंग के युद्घ मैदान में शास्त्र फेकने के बाद अशोक को अपनी माँ की शिक्षा याद आई ! अशोक महल में अपनी माता के कक्ष में पहुंचे और माँ को रोते हुए बताया
की रणक्षेत्र में क्षत विक्षत शवों को देख कर उनका मन हाहाकार कर उठा और वे लोट आये !
माँ ने कहा पुत्र मैंने बचपन में ही तुझे धरम के प्रमुख तत्व और दया भावना ग्रहण करने की शिक्षा दी थी ! शक्ति के अहंकार ने तुझे युद्घ की तरफ चला गया ! यह सोच यदि तू हिंसा के विनाशकारी रास्ते पर न चलता तो अंसख्य महिलाएं न विधवा होती और न ही पुत्रविहीन ! अब अहिंसा के प्रचार में जीवन लगा कर ही इस घोर अधर्म तथा पाप से मुक्ति संभव है !
आगे चल कर अशोक ने भगवन बुध के रस्ते को अपना लिया और अपना जीवन धरम और अंहिंसा के प्रचार में लगा दिया !

रविवार, जून 28, 2009

डाकू का हृदय परिवर्तन

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परम विरक्त उड़िया बाबा के दर्शन और सत्संग के लिए प्रतिदिन असंख्य श्रद्धालुजन आया करते थे ! वे प्रत्येक व्यक्ति को अपने दुर्व्यसनों को त्यागकर सात्विक जीवन जीने की प्रेरणा दिया करते थे ! उनका कहना था की जब तक दुर्गण हम पर हावी रहेंगे तब तक न भगवन की कृपा प्राप्त होगी और न ही सुख शांति की अनुभूति होगी !
एक बार बाबा उतर प्रदेश में करणवास गंगा तट पर एक झोपडी में ठहरे हुए थे ! उस क्षेत्र में एक कुख्यात डाकू का आतंक था ! उसने उड़िया बाबा की ख्याति सुन राखी थी उसे पता चला तो उसने पेड़ के सहारे बन्दूक टिकाई तथा झोपडी में जा पहुंचा ! बाबा को उसने अपना परिचय देते हुए बोला, मैं डाका डालने जा रहा हूँ ! यह मेरा पुराना पेशा है , कल्याण का कोई उपाय बताओ बाबा !
बाबा ने कहा एक बात मन लो कभी किसी स्त्री का अपमान या उत्पीडन न करना ! तमाम स्त्रियों में अपनी माँ के दर्शन करना ! डाकू ने कहा , बाबा एसा ही होगा !
एक बार डाकू सरदार साथियों के साथ एक जमीदार के घर डाका डालने जा पहुंचा ! डाका दल कर वह लोटने लगा तो उसने देखा की उसके दो साथी एक लड़की को उठा कर पीछे पीछे आ रहे है और लड़की बचाने की गुहार लगा रही है ! सरदार ने गुसे में कहा किसी भी स्त्री को हाथ लगाया तो गोली मार दूंगा ! उसने ससम्मान लड़की को वापिस भिजवाया ! उस रात वह सो नही पाया ! बाबा के उपदेश यद् आते ही उसने संकल्प लिया की भविष्य में किसी को नहीं लूटूंगा ! उसका हृदय परिवर्तन हो गया बाबा का भक्त बन गया !
 
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