वैसे मैं इन बातों पर विश्वास नहीं करता। लेकिन पिछले वर्ष से अस्वस्थ होने के कारण दवा और दुआ का दौर निरंतर चलता रहा है । गत वर्ष 14 अप्रैल 2014 को गंभीर रूप से अस्वस्थ हुआ था दुसरे शब्दों में कहूँ तो मैंने मौत का साक्षात्कार किया । मेरे विद्यालय के सहयोगियों ने समय रहते मुझे स्थानीय अस्पताल पहुंचा कर चिकित्सा सहायता प्रदान की जिससे मैं स्वस्थ हो पाया।
इस एक वर्ष में दवा और दुआ सफर साथ साथ रहा । ग्रहों की दशा और दिशा जानने का प्रयास भी किया गया किसी ने कहा की किसी ओझा से भी बातचीत जरुर करें । बातचीत की गई तो बताया गया की आप पर नारसिंह लगाया गया है । किसने लगाया है इसका मात्र संकेत दिया गया की कोई औरत है जो आपको समाप्त करना चाहती है ।अब मैं उस औरत को कहाँ खोजु और पुछू की बता मेरी खता क्या है है?
इस पोस्ट को लिखने का उद्वेश्य मात्र आपका मन्तव्य जानना है की इस पर विश्वास किया जाए या नहीं । मैं तो मात्र इतना समझता हूँ की देवी देवता किसी का अहित नहीं करते तो मेरा भी नहीं करेगें ।
अब आप ही बताएं ......
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शनिवार, जुलाई 25, 2015
नारसिंह
बुधवार, जुलाई 01, 2015
ईश्वर
धीरे धीरे ईश्वर से भी विश्वास उठने लगा है। आस पास इतनी घटनाएं घट रही और लगने लगा है की ईश्वर साधारण मानवों की तो बहुत परीक्षा लेता है
बुधवार, दिसंबर 03, 2014
मानव कल्याण हेतू यात्रा कर रहे है लामा जी
लामा
जी का नाम राम गोविन्द जी है यह किन्नौर जिला के पुह निवासी है अच्छे पढ़ेलिखे है अच्छे परिवार से सम्बध रखते है कई
वर्षो से तपस्या में बैठने के पश्चात भ्रमण पर निकले है इनके साथ 50-60 लोगो का काफिला चल रहा है जगह जगह भण्डारो का आयोजन
किया जा रहा है अपने निस्वार्थ भाव से लामा जी भक्तो को शुभाशीष दे रहे है ! लोगो में लामा जी के प्रति काफी श्रद्धा देखने को मिल
रही है भक्तजन
भारी सख्या में दर्शन कर रहे है। उनकी
यात्रा का किन्नौर से आरम्भ हुई है । लामा जी चहेरे पर मुस्कान लिए सबके दुखो का
निवारण कर रहे यही
बौद्ध धर्म की शिक्षा है सब कुछ होते हुए । मानव कल्याण हेतु वैराग्य जीवन व्यतीत कर रहे है! लामा राम गोविन्द जी के मानव कल्याण यात्रा की कुछ तस्वीरे
छायाचित्र और विवरण साभार सौरभ शर्मा
रविवार, नवंबर 03, 2013
पत्थर बरसाने का मेला
21वीं सदी के इस दौर में शिमला के समीप एक ऐसा गांव है, जहां पर अभी भी पुरानी परंपरा पूरे रस्मों रिवाज के साथ निभाई जाती है। शिमला शहर से 35 किलोमीटर दूर धामी में पत्थरों के खेल का मेला होता है। दिवाली से एक दिन बाद इस मेले का आयोजन किया जाता है। दो गांव के लोगों के बीच तब तक पत्थर बरसाए जाते हैं, जब तक किसी के शरीर से खून नहीं निकल जाता। शरीर से खून निकलने के बाद राज परिवार के लोग इस खूनी खेल के खत्म होने की घोषणा करते हैं। भद्रकाली के मंदिर में खून का टीका करते हैं। एक-दूसरे पर पत्थर बरसा कर जान लेने पर उतारू लोग दो ही पल में गले मिलकर नाटी डालते हैं। खून का टीका होने के बाद दोनों गुटों के लोग आपस में गले मिलते हैं। लोगों के लिए भले ही यह मेला मनोरंजन का केंद्र रहता हो, लेकिन क्षेत्र के लोगों की आस्था मेले के इस खेल से जुड़ी हुई है। दिवाली से ठीक एक दिन बाद धामी स्थित खेल का चौरा नामक स्थान पर इस मेले का आयोजन किया जाता है। धामी क्षेत्र के दो गांव जमोगी व कटेड़ू की टोलियां मैदान के दोनों तरफ गुटों में बंट जाती हैं। मैदान के बीच में सती का शारड़ा है इसके दोनों तरफ गांव के यह लोग खड़े रहते हैं। दोनों टोलियों की तरफ से तब तक पत्थर बरसाए जाते हैं, जब तक किसी के शरीर से खून निकलना बंद नहीं हो जाता। पत्थर से घायल हुए व्यक्ति के खून से भद्रकाली के मंदिर में टीका किया जाता है। आधुनिकता के इस दौर में लोगों में यह परंपरा खत्म होने के बजाय बढ़ रही है। दिवालीसे ठीक 11 दिन बाद कालीहट्टी नामक स्थान पर भी इसी तरह के मेले का आयोजन किया जाता है। यह जगह शिमला से 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। वहां पर भी कालीमाता का मंदिर है। दो गांव के लोग वहां पर भी आस्था के नाम पर एक-दूसरे पर पत्थर बरसाते हैं।
साभार दिव्य हिमाचल
बुधवार, सितंबर 11, 2013
मेला चार साला कुमारसैन
मेला चार साला कुमारसैन क्षेत्र में बडी हर्षोउल्लास के साथ मनाया जाता है । इस मेले के इतिहास के बारे में बडी विडम्बनाएं है । माना जाता है कि 11वी शताब्दी में जब पूरातत्व विभाग द्वारा कुमारसैन क्षेत्र की खुदाई की गई तो जगह-जगह मिटटी के बतर्नो के अवशेष प्राप्त हुए । प्राचीन काल में जाति के अधार पर कार्य को बांटा गया था जिसके अनुसार मिटटी के बर्तन तैयार करने वाले लोग कुम्हार जाति से सम्बंधित थे । और इसी अधार पर इस क्षेत्र में कुम्हार लोगों का वास था । इस जगह को कुमाहलड़ा भी कहा जाता था । परिणामत: इस क्षेत्र का नाम कुमारसैन पड़ा । कुमारसैन के राजा बिहार गया से गजनबी के आतंक से भाग कर आए थे । वह कुछ समय कोढगड नामक स्थान पर रहे । एक बार राजा शिकार करते-करते कुमारसैन आए । उन्होनें यहां एक घटना देखी। उन्होनें देखा कि एक चूहे ने नेवले को निगल लिया । ऐसा देख राजा अचंभित था उसने अपने सलाहकार ब्राहमण से इसके बारे में पूछा और कहा इस घटना का क्या कारण है । ब्राहमण ने कहा यह वीर माटी के संकेत है । यह हम जैसे ब्रामणों के लिए नही बल्कि आप जैसे राज पुरूष् के लिए बहुत शूभ भूमी है । इसके पश्चात राजा ने याहां महल व राजगददी भवन बनाने का निर्णय लिया । इससे पूर्व यहां का राजपाठ स्वयं देवता श्री कोटेश्वर महादेव सम्भालते थे । इस क्षेत्र में महादेव की आज्ञानुसार सारे कार्य किए जाते थे । उसी रोज महादेव ने राजा को सपने मे दर्शन दिए और कहा कि मै तुमसे प्रसन्न हूं तथा वरदान मांगने को कहा , यह सुनकर राजा ने महल बनाने की इच्छा जाहिर की । महादेव बोले तुम यहां महल बना सकते हो पर सर्वप्रथम मेरा मन्दिर तुम्हे स्थापित करना होगा । इतने मे ही राजा का स्वप्न टूट गया । इसके पश्चात राजा श्री कोटेश्वर महादेव के मन्दिर में महादेव की आज्ञा लेने गए । महादेव ने सपने को दौहराया और कहा हर चार साल के बाद में कुमारसैन वासियों को दर्शन देने बाहर निकलूंगा और समय-समय से मेरी पूजा अर्चना करनी होगी । यदि तुम इन बातों पर अम्ल करोगें तो मेरा आर्शिवाद हमेशा तुम पर बना रहेगा । इस बात को सुनकर राजा प्रसन्न हुआ और उसने महादेव की इच्छानुसार सारे कार्य किए । और महल के अन्दर श्रीकोट मन्दिर का निर्माण किया तथा महादेव को छड के रूप में प्रतिष्ठीत किया गया व इसकी पूजा राजपुरोहित द्वारा की जाने लगी । आज भी राजपुरोहित द्वारा पुजे जाने की परम्परा विद्यमान है । इसके पश्चात हर चार साल के बाद मेले का आयोजन दरबार मैदान में किया गया । इसी परम्परा पर अधारित आज भी यह मेला मनाया जा रहा है । जो हर चार साल में सितम्बर माह में मनाया जाता है । जिसमें राजवंश के लोगों का समिलित होना आवश्यक होता है । तभी
महादेव श्रीकोट मन्दिर के प्रांगण से प्रथम बार बाहर आते है । यह मेला 7/8 दिनों में चलता है और हर एक दिन अपने आप में अनूठी भूमिका अदा करता है । हर एक दिन एक दूसरे को कडी के रूप में जोडे रखता है । लोगों की देवी परम्परा के प्रति आस्था इस मेले मे देखते ही बनती है । लोग बडी दूर-दूर से आकर इसमे भाग लेना अपना सौभाग्य मानते है ।
इस बारे इतिहास काफी वर्षो पूर्व श्री अमृत शर्मा ने अपनी पुस्तक में समाहित किया हैमहादेव श्रीकोट मन्दिर के प्रांगण से प्रथम बार बाहर आते है । यह मेला 7/8 दिनों में चलता है और हर एक दिन अपने आप में अनूठी भूमिका अदा करता है । हर एक दिन एक दूसरे को कडी के रूप में जोडे रखता है । लोगों की देवी परम्परा के प्रति आस्था इस मेले मे देखते ही बनती है । लोग बडी दूर-दूर से आकर इसमे भाग लेना अपना सौभाग्य मानते है ।
गुरुवार, जुलाई 04, 2013
श्रीखंड यात्रा 16 जुलाई को सिंहगाड़ (निरमंड) से
जुलाई माह संक्रांति से ऐतिहासिक श्रीखंड महादेव कैलाश यात्रा शुरू हो जाएगी। इसके लिए कमेटी तथा प्रशासन ने तैयारियां शुरू कर दी हैं। 11 दिन चलने वाली इस पवित्र यात्रा का पहला जत्था 16 जुलाई को सिंहगाड़ (निरमंड) से रवाना होगा। पहले जत्थे में प्रदेश सहित छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, पंजाब, गुजरात, कर्नाटक, मध्यप्रदेश और केरल सहित कई राज्यों के एक हजार भक्त शिरकत करेंगे। जत्था सिंहगाड़ से सुबह पौ फटने पर कन्या पूजन करने के बाद आगे बढ़ेगा। संक्रांति 14 जुलाई को है श्रीखंड सेवा दल प्रबंधन कमेटी के अध्यक्ष गोविंद प्रसाद शर्मा ने बताया कि कमेटी की ओर से यात्रा के लिए सभी इंतजाम पूरे कर लिए हैं। 25 किमी की सीधी चढ़ाई वाली श्रीखंड कैलाश महादेव तक पहुंचने के लिए कमेटी ने तीन पड़ाव रखे हैं। इसमें सिंहगाड़ से थाचडू 9 किमी, थाचडू से भीमड़वार 9 किमी तथा भीमड़वार से श्रीखंड कैलाश 7 किमी की दूरी है। तीनों स्थलों पर कमेटी की ओर से ठहरने और रहने के पुख्ता प्रबंध किए;गए हैं। यहां दवाइयां आदि भी उपलब्ध रहेंगी। उन्होंने कहा कि प्रकृति ने इस 25 किमी के दायरे में दिल खोलकर सुंदरता लुटाई है। यात्रा के दौरान भक्त प्राकृतिक शिव गुफा, देवढांक, परशुराम मंदिर, गौरा मंदिर, सिंहगाड़, भीमद्वार, फूलों की घाटी, पार्वती बाग, नैन सरोवर और महाभारत कालिंग, विशाल शिलालेक श्रद्धालुओं को दर्शन करने के लिए मिलेंगे। इसके उपरांत अंत में 18000 फुट ऊंचे पर्वत पर विराजमान भोले नाथ के श्री खंड कैलाश के दर्शन होंगे। प्रबंधन कमेटी के अध्यक्ष गोविंद प्रसाद शर्मा ने बताया कि यात्रा की पवित्रता को ध्यान में रखते हुए नशीले पदार्थों, चमड़े के जूते और प्लास्टिक का सामान ले जाना यहां पूर्ण रूप से प्रतिबंधित है। यात्रियों की सुविधा के लिए श्रीखंड सेवा समिति की ओर से रोजाना भंडारे का आयोजन होगा। उन्होंने बताया कि यहां स्वयं भगवान शिव ने प्रार्थना की थी। श्रीखंड में ही भगवान शंकर ने भस्मासुर का वध किया था।
रविवार, मार्च 17, 2013
हाटकोटी मंदिर
हिमाचल प्रदेश विधान सभा चुनाव 2012 में चुनाव डयूटी के लिए जुब्बल
श्रेत्र में डयूटी लगाई गई तो हाटकोटी मन्दिर जाने का मोह छोड़ नहीं पाया । शिमला जिला की जुब्बल तहसील में हाटकोटी दुर्गा मंदिर
स्थित है।लगभग 1370 मीटर की उंचाई पर बसा पब्बर नदी के किनारे हाटकोटी में महिषासुर र्मदिनी का पुरातन मंदिर हे। जिसमें वास्तुकला, शिल्पकला के उत्कृष्ठ नमूनों के साक्षात दर्शन होते हैं। कहते हैं कि यह मंदिर 10वीं शताब्दी के आस-पास बना है। इसमें महिषासुर र्मदिनी की दो मीटर ऊंची कांस्य की प्रतिमा है तोरण सहित है। इसके साथ ही शिव मंदिर है जहां पत्थर पर बना प्राचीन शिवलिंग है। द्वार को कलात्मक पत्थरों से सुसज्जित किया गया है। छत लकड़ी से र्निमित है, जिस पर देवी देवताओं की अनुकृतियों बनाई गई हैं। मंदिर के गर्भगृह में लक्ष्मी, विष्णु, दुर्गा, गणेश आदि की प्रतिमाएं हैं। इसके अतिरिक्त यहां मंदिर के प्रांगण में देवताओं की छोटी-छोटी मूर्तियां हैं। बताया जाता है कि इनका निर्माण पांडवों ने करवाया था। हाटकोटी मंदिर के चारों ओर का
असीम सौंदर्य सैलानियों के मन को बहुत भाता है। हाटकोटी मंदिर में स्थापित
महिषासुरमर्दिनी की मूर्ति लोकमानस में दुर्गा रूप में पूजित है। आठवीं शताब्दी
में बना यह मंदिर स्थापत्य कला की दृष्टि से शिखर और पैगोडानुमा शिल्प की अमूल्य
कृति है। वर्तमान में यह मंदिर दो छतरी के पैगोडा और शिखर शैली के मिश्रित रूप में
बना है। शिखर पर सज्जे आमलक के ऊपर स्वर्ण कलश सुशोभित हैं। इस मंदिर का शेष शीर्ष
भाग पत्थर की स्लेट की ढलानदार छत से आच्छादित है। हाटकोटी मंदिर दुर्गा के
गर्भगृह में महिषासुरमर्दिनी की तोरण से विभूषित आदमकद कांस्य प्रतिमा गहरी लोक
आस्था का प्रतीक है। महिष नाम के दानव का मर्दन करती दर्शाई गई दुर्गा की यह
प्रतिमा सौम्यभाव की अभिव्यक्ति देती है। यहां मंदिर के प्रवेश द्वार पर बाईं ओर
लोहे की जंजीरों में बंधा एक विशालकाय ताम्र घट भगवती दुर्गा के द्वारपाल होने का
प्रमाण पुख्ता करता है। जनश्रुति है कि इस मंदिर के प्रवेश द्वार पर दोनों ओर
वृहदाकार ताम्र कुंभ स्थापित थे। जब श्रावण मास में पब्बर खड्ड उफान पर होती थी
तो यह दोनों घट लोहे की
जंजीरों से मुक्ति पाने के लिए छटपटाहट में जोरदार सीटियों को मारने वाली आवाज
जैसा वातावरण बना देते थे। जिससे यह स्पष्ट होता था कि दोनों घट अथाह जलवेग में वह
जाने के लिए तत्पर रहते थे। यह भी लोक मान्यता है कि भगवती मूलतः रोहडू खशधार की
माटी से उद्भासित होकर प्रबल जलवेग के साथ बहती हुई हाटकोटी के समतल भूभाग पर रूक
गईं ।
आज भी यह लोक आस्था है कि जब-जब खशधार के नाले का बढ़ता जल वेग पब्बर नदी
में शामिल होता है तब-तब हाटकोटी मंदिर में कुंभीय गर्जना अधिक भयंकर हो जाती है। कहा
जाता है कि खशधार की दुर्गा के पब्बर नदी में प्रवाहित हुए अवशेषों की स्मृति में
कुंभ विकराल रूंदन करते सुनाई देता है। मान्यता है कि हाटकोटी मंदिर की परीधि के ग्रामों में जब कोई विशाल उत्सव,यज्ञ,शादी आदि का आयोजन किया
जाता था तो हाटकोटी से चरू ला कर उसमें भोजन रखा जाता था। चरू में रखा भोजन
बार-बार बांटने पर भी समाप्त नहीं होता था। यह सब दैविक कृपा का प्रसाद माना जाता
था। चरू को अत्यंत पवित्रता के साथ रखा जाना आवश्यक होता था अन्यथा परिणाम उलटा हो
जाता था। लोक मानस में चरू को भी देवी का बिंब माना जाता रहा है। शास्त्रीय दृष्टि
से चरू को हवन या यज्ञ का अन्न भी कहा जाता है। हाटकोटी मंदिर में दुर्गा मंदिर के
साथ शिखरनुमा शैली में बना शिव मंदिर है। इस मंदिर का द्वार शांत मुखमुद्रा में
अष्टभुज नटराज शिव से सुसज्जित है। शिव मंदिर के गर्भगृह में प्रस्तर शिल्प में
निर्मित शिवलिंग,दुर्गा,गरूड़ासीन लक्ष्मी-विष्णु,गणेश आदि की प्रतिमाएं है। इस मंदिर का द्वार मुख तथा
बाह्यप्रस्तर दीवारें कीर्तिमुख, पूर्णघट,कमल और हंस की नक्काशी के साथ अलंकृत है। नागर शैली में
बने अन्य पांच छोटे-छोटे मंदिर प्रस्तर शिल्प के जीवन अलंकरण को प्रस्तुत करते
हैं। इस पावन धारा पर संजोए पुरावशेष और प्रस्तर पर उर्त्कीण देवी-देवताओं की
भाव-भंगिमाएं देवभूमि पर शैव-शाक्त संप्रदायों के प्रबल प्रभाव के उद्बोधक हैं।
हाटकोटी दुर्गा का मान्यता क्षेत्र व्यापक है। पर्वतीय क्षेत्रों में शाक्त धर्म
का सर्वाधिक प्रभाव दुर्गा रूप में ही देखा जाता है। हाटकोटी मंदिर के दैनिक पूजा
विधान में प्रतिदिन ब्रह्ममुहूर्त में भगवती का स्तुति गान स्थानीय बोली में किया
जाता है। प्रात:कालीन पूजा को ढोल-नगाड़ों
की देव धुन पर किया जाता है। इसे लोक मानस में प्रबाद कहा जाता है। सूर्योदय के
साथ -साथ एक बार फिर पूजा की जाती है। इसके बाद दोपहर तथा सांझ होते ही
पूजा-अर्चना करने का विधान है। सांयकालीन पूजा को सदीवा कहते है। रात्रिकालीन में मां दुर्गा के शयन पर नब्द बजाई जाती है।
यहां प्रत्येक पूजा वाद्य यंत्रों की लय और ताल पर की जाती है। हाटकोटी मंदिर
शिमला- रोहडू मार्ग पर है। हाटकोटी मंदिर
शिमला से 100
किलोमीटर
की दूरी पर स्थित है।
आभार उत्तम चन्द प्रवक्ता रोहड़ू
आभार उत्तम चन्द प्रवक्ता रोहड़ू
शनिवार, दिसंबर 01, 2012
पारंपरिक लोकोत्सव बूढ़ी दिवाली
बूढ़ी दिवाली ग्रामीण लोक जीवन की अभिव्यक्ति का माध्यम है। बूढ़ी दिवाली लोक संस्कृति में सामूहिक हर्षोल्लास का पर्व है, जो सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक विशिष्ठता रखता है। यह लोकोत्सव सृजनात्मकता एवं सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है
संस्कृति के तीज त्योहारों में कार्तिक माह की अमावस्या को पड़ने वाले उमंग और उत्साह से भरपूर दीपावली का त्योहार बुराई पर अच्छाई तथा अंधकार पर प्रकाश का प्रतीक है, लेकिन हिमाचल प्रदेश के कुछ पर्वतीय भागों में दिवाली के ठीक एक माह बाद मार्ग शीर्ष मास की अमावस्या की बूढ़ी दिवाली का लोकोत्सव मनाया जाता है। हर प्रांत तथा क्षेत्र में बूढ़ी दिवाली मनाने के कारण एवं तरीके विभिन्न हैं, जहां नई दिवाली भगवान राम की लंका विजय के बाद अयोध्या आगमन के हर्षोल्लास का पर्व है, वहीं बूढ़ी दिवाली का संबंध बाहुबली दानवीर राजा बलि के पाताल लोेक के निर्गमन का सूचक है। इसे बलराज उत्सव भी कहा जाता है। सिरमौर जनपद में बूढ़ी दिवाली की शुरुआत बलग गांव से होती है, जिसे राजा बलि की स्थली माना जाता है। सिरमौर के गिरिपार हाटी इलाके के लादी कांगड़ा क्षेत्र (शिलाई) के नौणीधार, द्राबिल, टटियाणा, हलांक, नाया-पंजोल तथा रेणुकाजी क्षेत्र के रजाणा, पुन्नरधार, भराड़ी तथा चाढ़ना आदि स्थानों में बुढ़ाह लोकनृत्य के साथ बूढ़ी दिवाली का शुभारंभ होता है। रात को लोग देव आंगन में पवित्र अग्नि प्रज्वलित करते है, जिसे ‘घियाना’ कहा जाता है। ‘घियाना’ के चतुर्दिक गांववासी अग्नि पूजा करते है। उपस्थित पुरुष सदस्य ‘घियाना’ से मशाले जलाते हैं, जिन्हें ‘डाह’ या ‘हुशु’ कहा जाता है। आराध्य ग्राम देवों के सम्मान में जलती मशालों के साथ होलाच नृत्य किया जाता है और फिर रासा-नाटी नृत्य में महिलाएं और पुरुष एक-दूसरे को अश्लील व्यंग्यात्मक गीतों से रिझाते हैं। अगली सुबह गत रात्रि के भोंडे गीतों के अपराध बोध का पश्चाताप करने के लिए परस्पर अखरोट बांट कर अभिवादन किया जाता है। दो-तीन दिन चलने वाले इस प्रकाशोत्सव में ग्रामीण लार टपकाऊ पहाड़ी व्यंजनों-खीर, पटांडे, तेल पक्की, कांजण-बिलोई व द्रोटी-भात आदि का आनंद उठाते हैं तथा खूब नाच-गान होता है। बूढ़ी दिवाली को यहां ‘मशराली’ के नाम से भी जाना जाता है। संध्याकाल में लोक नाट्यों में रामायण व महाभारत के दृश्यों का मंचन किया जाता है। हिमाचल की लोक संस्कृति व्यापक है। सिरमौर जिला के अलावा शिमला, कुल्लू तथा किन्नौर जिलों में भी बूढ़ी
दिवाली का त्योहार मनाया जाता है। जिला शिमला के रावी गांव में बूढ़ी दिवाली के दिन राजा बलि की आटे की मूर्ति बनाई जाती है और उसकी छाती पर दीये जलाकर स्थानीय देवता बोंडा नाग की पूजा की जाती है तथा महिलाएं ब्रह्म भेंट गीत गाती हैं। नीरथ गांव में मार्ग शीर्ष अमावस्या की दिवाली की रात प्रसिद्ध पारंपरिक मेला लगता है। कुल्लू जनपद के निरमंड गांव की बूढ़ी दिवाली काफी प्रसिद्ध है। यहां के ‘फकीरी’ ब्रह्मण अमावस्या की इस रात महादानी राजा बलि की कथा का भारथ (इतिहास) गाते हैं। ऊपरी कुल्लू घाटी मेें बूढ़ी दिवाली की रात लोग अपने घरों एवं देवालयों में पवित्र अग्नि से बलराज जलाते है, इसे शौली कहा जाता है। गांव के युवा अश्लील गीत ‘जीरू’ का जोर-जोर से गायन पुकार करते हैं, जिसका इस रात कोई बुरा महसूस नहीं करता। किन्नौर जिला के निचार तथा सांगला क्षेत्रों में बूढ़ी दिवाली को ‘दीवाअल’ के नाम से हर्षातिरेक से मनाया जाता है, जहां क्रमशः उषा देवी और देरिंग नाग देवता के सम्मान में गीत गाए जाते हैं। स्वादिष्ट व्यंजनों के साथ ग्रामीण फसलों की कटाई का जश्न मनाते हैं। सिरमौर जनपद की गिरिपार हाटी संस्कृति की समरूपता के लिए पड़ोसी उत्तराखंड राज्य के बावर जौनसार तथा देऊधार क्षेत्र के झोटाड़, मंडोल, चिलाड़ व रडू आदि कई गांव में मार्ग शीर्ष अमावस्या की रात्रि को बूढ़ी दिवाली का दीपोत्सव पारंपरिक ढंग से मनाया जाता है। लोग साझा आंगन में चालदा महासू के नामित ‘उकले’(मशालें) जलाते है और लोक गाथाओं व लोक नाट्यों का प्रस्तुतिकरण होता है। बूढ़ी दिवाली पर सभी स्थानों पर मशालें जलाकर वीर रस आधारित ‘लिंबर’ व ‘होलाच’ लोकनृत्य वास्तव में अंधेरे को परास्त कर रोशनी की ओर जाने का परिचायक है। यह उत्सव ग्रामीण लोक जीवन की अभिव्यक्ति का माध्यम है। बूढ़ी दिवाली लोक संस्कृति में सामूहिक हर्षोल्लास का पर्व है, जो सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक विशिष्ठता रखता है। यह लोकोत्सव सृजनात्मकता एवं सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है।
गुरुवार, अक्तूबर 18, 2012
ऐतिहासिक तारादेवी मन्दिर
शिमला के निकट बना ऐतिहासिक तारादेवी मन्दिर देश के ऐसे स्थलों में शामिल
है जिसे भारत के देवी स्थानों में अत्यन्त महत्व प्राप्त है। वस्तुतः भगवती तारा
क्योंथल राज्य के सेन वंशीय राजाओं की कुलदेवी हैं। क्योंथल रियास
त की स्थापना राजा गिरिसेन ने की थी। इसलिए संक्षेप में सेन राजवंश का
इतिहास जानना भी आवश्यक है। मध्यकालीन भारत में छोटे-छोटे राज्य हुआ करते थे।
उत्तरी भारत में अनेक राजपूत रियासतें थीं जिनमें दिल्ली में तोमर, अजमेर में चौहान, कन्नौज
में राठौर, बुन्देलखण्ड
में चन्देल, मालवा
में परमार, गुजरात
में चालुक्य, मेवाड़
में सिसोदिया, बिहार
में पाल तथा बंगाल में सेन राजवंश प्रमुख थे। महमूद गज़नवी के बाद शहबद्दीन
मुहम्मद गौरी ने भारत पर बार-बार आक्रमण किए। वह कट्टर मुसलमान था और भारत में
मूर्तिपूजा का नाश करना तथा मुस्लिम राज्य की स्थापना करना अपना सबसे बड़ा
कर्त्तव्य समझता था। वह राजाओं की शक्ति को नष्ट-भ्रष्ट करना चाहता था। उसके एक
सेनानायक मुहम्मद-बिन-बख़तियार खिलजी ने जब बंगाल की राजधानी नदिया पर आक्रमण किया
तो वहां के तत्कालीन सेन राजवंशीय राजा लक्ष्मणसेन को लाचार होकर अपना राज्य
छोड़ना पड़ा और वे राजपरिवार सहित ढाका की ओर विक्रमपुर चले गए। कहा जाता है कि
उन्हें उनेक राजज्योतिषी ने पहले ही यह बता दिया था कि वे किसी भी प्रकार से तुर्क
आक्रमणकारियों का सामना नहीं कर पाएंगें। कालान्तर में उनके प्रपौत्र राजा रूपसेन
को भी विक्रमपुर छोड़ना पड़ा और वे पंजाब प्रान्त के रोपड़ में आकर बस गए। मुसलमान
आक्रमणकारियों से वहां भी उन्हें युद्ध लड़ने के लिए विवश होना पड़ा। अंत में उनके
तीनों पुत्र पर्वतीय क्षेत्रों की ओर चल पड़े, जिनमें
से वीरसेन ने सुकेत, गिरिसेन
ने क्योंथल तथा हमीरसेन ने किश्तवाड़ की ओर प्रस्थान किया।
राजा गिरिसेन ने जुनगा को अपने राज्य की राजधानी बनाया। कुलदेवी होने के नाते वे भगवती तारा को भी (मूर्ति रूप में) अपने साथ ही लाए थे। सेनवंश के सभी राजाओं तथा राजपरिवार पर भगवती तारा की असीम कृपा रही है। संकट की घड़ी में भगवती तारा ने हर प्रकार से उनकी सहायता की है।
एक बार अपने राज्यकाल में तत्कालीन क्योंथल रियासत (जुनगा) के राजा भूपेन्द्र सेन जुग्गर के घने जंगल में शिकार खेलने पहुंचे। उन्हें वहां पहुंचे कुछ ही समय हुआ था कि सहसा उन्हें उस स्थान पर भगवती तारा की विद्यमानता का आभास हुआ। भगवती ने आवाज+ देकर कहा- ''हे राजन्! तुम्हारी वंश परम्परा बंगाल से चली आ रही है। मैं दश महाविद्याओं में से एक महाविद्या हूँ।'' इस आवाज़ को सुनकर राजा आश्यर्चचकित हो गए और हने लगे- ''हे माता! यदि यह आवाज़ वास्तव में आपकी ही है, तो साक्षात् रूप में प्रकट होकर दर्शन देकर कृतार्थ करो।'' राजा के इस प्रकार कहने पर माता ने साक्षात् दर्शन दिए और कहा- ''राजन्! तुम मेरे स्थान का निर्माण करो। मैं सदैव तुम्हारे साथ रहकर तुम्हारे वंश तथा राज्य की रक्षा करूंगी।'' ऐसा कहकर उसी क्षण भगवती अदृश्य हो गईं।
भगवती के इस प्रत्यक्ष चमत्कार से प्रभावान्वित होकर राजा भूपेन्द्र सेन ने भगवती के आदेशानुसार वहां एक मन्दिर का निर्माण करवाया तथा उस मन्दिर में भगवती तारा की मूर्ति को प्रतिष्ठापित करवाया। साथ ही एक बड़ा भूक्षेत्र भी मन्दिर के नाम दान कर दिया। यहां भगवती तारा प्रत्यक्ष रूप में स्वयं प्रकट हुई थीं। इस कारण यह प्रमुख स्थान माना जाता है। पूर्व काल में इस मन्दिर में विधिवत् पूजा हुआ करती थी। इस कार्य के लिए एक पुजारी को यहां नियुक्त किया गया था। उसके बाद उसके वंशज पूजा-अर्चना का कार्य किया करते थे। परन्तु किसी कारणवश एक ऐसा समय आया कि धीरे-धीरे उक्त परिवार का प्रायः अन्त हो गया और यहां की सारी व्यवस्था में व्यवधान पड़ गया। मन्दिर जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पहुंच गया।
परन्तु श्रद्धालुओं के लिए यह प्रसन्नता का विषय है कि कुछ समय पूर्व ही श्री तारादेवी मन्दिर न्यास ने स्थानीय लोगों के प्रशंसनीय योगदान से इस स्थान पर एक नए मन्दिर का निर्माण करवाया है। मन्दिर की वास्तुशैली भी आकषर्क है। जुग्गर मन्दिर शिलगांव चक के अन्तर्गत आता है। इसलिए वहां के निवासी ही मुख्यरूप से वर्षों से इस मन्दिर की देख-रेख तथा कार्यभार के उत्तरदायित्व को निभाते चले आ रहे हैं। छठे महीने अर्थात् वर्ष में दो बार ये सभी लोग मिलजुल कर इस मन्दिर में विशेष पूजा-अर्चना तथा कड़ाही-प्रसाद की व्यवस्था करते हैं। ये सभी लोग इस बात को भी मानते हैं कि भगवती कृपा सदैव इन पर बनी रहती है।
एक समय महात्मा ताराधिनाथ नामक एक सिद्ध योगी घूमते-घुमाते तारब के जंगल में पहुंच गए। उन्होंने सांसारिक बन्धनों का त्योग कर दिया था। अभीष्ट सिद्धि की प्राप्ति हेतु कठोर तपस्या तथा योगशक्ति के बल पर उन्होंने अलौकिक शक्तियों से सामंजस्य स्थापित कर लिया था। वे भगवती तारा के अनन्य उपासक थे। वे इस जंगल के उच्च शिखर पर अपने आगे धूनी लगाकर अपने आसन पर ध्यानमुद्रा में बैठे रहा करते थे। जब वर्षा होती थी तो एक बूँद भी उनकी धूनी तथा उनके आसन पर नहीं गिरती थी। वह स्थान को वर्षा से अप्रभावित रहा करता था। जो लोग भी वहां जाते थे, वे इस चमत्कार को देखकर अचम्भित होते थे।
श्री तारादेवी मन्दिर में 7 अगस्त, 1970 को एक बहुत ही निन्दनीय घटना घटित हुई। अर्धरात्रि के समय कुछ लुटेरों ने मन्दिर के द्वार को तोड़कर गर्भगृह में प्रवेश किया। भगवती तारा की मूर्ति को उठाकर वे भागने लगे। वे कुछ ही दूरी तक मूर्ति को ले जा सके थे कि उनका दम घुटने लगा। उनकी आंखों के आगे अन्धेरा छा गया। उन्हें आगे जाने का रास्ता नहीं सूझा। भगवती की अद्भुत शक्ति ने लुटेरों के इस नीचतापूर्ण दुष्कृत्य को विफल कर दिया। विवश होकर उन लुटेरों ने भगवती की मूर्ति को एक बड़ी झाड़ी के बीच फैंक कर छोड़ दिया और वे स्वयं रात्रि के अंधेरे का लाभ उठाकर भाग निकले।
क्योंथल राजवंश की अपनी कुलदेवी भगवती तारा के प्रति अटूट श्रद्धा है। वे समय-समय पर अपने कल्याणार्थ तथा सर्वजनहितार्थ श्री तारादेवी मन्दिर में अनुष्ठान करवाते रहते हैं।
श्री तारादेवी मन्दिर में आने वाले श्रद्धालुओं में से अनेक ऐसे भी हैं, जो भगवती का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए अथवा मांगी गई मन्नत पूरी होने पर दूर-दूर से नंगे पावं पैदल चलकर यहां पहुंचते हैं।
वस्तुतः भगवती सम्पूर्ण जगत की अधीश्वरी हैं। वे अपने भक्तों की रक्षा तथा कल्याण के लिए ही प्रकट रूप में इस मन्दिर में निवास करती हैं।
राजा गिरिसेन ने जुनगा को अपने राज्य की राजधानी बनाया। कुलदेवी होने के नाते वे भगवती तारा को भी (मूर्ति रूप में) अपने साथ ही लाए थे। सेनवंश के सभी राजाओं तथा राजपरिवार पर भगवती तारा की असीम कृपा रही है। संकट की घड़ी में भगवती तारा ने हर प्रकार से उनकी सहायता की है।
एक बार अपने राज्यकाल में तत्कालीन क्योंथल रियासत (जुनगा) के राजा भूपेन्द्र सेन जुग्गर के घने जंगल में शिकार खेलने पहुंचे। उन्हें वहां पहुंचे कुछ ही समय हुआ था कि सहसा उन्हें उस स्थान पर भगवती तारा की विद्यमानता का आभास हुआ। भगवती ने आवाज+ देकर कहा- ''हे राजन्! तुम्हारी वंश परम्परा बंगाल से चली आ रही है। मैं दश महाविद्याओं में से एक महाविद्या हूँ।'' इस आवाज़ को सुनकर राजा आश्यर्चचकित हो गए और हने लगे- ''हे माता! यदि यह आवाज़ वास्तव में आपकी ही है, तो साक्षात् रूप में प्रकट होकर दर्शन देकर कृतार्थ करो।'' राजा के इस प्रकार कहने पर माता ने साक्षात् दर्शन दिए और कहा- ''राजन्! तुम मेरे स्थान का निर्माण करो। मैं सदैव तुम्हारे साथ रहकर तुम्हारे वंश तथा राज्य की रक्षा करूंगी।'' ऐसा कहकर उसी क्षण भगवती अदृश्य हो गईं।
भगवती के इस प्रत्यक्ष चमत्कार से प्रभावान्वित होकर राजा भूपेन्द्र सेन ने भगवती के आदेशानुसार वहां एक मन्दिर का निर्माण करवाया तथा उस मन्दिर में भगवती तारा की मूर्ति को प्रतिष्ठापित करवाया। साथ ही एक बड़ा भूक्षेत्र भी मन्दिर के नाम दान कर दिया। यहां भगवती तारा प्रत्यक्ष रूप में स्वयं प्रकट हुई थीं। इस कारण यह प्रमुख स्थान माना जाता है। पूर्व काल में इस मन्दिर में विधिवत् पूजा हुआ करती थी। इस कार्य के लिए एक पुजारी को यहां नियुक्त किया गया था। उसके बाद उसके वंशज पूजा-अर्चना का कार्य किया करते थे। परन्तु किसी कारणवश एक ऐसा समय आया कि धीरे-धीरे उक्त परिवार का प्रायः अन्त हो गया और यहां की सारी व्यवस्था में व्यवधान पड़ गया। मन्दिर जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पहुंच गया।
परन्तु श्रद्धालुओं के लिए यह प्रसन्नता का विषय है कि कुछ समय पूर्व ही श्री तारादेवी मन्दिर न्यास ने स्थानीय लोगों के प्रशंसनीय योगदान से इस स्थान पर एक नए मन्दिर का निर्माण करवाया है। मन्दिर की वास्तुशैली भी आकषर्क है। जुग्गर मन्दिर शिलगांव चक के अन्तर्गत आता है। इसलिए वहां के निवासी ही मुख्यरूप से वर्षों से इस मन्दिर की देख-रेख तथा कार्यभार के उत्तरदायित्व को निभाते चले आ रहे हैं। छठे महीने अर्थात् वर्ष में दो बार ये सभी लोग मिलजुल कर इस मन्दिर में विशेष पूजा-अर्चना तथा कड़ाही-प्रसाद की व्यवस्था करते हैं। ये सभी लोग इस बात को भी मानते हैं कि भगवती कृपा सदैव इन पर बनी रहती है।
एक समय महात्मा ताराधिनाथ नामक एक सिद्ध योगी घूमते-घुमाते तारब के जंगल में पहुंच गए। उन्होंने सांसारिक बन्धनों का त्योग कर दिया था। अभीष्ट सिद्धि की प्राप्ति हेतु कठोर तपस्या तथा योगशक्ति के बल पर उन्होंने अलौकिक शक्तियों से सामंजस्य स्थापित कर लिया था। वे भगवती तारा के अनन्य उपासक थे। वे इस जंगल के उच्च शिखर पर अपने आगे धूनी लगाकर अपने आसन पर ध्यानमुद्रा में बैठे रहा करते थे। जब वर्षा होती थी तो एक बूँद भी उनकी धूनी तथा उनके आसन पर नहीं गिरती थी। वह स्थान को वर्षा से अप्रभावित रहा करता था। जो लोग भी वहां जाते थे, वे इस चमत्कार को देखकर अचम्भित होते थे।
श्री तारादेवी मन्दिर में 7 अगस्त, 1970 को एक बहुत ही निन्दनीय घटना घटित हुई। अर्धरात्रि के समय कुछ लुटेरों ने मन्दिर के द्वार को तोड़कर गर्भगृह में प्रवेश किया। भगवती तारा की मूर्ति को उठाकर वे भागने लगे। वे कुछ ही दूरी तक मूर्ति को ले जा सके थे कि उनका दम घुटने लगा। उनकी आंखों के आगे अन्धेरा छा गया। उन्हें आगे जाने का रास्ता नहीं सूझा। भगवती की अद्भुत शक्ति ने लुटेरों के इस नीचतापूर्ण दुष्कृत्य को विफल कर दिया। विवश होकर उन लुटेरों ने भगवती की मूर्ति को एक बड़ी झाड़ी के बीच फैंक कर छोड़ दिया और वे स्वयं रात्रि के अंधेरे का लाभ उठाकर भाग निकले।
क्योंथल राजवंश की अपनी कुलदेवी भगवती तारा के प्रति अटूट श्रद्धा है। वे समय-समय पर अपने कल्याणार्थ तथा सर्वजनहितार्थ श्री तारादेवी मन्दिर में अनुष्ठान करवाते रहते हैं।
श्री तारादेवी मन्दिर में आने वाले श्रद्धालुओं में से अनेक ऐसे भी हैं, जो भगवती का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए अथवा मांगी गई मन्नत पूरी होने पर दूर-दूर से नंगे पावं पैदल चलकर यहां पहुंचते हैं।
वस्तुतः भगवती सम्पूर्ण जगत की अधीश्वरी हैं। वे अपने भक्तों की रक्षा तथा कल्याण के लिए ही प्रकट रूप में इस मन्दिर में निवास करती हैं।
गुरुवार, जुलाई 12, 2012
श्रीखंड यात्रा 2012
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गुरुवार, जुलाई 12, 2012
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रौशन जसवाल विक्षिप्त
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समाचार
श्रीखंड यात्रा इस बार 16 जुलाई से 23 जुलाई तक आयोजित होगी। श्रीखंड जिला कुल्लू के दुर्गम क्षेत्र से लगभग 1800 फीट की ऊंचाई पर स्थित है।
इस स्थान पर पहुंचने के लिए शिमला से रामपुर, रामपुर से निरमंड व बागीपुल तक बस से पहुंचा जा सकता है। निरमंड से 4 कि.मी. पीछे उतर कर देवढांक में महादेव के दर्शन कर लिए जाएं तो श्रीखंड महादेव की यात्रा सफल हो जाती है। यहां से अपनी यात्रा शुरू करनी चाहिए। रात्रि विश्राम बागीपुल में किया जा सकता है। जांव गांव में महामाया का एक बहुत ही पुराना भव्य मंदिर है। जांव गांव में थोड़ा विश्राम करके सिंहगाड तक आराम से पगडंडी द्वारा रास्ता तय करके पहुंचा जा सकता है। बागीपुल से सिंहगाड का रास्ता 9 कि.मी. है। इसके बाद यात्री थाचडू के लिए प्रस्थान करते हैं और फिर बराहटीनाला में गिरचादेव के दर्शन करके आगे की यात्रा शुरू करते हैं और अगला पडाव भीमडुआरी है। यहां घने जंगल व बर्फ से लदे पहाड़ देख कर मन मोहित हो जाता है। थाचडू से भी सुबह-शाम अगर मौसम साफ हो तो श्रीखंड महादेव के दर्शन किए जा सकते हैं। चढ़ाई चढ़ने के बाद महाकाली, जोगणीजोत, कालीघाटी का छोटा सा मंदिर आता है। यहां से भी श्रीखंड महादेव के दर्शन किए जा सकते हैं। इसके आगे घाटी में ढांक दुआर, कुणासा घाटी, व काली घाटी देखने योग्य स्थल हैं। कहते हैं कि भीमडुआरी में अज्ञातवास के दौरान पांडव यहां पर ठहरे थे इसलिए इसका नाम भीमडुआरी पड़ा। यहां विश्राम करने के बाद यात्री श्रीखंड महादेव के दर्शन के लिए निकल पड़ते हैं। यहां से कैलाश दर्शन की दूरी लगभग 7 कि.मी. है। आगे छोटे-छोटे कल-कल करते नाले व ऊंचे पहाड़ों से गिरती हुई शोर मचाती हुई पानी की धाराएं फूलों से लदी घाटियां व मां पार्वती के बाग यात्रियों को कठिन यात्रा का एहसास नहीं होने देते। चार घंटों का सफर तय करने के बाद नैनसर झील आ जाती है। कहते हैं कि माता पार्वती को जब भस्मासुर ने डराया था तब वे रो पड़ी थीं उनके आंसुओं की धारा से ही इस आंख के आकार के सरोवर का निर्माण हुआ व इसलिए इसका नाम नैनसर पड़ा। नैनसर से आगे शुरू होती है और भी कठिन और दुर्गम यात्रा। भीमबही में बहुत बड़ी चट्टानें हैं जिन पर कुछ लिखा हुआ है। कहते हैं कि अज्ञातवास के दौरान भीम ये चट्टानें यहां लाए थे। चढ़ाई चढ़ते समय कुछ ऐसी जगह भी आती है जहां पर एक नन्हें बालक की तरह रेंग कर चढ़ना पड़ता है। बर्फ के ग्लेशियर लांघ कर यात्री यहां पहुंचते हैं परंतु श्रीखंड कैलाश से थोड़ा पीछे काफी बड़ा ग्लेशियर लांघना पड़ता है। अब लगभग 60-70 फुट ऊंचे प्राकृतिक शिवलिंग व साथ में थोड़ा हट के भगवान गणपति व मां पार्वती के दर्शन शुरू हो जाते हैं व सामने श्री कार्तिकेय स्वामी के दर्शन किए जा सकते हैं। भारी ठंड व 1800 फीट की ऊंचाई पर श्रीखंड महादेव स्थित होने के कारण यहां पर ज्यादा देर ठहरना संभव नहीं होता। परंतु थोड़ी देर दर्शन करके ऐसा अनुभव होता है कि जैसे स्वर्ग की यात्रा की जा रही हो। यह यात्रा कठिन होने के साथ-साथ अति मनोहारी, सुखदायी व अध्यात्मिक शांति प्रदान करने वाली है।
रविवार, जून 10, 2012
श्रीखण्ड छड़ी यात्रा 2012
हिमालय में बसे श्रीखण्ड महादेव की पवित्र श्रीखण्ड छड़ी यात्रा 30 जून 2012 को जिला कुल्लु के निरमण्ड से आरम्भ हो रही है। छड़ी यात्रा का नेतृत्व महंत अशोक गिरी फलाहारी बाबा करेंगे। इसमें दो छडि़या होंगी जिसमें एक माता अंबिका की और दूसरी दतात्रेय महाराज की होगी। श्रीखण्ड छड़ी यात्रा एवं ग्राम सुधार समिति के अध्यक्ष देवेन्द्र पाल शर्मा और सचित कुशल राम शर्मा ने बताया कि 30 जून को छड़ी का विधि विधान से पूजन किया जाऐगा । यात्रा निरमण्ड के दशनामी जूना अखाड़े से ब्राहटी नाला तक प्रस्थान करेगी 1 जुलाई 2012 को यात्रा ब्राहटी नाला से थाचड़ु से भीमडवार पहुंचेगी । 3 जुलाई को भीम डवारी से श्रीखण्ड दर्शन के लिए रवाना होगी। उन्होने बताया कि 8 जुलाई को निरमण्ड में भंडारे का आयोजन किया जाऐगा।
गुरुवार, जनवरी 12, 2012
मकर संक्रांति
माघ माह का मकर संक्रांति पर्व 14 जनवरी शनिवार को मनाया जाएगा। मकर संक्रांति पर दान का विशेष महत्व है। दान में तिल और गुड़ देना विशेष फल देने वाला माना जाता है। परंपरागत रूप से लोहड़ी पर लोग हवन का आयोजन करते है, जिसमें तिल, घी, मूंगफली की आहुति डाली जाती है। शिमला के उपरी क्षेत्रों में संक्रांति पर तिल के लड्डू बनाने की परम्परा है। लोहड़ी के अगले दिन मकर संक्रांति पर्व पर दान पुण्य को विशेष महत्व दिया जाता है। तिल और खिचड़ी के दान को विशेष रूप से महत्वपूर्ण माना जाता है। घरों में संक्रांति के दिन तिल के व्यंजन और खिचड़ी बनाई जाती है। मकर संक्रांति पर लोग सूर्य पूजन कर पवित्र नदियों में स्नान कर पुण्य प्राप्त करते हैं। कहा जाता है कि माघ माह की पूर्णिमा में जो व्यक्ति ब्राह्मण को दान करता है, उसे ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है। शिमला के समीप तत्तापानी जो लगभग 51 किलोमीटर है, में भी इस दिन दान पुण्य किया जाता है। यहां तुला दान का विशेष महत्व है। माघ माह के दौरान मनुष्य को कम से कम एक बार पवित्र नदी में स्नान करना चाहिए। माघ माह में सूर्य के मकर राशि में स्थित होने पर अवश्य तीर्थ स्नान करना चाहिए। माघ माह में पवित्र नदियों में स्नान करने से विशेष ऊर्जा प्राप्त होती है। वहीं शास्त्रों और पुराणों में वर्णित है कि इस माह में पूजन तथा स्नान करने से भगवान नारायण को प्राप्त किया जा सकता है। शिमला से तत्तापानी धामी, बसंतपुर मार्ग से पंहुचा जा सकता है । बर्फ बारी के चलते मशोबरा सड़क पर वाहनों की आवाजाही प्रभावित होने की स्थिति में इस मार्ग का प्रयोग किया जा सकता है। आम तौर पर मशोबरा बलदेंया से तत्तापानी पहुंचा जा सकता है।
गुरुवार, अक्तूबर 06, 2011
दशहरा
दशहरा सभी स्थानों पर परम्परागत और हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है । स्थान छोटा हो या बड़ा आस्था के दर्शन सभी जगहों पर होते है । मेरे कस्बे में लगभग 15 वर्षों के बाद रामलीला का मंचन किया गया। सभी ने हर्षोल्लास के साथ मंचन में साथ दिया। आज दशहरा पर लोगों में हर्ष व्याप्त था। कुछ तस्वीरें दशहरा आयोजन की
शुक्रवार, सितंबर 30, 2011
वर्गभेद
आप जहां रहते है वहां के लोगों से अपनत्व होना स्वाभाविक है आप चाहे किसी भी क्षेत्र से क्यों न हो। इसी अपनत्व में लोग आपसे बहुत कुछ चाहने लगते है। यदि आप नहीं दे पाए तो लोगों का मन कितना काला है ये सामने आ ही जाता है। क्या कोई ऐसा नहीं है जो ईमानदारी सरलता का सही मूल्यांकन कर सके या सभी वर्गभेद में डूबे हुए है । योग्यता का कोई सम्मान नहीं रहा है शायद। अन्तकरण भीतर तक छलनी हो जाता है यह भेद देख कर । क्या सभी कसाई है कि मौका मिला तो मुर्गा मरोड़ ही देगे। हम पीछे की ओर चल रहे या अग्रसर है क्या मालुम। फूल बोने पर क्या कांटे ही मिलते रहेगे। अब तो हद हो गई है यारब ..............
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