मेला चार साला कुमारसैन क्षेत्र में बडी हर्षोउल्लास के साथ मनाया जाता है । इस मेले के इतिहास के बारे में बडी विडम्बनाएं है । माना जाता है कि 11वी शताब्दी में जब पूरातत्व विभाग द्वारा कुमारसैन क्षेत्र की खुदाई की गई तो जगह-जगह मिटटी के बतर्नो के अवशेष प्राप्त हुए । प्राचीन काल में जाति के अधार पर कार्य को बांटा गया था जिसके अनुसार मिटटी के बर्तन तैयार करने वाले लोग कुम्हार जाति से सम्बंधित थे । और इसी अधार पर इस क्षेत्र में कुम्हार लोगों का वास था । इस जगह को कुमाहलड़ा भी कहा जाता था । परिणामत: इस क्षेत्र का नाम कुमारसैन पड़ा । कुमारसैन के राजा बिहार गया से गजनबी के आतंक से भाग कर आए थे । वह कुछ समय कोढगड नामक स्थान पर रहे । एक बार राजा शिकार करते-करते कुमारसैन आए । उन्होनें यहां एक घटना देखी। उन्होनें देखा कि एक चूहे ने नेवले को निगल लिया । ऐसा देख राजा अचंभित था उसने अपने सलाहकार ब्राहमण से इसके बारे में पूछा और कहा इस घटना का क्या कारण है । ब्राहमण ने कहा यह वीर माटी के संकेत है । यह हम जैसे ब्रामणों के लिए नही बल्कि आप जैसे राज पुरूष् के लिए बहुत शूभ भूमी है । इसके पश्चात राजा ने याहां महल व राजगददी भवन बनाने का निर्णय लिया । इससे पूर्व यहां का राजपाठ स्वयं देवता श्री कोटेश्वर महादेव सम्भालते थे । इस क्षेत्र में महादेव की आज्ञानुसार सारे कार्य किए जाते थे । उसी रोज महादेव ने राजा को सपने मे दर्शन दिए और कहा कि मै तुमसे प्रसन्न हूं तथा वरदान मांगने को कहा , यह सुनकर राजा ने महल बनाने की इच्छा जाहिर की । महादेव बोले तुम यहां महल बना सकते हो पर सर्वप्रथम मेरा मन्दिर तुम्हे स्थापित करना होगा । इतने मे ही राजा का स्वप्न टूट गया । इसके पश्चात राजा श्री कोटेश्वर महादेव के मन्दिर में महादेव की आज्ञा लेने गए । महादेव ने सपने को दौहराया और कहा हर चार साल के बाद में कुमारसैन वासियों को दर्शन देने बाहर निकलूंगा और समय-समय से मेरी पूजा अर्चना करनी होगी । यदि तुम इन बातों पर अम्ल करोगें तो मेरा आर्शिवाद हमेशा तुम पर बना रहेगा । इस बात को सुनकर राजा प्रसन्न हुआ और उसने महादेव की इच्छानुसार सारे कार्य किए । और महल के अन्दर श्रीकोट मन्दिर का निर्माण किया तथा महादेव को छड के रूप में प्रतिष्ठीत किया गया व इसकी पूजा राजपुरोहित द्वारा की जाने लगी । आज भी राजपुरोहित द्वारा पुजे जाने की परम्परा विद्यमान है । इसके पश्चात हर चार साल के बाद मेले का आयोजन दरबार मैदान में किया गया । इसी परम्परा पर अधारित आज भी यह मेला मनाया जा रहा है । जो हर चार साल में सितम्बर माह में मनाया जाता है । जिसमें राजवंश के लोगों का समिलित होना आवश्यक होता है । तभी
महादेव श्रीकोट मन्दिर के प्रांगण से प्रथम बार बाहर आते है । यह मेला 7/8 दिनों में चलता है और हर एक दिन अपने आप में अनूठी भूमिका अदा करता है । हर एक दिन एक दूसरे को कडी के रूप में जोडे रखता है । लोगों की देवी परम्परा के प्रति आस्था इस मेले मे देखते ही बनती है । लोग बडी दूर-दूर से आकर इसमे भाग लेना अपना सौभाग्य मानते है ।
इस बारे इतिहास काफी वर्षो पूर्व श्री अमृत शर्मा ने अपनी पुस्तक में समाहित किया हैमहादेव श्रीकोट मन्दिर के प्रांगण से प्रथम बार बाहर आते है । यह मेला 7/8 दिनों में चलता है और हर एक दिन अपने आप में अनूठी भूमिका अदा करता है । हर एक दिन एक दूसरे को कडी के रूप में जोडे रखता है । लोगों की देवी परम्परा के प्रति आस्था इस मेले मे देखते ही बनती है । लोग बडी दूर-दूर से आकर इसमे भाग लेना अपना सौभाग्य मानते है ।
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बहुत सुन्दर, साभार के लिए धन्यवाद ।
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