google.com, pub-7517185034865267, DIRECT, f08c47fec0942fa0 आधारशिला : इतिहास

इतिहास लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
इतिहास लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शनिवार, नवंबर 04, 2023

रेडियो भूली बिसरी स्मृतियां

0 Reviews

ये आकाशवाणी है..........।  

रेडियो पर ये उद्‌घोषणा सुनते ही एक अजब

अनुभूति का आभास होता है।  जैसे आकाश से वाणी सुनाई दे रही हो। आकाशवाणी से ये  शब्द सुनते ही रोमान्‍च  हो उठता है अनेक जिज्ञासाएं कौंध जाती है।  छोटे से उपकरण रेडियों के माध्यम संवाद, समाचार संगीत और भी बहुत कुछ का प्रसारण हमेशा ही उद्वेलित करता रहा है। कैसे होते है वे लोग जो आवाज के माध्यम से हमारे दिलों में कहीं गहरे उतर जाते है और हृदय में जगह बना लेते हैं।

भारत में आकाशवाणी की स्थापना की बात करें तो 23 जुलाई 1997 को यात्रा भारतीय प्रसारण सेवा कलकता और मुब्‍बई से आरम्भ हुई। 1936 में ऑल इंडिया रेडियों तो 1957 में आकाशवाणी हो गया। मैं याद कर रहा आकाशवाणी शिमला को जिससे मेरा जुड़ाव एक लम्बे समय तक केजुअल उद्‌घोषक और केजुअल सामाचार वाचक के रूप में रहा। उससे पूर्व युववाणी कार्यक्रम के कम्‍पेयरर  के रूप में सम्बंध रहा । आकाशवाणी
शिमला की शुरूआत
16 जून 1955 को हुई । ज्यों ज्‍यों यादों के पन्ने पलटता हूं तो बाल्यकाल की कुछ धुंधली स्मृतियां सामने आती है। परिवार में रेडियों होना सम्मान की बात होती थी । उस समय रेडियो रखने के लिए 
लाईसेंस लेना पड़ता था और डाकघर में सालना फीस जमा करवानी होती थी । 

रेडियो प्रतिदिन विशेष कर प्रातःकाल और शाम को अवश्य सुना जाता ।  सुबह सुबह धार्मिक भजनों के लिए तो शाम समाचारों के लिए । याद आता है कि मेरे बाल्‍य काल मे  प्रादेशिक समाचारों में राम कुमार काले की

प्रमुख आवाज थी। उनकी बुलन्द आवाज और उच्चारण आज भी श्रोता याद करते है। उनको सुनते तो जिज्ञासा होती कि  काले साहब कैसे होंगे ।   ज़रूर रोबिला और लम्बी हटीकट्टी कद काठी के रहे होंगे। बहुत बाद में जब मेरा आकाशवाणी आना जाना हुआ तो पता चला कि वे बेहद सहृदय और साधारण कदकाठी के थे। मां बताती थी कि अपने बाल्यकाल में अकसर मैं उनकी  नकल कर समाचार पढ़ने का प्रयास किया करता था ।

स्‍थान परिवर्तन हुआ। 1977 में ठियोग से ढली शिमला आ गए और तो दसवीं कक्षा के लिए मशोबरा गए। उस समय एक कार्यक्रम आता था विद्यार्थियों के लिए। आकाशवाणी की टीम स्कूलों में जाकर रिकार्डिंग किया करती थी। ये 1979-80 की बात है हमारे स्कूल में भी आकाशवाणी की टीम रिकॉर्डिंग के लिए आई थी। कई बच्चों की स्वर परीक्षा प्रस्तुति कम्पेयरर  ली गई परन्तु टीम की प्रभारी नलिनी कपूर को कोई आवाज पसंद ही नहीं आई। विद्यालय के एनडीएसआई सर जोगेन्‍द्र  धोलटा ने मेरा नाम सुझाया तो कम्पेयरर के रूप में मेरा चयन हो गया और मेरे साथ चयनित हुई रीता श्रीवास्तव नाम की सहपाठी । सम्भवतः शनिवार साढ़े 12 बजे ये कार्यक्रम प्रसारित हुआ।  विद्यालय में ही रेडियो का प्रबंध हुआ। पहली बार आकाशवाणी के माध्यम से अपनी आवाज़ को सुना । सच मानिए बेहद रौमांच और गौरव के क्षण थे मेरे लिए। दसवीं के बाद संजौली कालेज से बीए किया और फिर विश्वाविद्यालय पहुंच गए। इस मध्य युववाणी कार्यक्रम के प्रस्तुत करने का अवसर मिला। युववाणी के बाद उद्‌घोषक के लिए चयन हुआ तो प्रशिक्षण कार्यक्रम भी आयोजित  हुआ। दीपक भण्डारी, बी.आर. मैहता, अच्छर सिंह परमार, शान्ता वालिया उस समय उदघोषणाओं में प्रमुख नाम थे। प्रशिक्षण के दौरान इन सभी से प्रत्यक्ष मुलाकात हो पाई। मैं दीपक भण्डारी से अधिक प्रभावित रहा। प्रशिक्षण के बाद हमारी उदघोषणाओं के लिए डयूटी लगनी आरम्भ हो गई। प्राय: शनिवार की रात और रविवार की सुबह की सभा में ड्यूटी लगती।

उद‌घोषकों की अगर बात करें तो दीपक भण्डारी एक ऐसा नाम है जिन्होने एक लम्बे समय तक आकाशवाणी शिमला में उ‌दघोषक के पद पर कार्य किया उनका व्यक्तित्व बेहद आकर्षक था।  मैंने उनको सदा ही कुर्ता, चुड़ीदार पायजामा और जैकेट में ही देखा । ये परिधान उन पर  बेहद भाता भी था।  भंडारी जी का व्‍यवहार बेहद ही मृदुभाषी और सरल था वे उदघोषकों को सदा ही  प्रोत्साहित करते और उच्चारण पर ज्यादा मेहनत करने पर बल देते। केजुअल उद्‌घोषक सदैव ही उनसे प्रसारण की बारीकियां सीखते थे। वास्तव में दीपक भण्डारी प्रेरक व्‍यक्तिव थे । 

अच्‍छर सिंह परमार उदघोषक होने के साथ साथ संगीत प्रेमी और गायन भी थे। उनका नए कलाकारों से हमेशा ही सौहार्द पूर्ण सम्‍बध रहे है नए कलाकार परमार से प्रसारण की बारिकीयां सीखते रहे है। परमार जी  गायन में विशेष रुचि रखते थे। उनकी गायन जोड़ी ज्‍वाला प्रसाद शर्मा के साथ प्रसिद्ध थी। उनका  गाया गीत  पैहर सबैला री नी गई री बहुए अड़ीए  दिन चड़ने जो आया  प्रसिद्ध है जो आज भी भी बहुत शौक से सुना और गाया जाता है। अच्‍छर  सिंह परमार मन्डयाली कार्यक्रम में भी बेहद रुचि रखते थे। 

बी.आर.मैहता की भारी और दमदार आवाज़  श्रोताओं को बेहद प्रभावित करती थी। श्रोता उनसे आकर्षित रहा करते थे। नाटकों में भी विशेष रूचि रहती थी । बी. आर.मेहता हमेशा ही आवाज़  के मोडूलेशन पर ज्यादा जोर देते थे। उनका मानना था कि इस माध्यम से श्रोताओं से असरदार संवाद स्थापित हो पाता है।  उस समय नियमित उदघोषकों के अलावा  शैल पंडित,  दीपक शर्मा, जवाहर कौल, नरेंद्र कंवर केजुअल उदघोषक हुआ करते थे।  वर्तमान में डॉ. हुकुम शर्मा और सपना ठाकुार नियमित उदघोषक के रूप में कार्यरत है जो श्रोताओं को अपनी प्रस्‍तुतियों से प्रभावित कर रहे हैं।  

आकाशवाणी पारिश्रमिक भी देती थी।  सांयकालीन ड्यूटी के दौरान कार्यक्रम गीत पहाड़ा रे प्रस्तुत करने में मुझे आनन्द आता था। फरमाईशी कार्यक्रम था तो श्रोताओं की फरमाइश पर पहाड़ी गीत प्रसारित किए जाते । अपने मित्रों के नाम भी इसमें अक्सर ले लिया करता था। कुछ समय बाद दोपहर की सभा संचालित करने लगा। सैनिकों के लिए कार्यक्रम में फिल्मी गीत बजाए जाते। रविवार को सैनिकों के लिए फरमाईशी कार्यक्रम होता था। इस कार्यक्रम को प्रसारित करने में मुझे आनन्‍द की अनुभूति होती। 

आकाशवाणी शिमला के प्रादेशिक समाचार सबसे ज्यादा सुना जाने वाला कार्यक्रम है।  समाचार एकांश में जी.सी.पठानिया, बी.के.ठुकराल सम्पादन कक्ष में कार्यरत थे जबकि  हंसा गौतम निममित समाचार वाचक थी। कुछ समय बाद शान्ता वालिया ने भी नियमित समाचार वाचन में नियुक्ति पाई थी।

1990-1991 के आसपास केजुअल प्रादेशिक समाचार वाचक के रूप में मेरा चयन हो ग‌या । प्रशिक्षण कार्यक्रम राष्ट्रीय समाचार वाचक कृष्ण कुमार भार्गव के सानिध्य में पूरा किया। उस समय समाचार एकांश में हंसा गौतम और शांता वालिया प्रमुख आवाज़ थी। हँसा गौतम आकर्षक व्यक्तित्व और शानदार आवाज की मालिक थी। उनका वाचन हमेशा दोष रहित रहता था। वे नए केजुअल समाचार वाचकों को उच्चारण पर ध्यान देने के लिए सदैव प्रेरित करती थी।  हंसा गौतम का मृदु भाषी होना सभी को बेहद प्रभावित करता
था।  शांता वालिया आकर्षक कदकाठी की थी और उनको हमेशा साड़ी में ही देखा । उनका रोबिले अंदाज में चलना उनके व्‍यक्तिव को शानदार बनाता था। वे नए कलाकारों को हमेशा ही प्रोत्‍साहित करती थी । केजुअल समाचार वाचकों में दीपक शर्मा जवाहर कौल अनुराग पराशर

भूपेंद्र शर्मा, डीडी. शर्मा, मुकेश राजपूत, रोशन जसवाल और दो एक महिला वाचक भी उस समय सक्रिय थे। जबकि वर्तमान समय में राकेश शर्मा,प्रभा शर्मा और राजकुमारी शर्मा सक्रिय है जिन्‍होने अपनी पहचान बनाई है। समाचारों में प्रारम्भ में पांच मिनट का बुलेटिन दिया जाता था। बाद में मुख्य बुलेटिन शाम सात बज कर 50 मिनट वाला पढ़ने को दिया जाने लगा। जिसे लम्बे समय तक निभाया। समाचार वाचन ने उस समय मुझे एक अलग पहचान दी  । समाचार वाचन की मेरी यात्रा फरवरी 2010 तक चली उसके बाद व्यक्तिगत कारणों से मैं इसे नियमित नहीं कर पाया।

आकाशवाणी शिमला को जब जब याद करता हूँ तो बहुत सी आवाजें और वरिष्‍ठ सहयोगी  याद आते है जिन्‍होने श्रोताओं के मानस पटल  पर अपनी आवाज के दम पर अपना नाम बनाया । कृष्‍ण कालिया का नाम उन लोगों में लिया जाता है जिन्‍होने आकाशवाणी शिमला की स्‍थापना से कार्य किया। वे शिव शरण सिंह ठाकुर को याद करते हुए बताते है कि उनको आकाशवाणी में 
लाने का श्रेय ठाकुर जी को जाता है। कृष्‍ण कालिया अक्‍सर पुराने समय को याद करते थे । 
इन्‍ही लोगों में शान्‍ति स्‍वरूप गौतम का नाम भी अदब के साथ लिया जाता है। लता वर्मा बच्‍चों के कार्यक्रम प्रस्‍तुत किया करती थी कला बोबो और लता बोबो को आज भी श्रोता याद करते है।

प्रादेशिक समाचार के बाद सुने जाने वाले कार्यक्रम विभिन्‍न बोलियों के कार्यक्रम थे। बोलियों के कार्यक्रमों में मुझे शांति स्‍वरूप गौतम, कृष्‍ण कालिया, अमर सिंह चौहान, अश्विनी गर्ग, ओंकार लाल भारद्वाज चंगर याद आते है।  ओंकार लाल भारद्वाज रिड़कू राम के नाम से श्रोताओं में प्रसिद्ध थे। चंगर उनका लेखकीय नाम था वे कांगड़ी बोली में कविताएं गीत नाटक  लिखा करते थे। 

आकाशवाणी शिमला में तैयार किए जाने वाले नाटकों ने राष्‍ट्रीय स्‍तर पर प्रशंसा प्राप्‍त की है। नाटकों और बच्चों के कार्यक्रम में मुझे अनूप महाजन, राज कुमार शर्मा, गुरमीत रामल मीत, इन्द्रजीत दुग्गल, देवेन्द्र महेन्द्रु, रविश्री बाला  स्मरण होते है जो हमेशा ही प्रेरक रहे और सीखने सीखाने की परम्परा के पक्षधर रहे।

इस केन्‍द्र ने संगीत के क्षेत्र  में देश में विशेष सम्‍मान हासिल किया है। संगीत के कार्यक्रमों में एस शशि, बी.डी. काले, भीमसेन शर्मा, सोमदत बटु, रामस्वरूप शांडिल, जीत राम, शिवशरण ठाकुर, एस. एस. एस.ठाकुर, सुन्दर लाल गन्धर्व, लेख राम गन्धर्व, श्रीराम शर्मा, शंकर लाल शर्मा, कति राम के एल सहगल  त्रिलोक सिंह ज्वाला प्रसाद याद आते है जो श्रोताओं के हृदय में आज भी उपस्थित है। कला ठाकुर  लता वर्मा हीरा
नेगी
, कृष्ण सिंह ठाकुर, रोशनी देवी. कुछ ऐसे नाम है जो संगीत,प्रसारण, प्रोग्राम प्रोडक्शन आदि अनेक कार्यक्रमों में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने में सफल हो पाए थे ।

आपका पत्र मिला, कृषि जगत, बाल गोपाल, वनिता मण्डल, शिखरों के आसपास, अमरवाणी, सैलानियों के लिए, धारा रे गीत, और बोलियों के कार्यक्रम ज्‍यादा सुने जाने वाले कार्यक्रमों में रहे है। कला ठाकुर और हीरा नेगी ने विभिन्‍न कार्यक्रमों में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभार्इ। कला ठाकुर जानकी के नाम से कार्यक्रम प्रस्‍तुत करती थी उनके फैन उनसे मिलने आते तो जानकी को ही पूछा करते थे। अनेक ऐसे कलाकार है जो अपनी योग्‍यता के कारण हमेशा स्‍मृति पटल पर अंकित है।

आकाशवाणी शिमला को जब भी याद करता हूँ तो ड्यूटी रूम, लेखा संकाय, कंटीन और गेस्‍ट रूम याद आते । गेस्‍ट रूम में उदघोषणाओं की क्रास डयूटी के दौरान सोया

हूं । ड्यूटी रूम में ज्ञान जी, अभय जी और निराला जी याद आते है। अभय जी पढ़ाई में बेहद मेहनती थे। मित्रवत स्वभाव के अभय अक्सर केजुअल को पढ़ाई और प्रतियोगी परीक्षाओं की जानकारी देते और प्रेरित करते। प्राय उन्हे प्रतियोगी पुस्तकों के साथ देखता था । बाद में उनका चयन प्रशासनिक सेवाओं में हो गया था। लेखा संकाय से चैक मिला करते थे जो अब भी मुझे उद्वेलित करते हैं। लेखा संकाय में सुशील जी स्मरण हो आते हैं। खैर ..…... ।मुझे मालूम है कि कुछ नाम अवश्‍य ही छूट गए होंगे। पाठक इसे अन्‍यथा नहीं लेंगे और इसकी जानकारी मुझे दे कर प्रोत्‍साहित करेंगे ।

एफएम के आने से प्रायमरी प्रसारण का सुना जाना जरूर कम हुआ है लेकिन प्रायमरी चैनल के प्रसारणों में लोग आज भी रूचि रखते है।

मैं आज भी गांव की ऊंची पहाड़ी पर से रेडियो पर बज रहा पहाड़ी गीतों के कार्यक्रम में  गीत सुनता हूं,  तेरी परांउठी लागा रेडिया ......  और मैं सदा ही आश्‍वसत हूं कि रेडियों जनमानस की आवाज़ रहेगा और एक  आकर्षण भी ।

 

* रौशन जसवाल विक्षिप्‍त



बुधवार, मई 17, 2023

अंतरराष्‍ट्रीय संग्रहालय दिवस

0 Reviews

 संग्रहालय  जगह होती है, जहां पर संस्कृति, परंपरा और ऐतिहासिक महत्व रखने वाली अतीत की स्मृतियों के अवशेषों और कलाकृतियों को सु‍रक्षित रखा जाता है, ताकि आने वाली पीढ़ी को पुरानी संस्‍कृति से जोड़ा जा सके. इसके लिए भारत समेत दुनियाभर में तमाम म्‍यूजियम बनाए गए हैं. इन संग्रहालय की महत्‍ता को समझाने के लिए हर साल 18 मई को अंतरराष्‍ट्रीय संग्रहालय दिवस मनाया जाता है

देश का सबसे बड़ा म्‍यूजियम कोलकाता में है. इस संग्रहालय को भारतीय संग्रहालय के नाम से जाना जाता है. भारतीय संग्रहालय का पुराना नाम इंपीरियल म्यूजियम था, बाद में बदलकर इंडियन म्यूजियम कर दिया गया. जवाहरलाल स्ट्रीट पर स्थित इस म्‍यूजियम को छह खंडों में बनाया गया है.

इस म्‍यूजियम की स्‍थापना अंग्रेजों के समय में सन 1814 ई. में की गई थी. भारत की विरासत की रक्षा के लिए इसकी  स्थापना एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल ने की थी और इसे नेथेलिन वैलीच की देख-रेख में बनाया गया था. विलियम जॉन्स ने इस संग्रहालय को बनवाने में अहम योगदान दिया था. इस म्‍यूजियम के बाद ही भारत में तमाम संग्रहालय बनने शुरू हुए.

इस संग्रहालय को छह खंडों आर्कियोलॉजी, एंथ्रोपोलॉजी, जियोलॉजी, जूलॉजी, इंडस्ट्री और आर्ट में बनाया गया है. एंथ्रोपोलॉजी सेक्‍शन में आप मोहनजोदड़ो और हड़प्पा काल की निशानियां देख सकते हैं. यहां चार हजार साल पुरानी मिस्र की ममी भी रखी है.

हिमाचल का राज्‍य संग्रहालय शिमला में एक पुरानी विक्टोरियन हेवली में बनाया गया है। यह हवेली कभी लॉर्ड विलियम बेरेस्फोर्ड का निवास स्थान हुआ करती थी, जो वायसराय लॉर्ड विलियम बेनटिक के सैन्य सचिव थे। ब्रिटिश साम्राज्य के चले जाने के बाद यह इमारत भारत के सरकारी अधिकारियों के निवास स्थान के रूप में इस्तेमाल की जाने लगी। 26 जनवरी 1974 को इस इमारत में शिमला स्टेट म्यूजिम का उद्घाटन हुआ। 

अंतर्राष्ट्रीय संग्रहालय दिवस की स्थापना 1977 में मॉस्को, रूस में ICOM महासभा के दौरान की गई थी। अंतरराष्ट्रीय म्यूजियम दिवस18 मई को सांस्कृतिक आदान-प्रदान और लोगों के बीच आपसी समझ, सहयोग और शांति के विकास के एक महत्वपूर्ण साधन के रूप में मनाने के लिए किया गया।


विवरण सभार 

रविवार, सितंबर 04, 2022

उठो, जागो और लक्ष्य की प्राप्ति तक रुको मत। --- स्वामी विवेकानन्द

0 Reviews


भारतीय इतिहास में स्वामी विवेकानन्द को एक युगपुरूष के रूप में स्मरण किया जाता है। शिक्षा और धर्म पर स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाएं हमेशा समाज को प्रेरित और प्रोत्साहित करती रही है। स्वामी विवेकानन्द के अनुसार शिक्षा का अर्थ है उस पूर्णता को व्यक्त करना जो सब मनुष्यों में पहले से विद्यमान हैं। शिक्षा का उद्देश्य तथ्यों को सीखना नहीं होता है बल्कि शिक्षा का मुख्य दिमाग को प्रशिक्षित करना होता है। हमें ऐसी शिक्षा चाहिए, जिससे चरित्र बने, मानसिक विकास हो, बुद्धि का विकास हो और मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा हो सके।

स्वामी विवेकानन्द विद्यार्थियों को हमेशा चरित्र निर्माण के लिए प्रेरित करते ही थे साथ ही उसमें नवीन विचारों और जानकारियों को जानने की जिज्ञासा भी हो । वे कहा करते थे कि एक छात्र का सबसे महत्वपूर्ण गुण यह है कि वह हमेशा अपने अध्यापक से सवाल पूछे। वे कहते थे कि प्रेरणा वह शक्ति है जो बच्चों को बाधाओं या चुनौतियों का सामना करने पर भी आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है। यह उन्हें उनकी क्षमता को पूरा करने के लिए आवश्यक ऊर्जा के साथ चार्ज करता है। एक बच्चा जो प्रेरित होता है वह प्रतिबद्ध, ऊर्जावान और अभिनव होता हैः वे जो सीख रहे हैं उसमें मूल्य देखते हैं, और अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए दृढ़ संकल्पित होते हैं।

पुस्तकों और मित्रों की महता पर वे कहा करते थे कि एक बेहतरीन किताब सौ अच्छे दोस्तों के बराबर है, लेकिन एक सर्वश्रेष्ठ दोस्त पुस्तकालय के बराबर है।

अक्सर कमजोर विद्यार्थियों से वे कहा करते थे कि सीखने से दिमाग कभी खत्म नहीं होता। जिन चीजों को करने से पहले हमें सीखना होता है, हम उन्हें करके सीखते हैं। सीखना संयोग से प्राप्त नहीं होता है, इसे लगन के साथ खोजा जाना चाहिए और परिश्रम के साथ इसमें भाग लेना चाहिए। सीखने की खूबसूरत बात यह है कि कोई भी इसे आपसे दूर नहीं ले जा सकता है। जिस अभ्यास से मनुष्य की इच्छाशक्ति, और प्रकाश संयमित होकर फलदाई बने उसी का नाम है शिक्षा।

पढ़ने के लिए जरूरी है एकाग्रता, एकाग्रता के लिए जरूरी है ध्यान, ध्यान से ही हम इन्द्रियों पर संयम रखकर एकाग्रता प्राप्त कर सकते है ज्ञान स्वयं में वर्तमान है, मनुष्य केवल उसका आविष्कार करता है

उठो और जागो और तब तक रुको नहीं जब तक कि तमु अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर लेते

स्वामी जी अपने शिष्यों से अक्सर कहा करते थे कि शिक्षा के माध्यम से मानव धर्म के मूल तत्व को समझ पाता हैं।  शैक्षिक धर्म का मूल उद्देश्य है मनुष्य को सुखी करना, किंतु परजन्म में सुखी होने के लिए इस जन्म में दुःख भोग करना कोई बुद्धिमानी का काम नहीं है। इस जन्म में ही, इसी समुचित शिक्षा प्राप्त करने से ही सुख मिलेगा। जिस धर्म के द्वारा ये संपन्न होगा, वहीं मनुष्य के लिए उपयुक्त धर्म है।



रविवार, नवंबर 03, 2013

पत्थर बरसाने का मेला

0 Reviews

21वीं सदी के इस दौर में शिमला के समीप एक ऐसा गांव है, जहां पर अभी भी पुरानी परंपरा पूरे रस्मों रिवाज के साथ निभाई जाती है। शिमला शहर से 35 किलोमीटर दूर धामी में पत्थरों के खेल का मेला होता है। दिवाली से एक दिन बाद इस मेले का आयोजन किया जाता है। दो गांव के लोगों के बीच तब तक पत्थर बरसाए जाते हैं, जब तक किसी के शरीर से खून नहीं निकल जाता। शरीर से खून निकलने के बाद राज परिवार के लोग इस खूनी खेल के खत्म होने की घोषणा करते हैं। भद्रकाली के मंदिर में खून का टीका करते हैं। एक-दूसरे पर पत्थर बरसा कर जान लेने पर उतारू लोग दो ही पल में गले मिलकर नाटी डालते हैं। खून का टीका होने के बाद दोनों गुटों के लोग आपस में गले मिलते हैं। लोगों के लिए भले ही यह मेला मनोरंजन का केंद्र रहता हो, लेकिन क्षेत्र के लोगों की आस्था मेले के इस खेल से जुड़ी हुई है। दिवाली से ठीक एक दिन बाद धामी स्थित खेल का चौरा नामक स्थान पर इस मेले का आयोजन किया जाता है। धामी क्षेत्र के दो गांव जमोगी व कटेड़ू की टोलियां मैदान के दोनों तरफ गुटों में बंट जाती हैं। मैदान के बीच में सती का शारड़ा है इसके दोनों तरफ गांव के यह लोग खड़े रहते हैं। दोनों टोलियों की तरफ से तब तक पत्थर बरसाए जाते हैं, जब तक किसी के शरीर से खून निकलना बंद नहीं हो जाता। पत्थर से घायल हुए व्यक्ति के खून से भद्रकाली के मंदिर में टीका किया जाता है।  आधुनिकता के इस दौर में लोगों में यह परंपरा खत्म होने के बजाय बढ़ रही है। दिवालीसे ठीक 11 दिन बाद कालीहट्टी नामक स्थान पर भी इसी तरह के मेले का आयोजन किया जाता है। यह जगह शिमला से 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। वहां पर भी कालीमाता का मंदिर है। दो गांव के लोग वहां पर भी आस्था के नाम पर एक-दूसरे पर पत्थर बरसाते हैं।

साभार     दिव्‍य हिमाचल 

बुधवार, सितंबर 11, 2013

मेला चार साला कुमारसैन

1 Reviews

मेला चार साला कुमारसैन क्षेत्र में बडी हर्षोउल्‍लास के साथ मनाया जाता है । इस मेले के इतिहास के बारे में बडी विडम्‍बनाएं है । माना जाता है कि 11वी शताब्‍दी में जब पूरातत्‍व विभाग द्वारा कुमारसैन क्षेत्र की खुदाई की गई तो जगह-जगह मिटटी के बतर्नो के अवशेष प्राप्‍त हुए । प्राचीन काल में जाति के अधार पर कार्य को बांटा गया था  जिसके अनुसार मिटटी के बर्तन तैयार करने वाले लोग कुम्‍हार जाति से सम्‍बंधित थे । और इसी अधार पर इस क्षेत्र में कुम्‍हार लोगों का वास था । इस जगह को कुमाहलड़ा  भी कहा जाता था । परिणामत: इस क्षेत्र का नाम कुमारसैन पड़ा ।            कुमारसैन के राजा बिहार गया से गजनबी के आतंक से भाग कर आए थे । वह कुछ समय कोढगड नामक स्‍थान पर रहे । एक बार राजा शिकार करते-करते कुमारसैन आए । उन्‍होनें यहां एक घटना देखी। उन्‍होनें देखा कि एक चूहे ने नेवले को निगल लिया । ऐसा देख राजा अचंभित था उसने अपने सलाहकार ब्राहमण से इसके बारे में पूछा और कहा इस घटना का क्‍या कारण है  । ब्राहमण ने कहा य‍ह वीर माटी के संकेत है । यह हम जैसे ब्रामणों के लिए नही बल्कि आप जैसे राज पुरूष् के लिए बहुत शूभ भूमी है । इसके पश्‍चात राजा ने याहां महल व राजगददी भवन बनाने का निर्णय लिया । इससे पूर्व यहां का राजपाठ स्‍वयं देवता श्री कोटेश्‍वर महादेव सम्‍भालते थे । इस क्षेत्र में महादेव की आज्ञानुसार सारे कार्य किए जाते थे । उसी रोज महादेव ने राजा को सपने मे दर्शन दिए और कहा कि मै तुमसे प्रसन्‍न हूं तथा वरदान मांगने को कहा यह सुनकर राजा ने महल बनाने की इच्‍छा जाहिर की । महादेव बोले तुम यहां महल बना सकते हो पर सर्वप्रथम मेरा मन्दिर तुम्‍हे स्‍थापित करना होगा । इतने मे ही राजा का स्‍वप्‍न टूट गया ।  इसके पश्‍चात राजा श्री कोटेश्‍वर महादेव के मन्दिर में महादेव की आज्ञा लेने गए । महादेव ने सपने को दौहराया और कहा  हर चार साल के बाद में कुमारसैन वासियों को दर्शन देने बाहर निकलूंगा और समय-समय से मेरी पूजा अर्चना करनी होगी । यदि तुम इन बातों पर अम्‍ल करोगें तो मेरा आर्शिवाद हमेशा तुम पर बना रहेगा । इस बात को सुनकर राजा प्रसन्‍न हुआ और उसने महादेव की इच्छानुसार सारे कार्य किए । और महल के अन्‍दर श्रीकोट मन्दिर का निर्माण किया तथा महादेव को छड के रूप में प्रतिष्‍ठीत किया गया व इसकी पूजा राजपुरोहित द्वारा की जाने लगी । आज भी राजपुरोहित द्वारा पुजे जाने की परम्‍परा विद्यमान है ।    इसके पश्‍चात हर चार साल के बाद मेले का आयोजन दरबार मैदान में किया गया । इसी परम्‍परा पर अधारित आज भी यह मेला मनाया जा रहा है । जो हर चार साल में सितम्‍बर माह में मनाया जाता है । जिसमें राजवंश के लोगों का समिलित होना आवश्‍यक होता है । तभी
महादेव श्रीकोट मन्दिर के प्रांगण से प्रथम बार बा‍हर आते है । यह मेला 7/8 दिनों में चलता है और हर एक दिन अपने आप में अनूठी भूमिका अदा करता है । हर एक दिन एक दूसरे को कडी के रूप में जोडे रखता है । लोगों की देवी परम्‍परा के प्रति आस्‍था इस मेले मे देखते ही बनती है । लोग बडी दूर-दूर से आकर इसमे भाग लेना अपना सौभाग्‍य मानते है ।
इस बारे इतिहास काफी वर्षो पूर्व श्री अमृत शर्मा ने अपनी पुस्‍तक में समाहित किया है

गुरुवार, जुलाई 04, 2013

श्रीखंड यात्रा 16 जुलाई को सिंहगाड़ (निरमंड) से

0 Reviews
जुलाई माह संक्रांति से ऐतिहासिक श्रीखंड महादेव कैलाश यात्रा शुरू हो जाएगी। इसके लिए कमेटी तथा प्रशासन ने तैयारियां शुरू कर दी हैं। 11 दिन चलने वाली इस पवित्र यात्रा का पहला जत्था 16 जुलाई को सिंहगाड़ (निरमंड) से रवाना होगा। पहले जत्थे में प्रदेश सहित छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, पंजाब, गुजरात, कर्नाटक, मध्यप्रदेश और केरल सहित कई राज्यों के एक हजार भक्त शिरकत करेंगे। जत्था सिंहगाड़ से सुबह पौ फटने पर कन्या पूजन करने के बाद आगे बढ़ेगा। संक्रांति 14 जुलाई को है श्रीखंड सेवा दल प्रबंधन कमेटी के अध्यक्ष गोविंद प्रसाद शर्मा ने बताया कि कमेटी की ओर से यात्रा के लिए सभी इंतजाम पूरे कर लिए हैं। 25 किमी की सीधी चढ़ाई वाली श्रीखंड कैलाश महादेव तक पहुंचने के लिए कमेटी ने तीन पड़ाव रखे हैं। इसमें सिंहगाड़ से थाचडू 9 किमी, थाचडू से भीमड़वार 9 किमी तथा भीमड़वार से श्रीखंड कैलाश 7 किमी की दूरी है। तीनों स्थलों पर कमेटी की ओर से ठहरने और रहने के पुख्ता प्रबंध किए;गए हैं। यहां दवाइयां आदि भी उपलब्ध रहेंगी।  उन्होंने कहा कि प्रकृति ने इस 25 किमी के दायरे में दिल खोलकर सुंदरता लुटाई है। यात्रा के दौरान भक्त प्राकृतिक शिव गुफा, देवढांक, परशुराम मंदिर, गौरा मंदिर, सिंहगाड़, भीमद्वार, फूलों की घाटी, पार्वती बाग, नैन सरोवर और महाभारत कालिंग, विशाल शिलालेक श्रद्धालुओं को दर्शन करने के लिए मिलेंगे। इसके उपरांत अंत में 18000 फुट ऊंचे पर्वत पर विराजमान भोले नाथ के श्री खंड कैलाश के दर्शन होंगे।  प्रबंधन कमेटी के अध्यक्ष गोविंद प्रसाद शर्मा ने बताया कि यात्रा की पवित्रता को ध्यान में रखते हुए नशीले पदार्थों, चमड़े के जूते और प्लास्टिक का सामान ले जाना यहां पूर्ण रूप से प्रतिबंधित है। यात्रियों की सुविधा के लिए श्रीखंड सेवा समिति की ओर से रोजाना भंडारे का आयोजन होगा। उन्होंने बताया कि यहां स्वयं भगवान शिव ने प्रार्थना की थी। श्रीखंड में ही भगवान शंकर ने भस्मासुर का वध किया था।

रविवार, मार्च 17, 2013

हाटकोटी मंदिर

0 Reviews

हिमाचल प्रदेश विधान सभा चुनाव 2012 में चुनाव डयूटी के लिए जुब्‍बल श्रेत्र में डयूटी लगाई गई तो हाटकोटी मन्दिर जाने का मोह छोड़ नहीं पाया । शिमला जिला की जुब्बल तहसील में हाटकोटी दुर्गा मंदिर स्थित है।लगभग 1370 मीटर की उंचाई पर बसा पब्बर नदी के किनारे हाटकोटी में महिषासुर र्मदिनी का पुरातन मंदिर हे। जिसमें वास्तुकला, शिल्पकला के उत्कृष्ठ नमूनों के साक्षात दर्शन होते हैं। कहते हैं कि यह मंदिर 10वीं शताब्दी के आस-पास बना है। इसमें महिषासुर र्मदिनी की दो मीटर ऊंची कांस्य की प्रतिमा है तोरण सहित है। इसके साथ ही शिव मंदिर है जहां पत्थर पर बना प्राचीन शिवलिंग है। द्वार को कलात्मक पत्थरों से सुसज्जित किया गया है। छत लकड़ी से र्निमित है, जिस पर देवी देवताओं की अनुकृतियों बनाई गई हैं। मंदिर के गर्भगृह में लक्ष्मी, विष्णु, दुर्गा, गणेश आदि की प्रतिमाएं हैं। इसके अतिरिक्त यहां मंदिर के प्रांगण में देवताओं की छोटी-छोटी मूर्तियां हैं। बताया जाता है कि इनका निर्माण पांडवों ने करवाया था। हाटकोटी मंदिर के चारों ओर का असीम सौंदर्य सैलानियों के मन को बहुत भाता है। हाटकोटी मंदिर में स्थापित महिषासुरमर्दिनी की मूर्ति लोकमानस में दुर्गा रूप में पूजित है। आठवीं शताब्दी में बना यह मंदिर स्थापत्य कला की दृष्टि से शिखर और पैगोडानुमा शिल्प की अमूल्य कृति है। वर्तमान में यह मंदिर दो छतरी के पैगोडा और शिखर शैली के मिश्रित रूप में बना है। शिखर पर सज्जे आमलक के ऊपर स्वर्ण कलश सुशोभित हैं। इस मंदिर का शेष शीर्ष भाग पत्थर की स्लेट की ढलानदार छत से आच्छादित है। हाटकोटी मंदिर दुर्गा के गर्भगृह में महिषासुरमर्दिनी की तोरण से विभूषित आदमकद कांस्य प्रतिमा गहरी लोक आस्था का प्रतीक है। महिष नाम के दानव का मर्दन करती दर्शाई गई दुर्गा की यह प्रतिमा सौम्यभाव की अभिव्यक्ति देती है। यहां मंदिर के प्रवेश द्वार पर बाईं ओर लोहे की जंजीरों में बंधा एक विशालकाय ताम्र घट भगवती दुर्गा के द्वारपाल होने का प्रमाण पुख्ता करता है। जनश्रुति है कि इस मंदिर के प्रवेश द्वार पर दोनों ओर वृहदाकार ताम्र कुंभ स्थापित थे। जब श्रावण मास में पब्बर खड्ड उफान पर होती थी

तो यह दोनों घट लोहे की जंजीरों से मुक्ति पाने के लिए छटपटाहट में जोरदार सीटियों को मारने वाली आवाज जैसा वातावरण बना देते थे। जिससे यह स्पष्ट होता था कि दोनों घट अथाह जलवेग में वह जाने के लिए तत्पर रहते थे। यह भी लोक मान्यता है कि भगवती मूलतः रोहडू खशधार की माटी से उद्भासित होकर प्रबल जलवेग के साथ बहती हुई हाटकोटी के समतल भूभाग पर रूक गईं । 
 आज भी यह लोक आस्था है कि जब-जब खशधार के नाले का बढ़ता जल वेग पब्बर नदी में शामिल होता है तब-तब हाटकोटी मंदिर में कुंभीय गर्जना अधिक भयंकर हो जाती है। कहा जाता है कि खशधार की दुर्गा के पब्बर नदी में प्रवाहित हुए अवशेषों की स्मृति में कुंभ विकराल रूंदन करते सुनाई देता है। मान्‍यता है कि हाटकोटी मंदिर की परीधि के  ग्रामों में जब कोई विशाल उत्सव,यज्ञ,शादी आदि का आयोजन किया जाता था तो हाटकोटी से चरू ला कर उसमें भोजन रखा जाता था। चरू में रखा भोजन बार-बार बांटने पर भी समाप्त नहीं होता था। यह सब दैविक कृपा का प्रसाद माना जाता था। चरू को अत्यंत पवित्रता के साथ रखा जाना आवश्यक होता था अन्यथा परिणाम उलटा हो जाता था। लोक मानस में चरू को भी देवी का बिंब माना जाता रहा है। शास्त्रीय दृष्टि से चरू को हवन या यज्ञ का अन्न भी कहा जाता है। हाटकोटी मंदिर में दुर्गा मंदिर के साथ शिखरनुमा शैली में बना शिव मंदिर है। इस मंदिर का द्वार शांत मुखमुद्रा में अष्टभुज नटराज शिव से सुसज्जित है। शिव मंदिर के गर्भगृह में प्रस्तर शिल्प में निर्मित शिवलिंग,दुर्गा,गरूड़ासीन लक्ष्मी-विष्णु,गणेश आदि की प्रतिमाएं है। इस मंदिर का द्वार मुख तथा बाह्यप्रस्तर दीवारें कीर्तिमुख, पूर्णघट,कमल और हंस की नक्काशी के साथ अलंकृत है। नागर शैली में बने अन्य पांच छोटे-छोटे मंदिर प्रस्तर शिल्प के जीवन अलंकरण को प्रस्तुत करते हैं। इस पावन धारा पर संजोए पुरावशेष और प्रस्तर पर उर्त्कीण देवी-देवताओं की भाव-भंगिमाएं देवभूमि पर शैव-शाक्त संप्रदायों के प्रबल प्रभाव के उद्बोधक हैं। हाटकोटी दुर्गा का मान्यता क्षेत्र व्यापक है। पर्वतीय क्षेत्रों में शाक्त धर्म का सर्वाधिक प्रभाव दुर्गा रूप में ही देखा जाता है। हाटकोटी मंदिर के दैनिक पूजा विधान में प्रतिदिन ब्रह्ममुहूर्त में भगवती का स्तुति गान स्थानीय बोली में किया जाता है।  प्रात:कालीन पूजा को ढोल-नगाड़ों की देव धुन पर किया जाता है। इसे लोक मानस में प्रबाद कहा जाता है। सूर्योदय के साथ -साथ एक बार फिर पूजा की जाती है। इसके बाद दोपहर तथा सांझ होते ही पूजा-अर्चना करने का विधान है। सांयकालीन पूजा को सदीवा कहते है। रात्रिकालीन  में मां दुर्गा के शयन पर नब्द बजाई जाती है। यहां प्रत्येक पूजा वाद्य यंत्रों की लय और ताल पर की जाती है। हाटकोटी मंदिर शिमला- रोहडू मार्ग पर  है। हाटकोटी मंदिर शिमला से 100 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। 
आभार उत्‍तम चन्‍द प्रवक्‍ता रोहड़ू

शुक्रवार, जनवरी 11, 2013

स्वामी विवेकानन्द की 150वीं जयंती

0 Reviews


12 जनवरी, 2013 को स्वामी विवेकानन्द की 150वीं जयंती है।विवेकानंद  का जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता में हुआ था। जन्म के समय उनका नाम नरेन्द्रनाथ दत्त रखा गया। आगे चल कर नरेन्द्रनाथ को उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस ने सन्यासी होने की दीक्षा दी।  सन्यासी अपना सब कुछ त्याग देता है इसलिए नरेन्द्रनाथ ने अपने नाम को भी त्याग दिया और  नाम धारण कर लिया: स्वामी विवेकानंद। स्वामी विवेकानंद भारतीय अध्यात्म और दर्शन में एक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति रहे हैं। उन्होनें पश्चिमी देशों का वेदांत और योग दर्शन से परिचय कराया। स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने अपने शिष्य को सिखाया कि सभी धर्म सच्चे हैं और एक ही लक्ष्य की ओर जाने वाले अलग-अलग मार्गों की तरह हैं। इस विश्व में सभी कुछ ईश्वर है और ईश्वर के सिवा यहाँ कुछ भी नहीं है। इस दर्शन को अद्वैत वेदांत कहा जाता है। स्वामी विवेकानंद 1893 में हुई उक्त धर्म संसद में भाग लेने के लिए शिकागो गए। वहाँ इस भारतीय सन्यासी ने सभी का मन बिना प्रयत्न के ही जीत लिया। भारत वापस आने के बाद, 1897 में, उन्होनें रामकृष्ण मिशन नामक एक आध्यात्मिक और लोकहितैषी संस्था की नींव रखी।   भारत में स्वामी विवेकानंद के जन्मदिवस (12 जनवरी) को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है
जीवन में  मनुष्य तभी तक महत्वपूर्ण बना रहता है,जब तक वह अपने लक्ष्य के प्रति कार्यशील रहता है। उदेश्यहीन व्यक्ति को समाज ही नहीं बल्कि प्रकृति भी त्याग देती है। संपूर्ण विश्व में महान लोगों की पहचान भी उनके द्वारा मानव विकास के लिए किए गए योगदान व बलिदान के कारण की हुई है। मानवीय चेतना को उत्कृष्ट बनाने में स्वामी विवेकानंद का अतुलनीय योगदान है। इसी कारण,वह करोड़ों भारतीयों के आदर्श बने और पूरी दुनिया के सामने देश की समृद्ध संस्कृति को रखा। वर्तमान विसंगतियों को दूर करने में स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाएं आज भी सक्षम हैं। उनके शाश्वत विचारों के जरिए सामाजिक समस्याओं को बड़े हद तक हल किया जा सकता है।
  स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि  ‘‘मेरा विश्वास आधुनिक युवा पीढ़ी में है। उनमें से मेरे कार्यकर्ता आएंगे और सिंह के समान पुरुषार्थ कर सभी समस्याओं का समाधान करेंगे।’’ 
  समाज के अग्रणी और प्रबुद्ध वर्ग पर राष्ट्र निर्माण का दायित्व होता है ।
स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि ‘‘याद रखो कि राष्ट्र गरीब की झोपड़ी में बसता है, राष्ट्र का भवितव्य जनसामान्य की दशा पर निर्भर करता है। क्या तुम उन्हें ऊपर उठा सकते हो। उनके आंतरिक आध्यात्मिक सत्व को नष्ट किए बिना क्या तुम उन्हे अपना खोया परिचय वापस दिला सकते हो।’’ स्वामी जी की नजर में ग्राम्य जीवन ही भारत और भारतीयता का आधार है। भारत के उत्थान के लिए ग्रामीणों का आत्मविश्वास बढ़ाने तथा ग्राम जीवन को सशक्त बनाने की आवष्यकता है।
स्वामी जी का मत था कि  हिन्दू महिलाएं अत्यंत आध्यात्मिक और धार्मिक होती हैं। यदि हम इन गुणों का संवर्धन करते हुए जीवन के सभी क्षेत्रों में महिलाओं के सहभाग को विकसित करते हैं तो भविष्य की हिन्दू महिलाएं सभी क्षेत्रों में नए विकास के नए मानक गढ़ सकते हैं।
 स्वामी जी मतांतरण के प्रबल विरोधी थे। उन्होंने एक जगह पूछा है ईसाई मिशनरियों से पूछा है कि -क्या हमने कभी मत परिवर्तन के लिए एक भी धर्म प्रचारक दुनिया में भेजा है’’। अस्मिता के जरिए जनजातियों के आत्मबल को बढ़ाने का प्रयास  किया जाएगा। इसके जरिएआना चाहिए। 
 तो मैं भविष्य में देखता हूं और न ही भविष्य की चिंता करता हूं। किन्तु एक दृश्य मेरे सम्मुख जीवंत स्पष्टता से दिखाई देता है कि हमारी यह प्राचीन भारत माता पुनः एक बार जागृत हो चुकी है और अपने सिंहासन पर पूर्व से भी अधिक आलोक के साथ विराजमान है। आइए! शान्ति एवं मंगल वचनों से पूरे विश्व के सम्मुख इसकी उद्घोषणा करें।
स्वामी जी ने प्राचीन शास्त्रों की पुनर्व्याख्या कर,निराशा, कुंठा, ईर्ष्या के भ्रमजाल में फंसी मानवता को एक नया जीवनपथ दिखाया। आध्यात्मिक उन्नति के लिए देश की समृद्धि आवश्यक है। उन्होंने आध्यात्मिकता को संसार विरोधी बताने वाली मान्यताओं का खंडन और विरोध किया।
स्वामी जी के संपूर्ण चिंतन के केंद्र में मानव है। उन्होंने लिखा है-मानव सभ्यता के गौरव को कभी न भूलो। प्रत्येक व्यक्ति धोषणा करे कि मैं ही परमेश्वर हूं, क्राइस्ट व बुद्ध उस असीम महासागर की तरंगें मात्र हैं, जो मैं हूं। लेकिन विश्व की बात करते हुए भी भारतीयता के प्रति आग्रही हैं। उन्होंने कहा है कि आज जिस बात की सर्वाधिक आवश्यकता है वह हैं, चरित्रवान स्त्री पुरुष। किसी भी राष्ट्र का विकास और उसकी सुरक्षा, उसके चरित्रवान नागरिकों पर निर्भर है। मूर्ख, दरिद्र, ब्राह्मण और चाण्डाल सभी भारतवासी मेरे भाई हैं। भारत के दीनदुखियों के साथ खड़े होकर गर्व से पुकारो कि प्रत्येक भारतवासी मेरा भाई है, भारत का समाज मेरे बचपन का झूला, जवानी की फुलवारी और बुढ़ापे की काशी है। भाई! कहो कि भारत की मिट्टी मेरा स्वर्ग है, भारत के कल्याण में मेरा कल्याण है।
स्वामी विवेकानंद शैक्षिक पाठ्यक्रम में आध्यात्मिकता के साथ विज्ञान व तकनीकि शिक्षा के  पक्षधर थे। उनके अनुसार विज्ञान के विकास ने मानव को कई कष्टों से मुक्ति दिलाई है, जीवन को सुख सुविधाओं से परिपूर्ण किया है। लेकिन वेदांत के अभाव में यही विज्ञान विनाशकारी बन सकता है, स्वार्थ एवं शोषण को बढ़ाने में सहायक हो सकता है। उनकी सबसे बड़ी चिंता यही थी कि वर्तमान शिक्षा केवल नौकरी योग्य ही बनाती है। उनके अनुसार शैक्षिक पाठ्यक्रम में विज्ञान, तकनीकि व औद्योगिक शिक्षा को महत्वपूर्ण स्थान मिलना चाहिए, परंतु  कला शिक्षा की उपेक्षा करके नहीं। कला शिक्षा भी हमारे समाज का एक अभिन्न अंग है।
वर्तमान में  भले ही विज्ञान तकनीकि के क्षेत्र में ाफी प्रगति हुई है, लेकिन गरीबी, अशिक्षा जैसी समस्याएं आज भी हमारे समाज में मौजूद है। देश की लगभग 35 फीसदी से ज्‍यादा आबादी निरक्षर, कुपोषित,बेघर व फु टपाथों तथा झुग्गी-झोंपडि़यों में जीने को विवश है। इसका कारण विज्ञान व तकनीकि नहीं,बल्कि मनुष्य में व्यावहारिक, आध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्यों का वैज्ञानिक शक्तियों के साथ समन्वय न होना है। इसी समन्वय के अभाव में विज्ञान, तकनीकि व औद्योगिक विकास का लाभ गरीब, ग्रामीण व आम लोगों तक नहीं पहुंच पाया है। ऐसे में विज्ञान व व्यक्ति विकास के विभिन्न पहलुओं में समन्वय बिठाने की आवश्यकता है।  देश की वर्तमान सामाजिक, आर्थिक व शैक्षिक स्थिति को देखते हुए स्वामी विवेकानंद के विचारों को अपनाने के लिए गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है ताकि भारत अपने खोए हुए ताज विश्वगुरु को हासिल कर सके।
11 सितम्बर को “विश्व भाईचारा दिवस मनाया जाता है। इसी दिन स्वामी विवेकानंद ने शिकागो धर्म संसद में अपना भाषण दिया था।  भारत में स्वामी विवेकानंद के जन्मदिवस (12 जनवरी) को राष्ट्रीय युवा दिवस के      रूप में मनाया जाता है कन्याकुमारी विवेकानंद रॉक मेमोरियल बनाने का काम स्वामी विवेकानंद की जन्मशती के उपलक्ष्य में 1963 में शुरु हुआ था। यह मेमोरियल भारत भूमि के सुदूरतम दक्षिणी बिंदू से 500 मीटर आगे समुद्र के बीच बना है। इसे बनाने में सात वर्ष का समय लगा था।इस मेमोरियल को बनाने के राष्ट्रीय प्रयास में करीब तीस लाख लोगों ने आर्थिक सहायता दी। इन सभी व्यक्तियों ने कम से कम एक-एक रुपए का योगदान दिया।स्वामी विवेकानंद पहले भारतीय थे जिन्हे हार्वर्ड विश्वविद्यालय में ओरियेंटल फ़िलॉसफ़ी चेयर स्वीकारने के लिए आमंत्रित किया गया था।स्वामी विवेकानंद एक अच्छे कवि और गायक भी थे। उनकी सबसे पसंदीदा स्वरचित कविता का शीर्षककाली द मदर है। स्वामी विवेकानंद ने भविष्यवाणी की थी कि वे 40 वर्ष की आयु प्राप्त नहीं कर सकेंगे। उनकी यह बात तब सच साबित हो गई जब 4 जुलाई 1902 को उनकी मृत्यु 39 वर्ष की उम्र में ही हो गई। उन्होने समाधि की अवस्था में अपने प्राण त्यागे !



मंगलवार, जनवरी 08, 2013

गंभरी देवी की आवाज सदा के लिए खामोश हो गई

0 Reviews

gambhari
 हिमाचल कोकिला  गंभरी देवी की मनमोहक आवाज सदा के लिए खामोश हो गई खाणा पीणा नंद लैणी ओ गंभरिए, खट्टे नी खाणे मीठे नी खाणे, खाणे बागे रे केले ओ...।
जिंदगी को इसी खुशनुमा अंदाज में जीते हुए  गंभरी देवी की आज आवाज सदा के लिए खामोश हो गई। संस्कृति एवं कला के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य के लिए टेगोर अवार्ड से सम्‍मानित बिलासपुर की गंभरी देवी का निधन हो गया है। उनकी मृत्यु का संस्कृति
एवं लोक कला के क्षेत्र से जुडे़ लोगों के लिए यह बड़ी क्षति मानी जा रहा है। आज प्रात:  गंभरी ने अपने पैतृक गांव डमेहर में अंतिम सांस ली। आज ही उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया। उनके बडे़ बेटे मेहर सिंह ने उन्हें आग लगाई।  गंभरी देवी हिमाचल ही नहीं बल्कि उत्तर भारत में अपनी कला का लोहा मनवा चुकी है। अपने मशहूर गीतों को जहां उन्होंने सुरीली आवाज दी वहीं उनके नृत्य का अंदाज भी कम नहीं था। बिलासपुर जिले की बंदला धार पर स्थित गांव बंदला में करीब 90 वर्ष पूर्व गरदितु और संती देवी के घर जन्मी गंभरी किशोरावस्था से ही कला के बुलंदियों पर पहुंची। अनपढ़ होते हुए भी अपने गीत खुद बनाए। आवाज दी और नृत्य कर उसे और आकर्षक बनाया। गंभरी देवी को अखिल भरतीय साहित्य एवं कला अकादमी दिल्ली की ओर से सम्मानित किया जा चुका है। स्वास्थ्य ठीक न होने की वजह से वह वहां नहीं जा पाई थी लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल ने इसी वर्ष 15 अगस्त को कुल्लू में आयोजित राज्य स्तरीय कार्यक्रम में उन्हें यह सम्मान दिया। उन्हें टेगोर अवार्ड से भी नवाजा गया। गंभरी देवी ने जालंधर दूरदर्शन में भी अनेक कार्यक्रम दिए। वहां सैनिकों के लिए भी उन्होंने कई कार्यक्रम पेश किए
 
ब्लोगवाणी ! INDIBLOGGER ! BLOGCATALOG ! हिंदी लोक ! NetworkedBlogs ! हिमधारा ! ऐसी वाणी बोलिए ! ब्लोगर्स ट्रिक्स !

© : आधारशिला ! THEME: Revolution Two Church theme BY : Brian Gardner Blog Skins ! POWERED BY : blogger