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शनिवार, नवंबर 04, 2023

रेडियो भूली बिसरी स्मृतियां

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ये आकाशवाणी है..........।  

रेडियो पर ये उद्‌घोषणा सुनते ही एक अजब

अनुभूति का आभास होता है।  जैसे आकाश से वाणी सुनाई दे रही हो। आकाशवाणी से ये  शब्द सुनते ही रोमान्‍च  हो उठता है अनेक जिज्ञासाएं कौंध जाती है।  छोटे से उपकरण रेडियों के माध्यम संवाद, समाचार संगीत और भी बहुत कुछ का प्रसारण हमेशा ही उद्वेलित करता रहा है। कैसे होते है वे लोग जो आवाज के माध्यम से हमारे दिलों में कहीं गहरे उतर जाते है और हृदय में जगह बना लेते हैं।

भारत में आकाशवाणी की स्थापना की बात करें तो 23 जुलाई 1997 को यात्रा भारतीय प्रसारण सेवा कलकता और मुब्‍बई से आरम्भ हुई। 1936 में ऑल इंडिया रेडियों तो 1957 में आकाशवाणी हो गया। मैं याद कर रहा आकाशवाणी शिमला को जिससे मेरा जुड़ाव एक लम्बे समय तक केजुअल उद्‌घोषक और केजुअल सामाचार वाचक के रूप में रहा। उससे पूर्व युववाणी कार्यक्रम के कम्‍पेयरर  के रूप में सम्बंध रहा । आकाशवाणी
शिमला की शुरूआत
16 जून 1955 को हुई । ज्यों ज्‍यों यादों के पन्ने पलटता हूं तो बाल्यकाल की कुछ धुंधली स्मृतियां सामने आती है। परिवार में रेडियों होना सम्मान की बात होती थी । उस समय रेडियो रखने के लिए 
लाईसेंस लेना पड़ता था और डाकघर में सालना फीस जमा करवानी होती थी । 

रेडियो प्रतिदिन विशेष कर प्रातःकाल और शाम को अवश्य सुना जाता ।  सुबह सुबह धार्मिक भजनों के लिए तो शाम समाचारों के लिए । याद आता है कि मेरे बाल्‍य काल मे  प्रादेशिक समाचारों में राम कुमार काले की

प्रमुख आवाज थी। उनकी बुलन्द आवाज और उच्चारण आज भी श्रोता याद करते है। उनको सुनते तो जिज्ञासा होती कि  काले साहब कैसे होंगे ।   ज़रूर रोबिला और लम्बी हटीकट्टी कद काठी के रहे होंगे। बहुत बाद में जब मेरा आकाशवाणी आना जाना हुआ तो पता चला कि वे बेहद सहृदय और साधारण कदकाठी के थे। मां बताती थी कि अपने बाल्यकाल में अकसर मैं उनकी  नकल कर समाचार पढ़ने का प्रयास किया करता था ।

स्‍थान परिवर्तन हुआ। 1977 में ठियोग से ढली शिमला आ गए और तो दसवीं कक्षा के लिए मशोबरा गए। उस समय एक कार्यक्रम आता था विद्यार्थियों के लिए। आकाशवाणी की टीम स्कूलों में जाकर रिकार्डिंग किया करती थी। ये 1979-80 की बात है हमारे स्कूल में भी आकाशवाणी की टीम रिकॉर्डिंग के लिए आई थी। कई बच्चों की स्वर परीक्षा प्रस्तुति कम्पेयरर  ली गई परन्तु टीम की प्रभारी नलिनी कपूर को कोई आवाज पसंद ही नहीं आई। विद्यालय के एनडीएसआई सर जोगेन्‍द्र  धोलटा ने मेरा नाम सुझाया तो कम्पेयरर के रूप में मेरा चयन हो गया और मेरे साथ चयनित हुई रीता श्रीवास्तव नाम की सहपाठी । सम्भवतः शनिवार साढ़े 12 बजे ये कार्यक्रम प्रसारित हुआ।  विद्यालय में ही रेडियो का प्रबंध हुआ। पहली बार आकाशवाणी के माध्यम से अपनी आवाज़ को सुना । सच मानिए बेहद रौमांच और गौरव के क्षण थे मेरे लिए। दसवीं के बाद संजौली कालेज से बीए किया और फिर विश्वाविद्यालय पहुंच गए। इस मध्य युववाणी कार्यक्रम के प्रस्तुत करने का अवसर मिला। युववाणी के बाद उद्‌घोषक के लिए चयन हुआ तो प्रशिक्षण कार्यक्रम भी आयोजित  हुआ। दीपक भण्डारी, बी.आर. मैहता, अच्छर सिंह परमार, शान्ता वालिया उस समय उदघोषणाओं में प्रमुख नाम थे। प्रशिक्षण के दौरान इन सभी से प्रत्यक्ष मुलाकात हो पाई। मैं दीपक भण्डारी से अधिक प्रभावित रहा। प्रशिक्षण के बाद हमारी उदघोषणाओं के लिए डयूटी लगनी आरम्भ हो गई। प्राय: शनिवार की रात और रविवार की सुबह की सभा में ड्यूटी लगती।

उद‌घोषकों की अगर बात करें तो दीपक भण्डारी एक ऐसा नाम है जिन्होने एक लम्बे समय तक आकाशवाणी शिमला में उ‌दघोषक के पद पर कार्य किया उनका व्यक्तित्व बेहद आकर्षक था।  मैंने उनको सदा ही कुर्ता, चुड़ीदार पायजामा और जैकेट में ही देखा । ये परिधान उन पर  बेहद भाता भी था।  भंडारी जी का व्‍यवहार बेहद ही मृदुभाषी और सरल था वे उदघोषकों को सदा ही  प्रोत्साहित करते और उच्चारण पर ज्यादा मेहनत करने पर बल देते। केजुअल उद्‌घोषक सदैव ही उनसे प्रसारण की बारीकियां सीखते थे। वास्तव में दीपक भण्डारी प्रेरक व्‍यक्तिव थे । 

अच्‍छर सिंह परमार उदघोषक होने के साथ साथ संगीत प्रेमी और गायन भी थे। उनका नए कलाकारों से हमेशा ही सौहार्द पूर्ण सम्‍बध रहे है नए कलाकार परमार से प्रसारण की बारिकीयां सीखते रहे है। परमार जी  गायन में विशेष रुचि रखते थे। उनकी गायन जोड़ी ज्‍वाला प्रसाद शर्मा के साथ प्रसिद्ध थी। उनका  गाया गीत  पैहर सबैला री नी गई री बहुए अड़ीए  दिन चड़ने जो आया  प्रसिद्ध है जो आज भी भी बहुत शौक से सुना और गाया जाता है। अच्‍छर  सिंह परमार मन्डयाली कार्यक्रम में भी बेहद रुचि रखते थे। 

बी.आर.मैहता की भारी और दमदार आवाज़  श्रोताओं को बेहद प्रभावित करती थी। श्रोता उनसे आकर्षित रहा करते थे। नाटकों में भी विशेष रूचि रहती थी । बी. आर.मेहता हमेशा ही आवाज़  के मोडूलेशन पर ज्यादा जोर देते थे। उनका मानना था कि इस माध्यम से श्रोताओं से असरदार संवाद स्थापित हो पाता है।  उस समय नियमित उदघोषकों के अलावा  शैल पंडित,  दीपक शर्मा, जवाहर कौल, नरेंद्र कंवर केजुअल उदघोषक हुआ करते थे।  वर्तमान में डॉ. हुकुम शर्मा और सपना ठाकुार नियमित उदघोषक के रूप में कार्यरत है जो श्रोताओं को अपनी प्रस्‍तुतियों से प्रभावित कर रहे हैं।  

आकाशवाणी पारिश्रमिक भी देती थी।  सांयकालीन ड्यूटी के दौरान कार्यक्रम गीत पहाड़ा रे प्रस्तुत करने में मुझे आनन्द आता था। फरमाईशी कार्यक्रम था तो श्रोताओं की फरमाइश पर पहाड़ी गीत प्रसारित किए जाते । अपने मित्रों के नाम भी इसमें अक्सर ले लिया करता था। कुछ समय बाद दोपहर की सभा संचालित करने लगा। सैनिकों के लिए कार्यक्रम में फिल्मी गीत बजाए जाते। रविवार को सैनिकों के लिए फरमाईशी कार्यक्रम होता था। इस कार्यक्रम को प्रसारित करने में मुझे आनन्‍द की अनुभूति होती। 

आकाशवाणी शिमला के प्रादेशिक समाचार सबसे ज्यादा सुना जाने वाला कार्यक्रम है।  समाचार एकांश में जी.सी.पठानिया, बी.के.ठुकराल सम्पादन कक्ष में कार्यरत थे जबकि  हंसा गौतम निममित समाचार वाचक थी। कुछ समय बाद शान्ता वालिया ने भी नियमित समाचार वाचन में नियुक्ति पाई थी।

1990-1991 के आसपास केजुअल प्रादेशिक समाचार वाचक के रूप में मेरा चयन हो ग‌या । प्रशिक्षण कार्यक्रम राष्ट्रीय समाचार वाचक कृष्ण कुमार भार्गव के सानिध्य में पूरा किया। उस समय समाचार एकांश में हंसा गौतम और शांता वालिया प्रमुख आवाज़ थी। हँसा गौतम आकर्षक व्यक्तित्व और शानदार आवाज की मालिक थी। उनका वाचन हमेशा दोष रहित रहता था। वे नए केजुअल समाचार वाचकों को उच्चारण पर ध्यान देने के लिए सदैव प्रेरित करती थी।  हंसा गौतम का मृदु भाषी होना सभी को बेहद प्रभावित करता
था।  शांता वालिया आकर्षक कदकाठी की थी और उनको हमेशा साड़ी में ही देखा । उनका रोबिले अंदाज में चलना उनके व्‍यक्तिव को शानदार बनाता था। वे नए कलाकारों को हमेशा ही प्रोत्‍साहित करती थी । केजुअल समाचार वाचकों में दीपक शर्मा जवाहर कौल अनुराग पराशर

भूपेंद्र शर्मा, डीडी. शर्मा, मुकेश राजपूत, रोशन जसवाल और दो एक महिला वाचक भी उस समय सक्रिय थे। जबकि वर्तमान समय में राकेश शर्मा,प्रभा शर्मा और राजकुमारी शर्मा सक्रिय है जिन्‍होने अपनी पहचान बनाई है। समाचारों में प्रारम्भ में पांच मिनट का बुलेटिन दिया जाता था। बाद में मुख्य बुलेटिन शाम सात बज कर 50 मिनट वाला पढ़ने को दिया जाने लगा। जिसे लम्बे समय तक निभाया। समाचार वाचन ने उस समय मुझे एक अलग पहचान दी  । समाचार वाचन की मेरी यात्रा फरवरी 2010 तक चली उसके बाद व्यक्तिगत कारणों से मैं इसे नियमित नहीं कर पाया।

आकाशवाणी शिमला को जब जब याद करता हूँ तो बहुत सी आवाजें और वरिष्‍ठ सहयोगी  याद आते है जिन्‍होने श्रोताओं के मानस पटल  पर अपनी आवाज के दम पर अपना नाम बनाया । कृष्‍ण कालिया का नाम उन लोगों में लिया जाता है जिन्‍होने आकाशवाणी शिमला की स्‍थापना से कार्य किया। वे शिव शरण सिंह ठाकुर को याद करते हुए बताते है कि उनको आकाशवाणी में 
लाने का श्रेय ठाकुर जी को जाता है। कृष्‍ण कालिया अक्‍सर पुराने समय को याद करते थे । 
इन्‍ही लोगों में शान्‍ति स्‍वरूप गौतम का नाम भी अदब के साथ लिया जाता है। लता वर्मा बच्‍चों के कार्यक्रम प्रस्‍तुत किया करती थी कला बोबो और लता बोबो को आज भी श्रोता याद करते है।

प्रादेशिक समाचार के बाद सुने जाने वाले कार्यक्रम विभिन्‍न बोलियों के कार्यक्रम थे। बोलियों के कार्यक्रमों में मुझे शांति स्‍वरूप गौतम, कृष्‍ण कालिया, अमर सिंह चौहान, अश्विनी गर्ग, ओंकार लाल भारद्वाज चंगर याद आते है।  ओंकार लाल भारद्वाज रिड़कू राम के नाम से श्रोताओं में प्रसिद्ध थे। चंगर उनका लेखकीय नाम था वे कांगड़ी बोली में कविताएं गीत नाटक  लिखा करते थे। 

आकाशवाणी शिमला में तैयार किए जाने वाले नाटकों ने राष्‍ट्रीय स्‍तर पर प्रशंसा प्राप्‍त की है। नाटकों और बच्चों के कार्यक्रम में मुझे अनूप महाजन, राज कुमार शर्मा, गुरमीत रामल मीत, इन्द्रजीत दुग्गल, देवेन्द्र महेन्द्रु, रविश्री बाला  स्मरण होते है जो हमेशा ही प्रेरक रहे और सीखने सीखाने की परम्परा के पक्षधर रहे।

इस केन्‍द्र ने संगीत के क्षेत्र  में देश में विशेष सम्‍मान हासिल किया है। संगीत के कार्यक्रमों में एस शशि, बी.डी. काले, भीमसेन शर्मा, सोमदत बटु, रामस्वरूप शांडिल, जीत राम, शिवशरण ठाकुर, एस. एस. एस.ठाकुर, सुन्दर लाल गन्धर्व, लेख राम गन्धर्व, श्रीराम शर्मा, शंकर लाल शर्मा, कति राम के एल सहगल  त्रिलोक सिंह ज्वाला प्रसाद याद आते है जो श्रोताओं के हृदय में आज भी उपस्थित है। कला ठाकुर  लता वर्मा हीरा
नेगी
, कृष्ण सिंह ठाकुर, रोशनी देवी. कुछ ऐसे नाम है जो संगीत,प्रसारण, प्रोग्राम प्रोडक्शन आदि अनेक कार्यक्रमों में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने में सफल हो पाए थे ।

आपका पत्र मिला, कृषि जगत, बाल गोपाल, वनिता मण्डल, शिखरों के आसपास, अमरवाणी, सैलानियों के लिए, धारा रे गीत, और बोलियों के कार्यक्रम ज्‍यादा सुने जाने वाले कार्यक्रमों में रहे है। कला ठाकुर और हीरा नेगी ने विभिन्‍न कार्यक्रमों में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभार्इ। कला ठाकुर जानकी के नाम से कार्यक्रम प्रस्‍तुत करती थी उनके फैन उनसे मिलने आते तो जानकी को ही पूछा करते थे। अनेक ऐसे कलाकार है जो अपनी योग्‍यता के कारण हमेशा स्‍मृति पटल पर अंकित है।

आकाशवाणी शिमला को जब भी याद करता हूँ तो ड्यूटी रूम, लेखा संकाय, कंटीन और गेस्‍ट रूम याद आते । गेस्‍ट रूम में उदघोषणाओं की क्रास डयूटी के दौरान सोया

हूं । ड्यूटी रूम में ज्ञान जी, अभय जी और निराला जी याद आते है। अभय जी पढ़ाई में बेहद मेहनती थे। मित्रवत स्वभाव के अभय अक्सर केजुअल को पढ़ाई और प्रतियोगी परीक्षाओं की जानकारी देते और प्रेरित करते। प्राय उन्हे प्रतियोगी पुस्तकों के साथ देखता था । बाद में उनका चयन प्रशासनिक सेवाओं में हो गया था। लेखा संकाय से चैक मिला करते थे जो अब भी मुझे उद्वेलित करते हैं। लेखा संकाय में सुशील जी स्मरण हो आते हैं। खैर ..…... ।मुझे मालूम है कि कुछ नाम अवश्‍य ही छूट गए होंगे। पाठक इसे अन्‍यथा नहीं लेंगे और इसकी जानकारी मुझे दे कर प्रोत्‍साहित करेंगे ।

एफएम के आने से प्रायमरी प्रसारण का सुना जाना जरूर कम हुआ है लेकिन प्रायमरी चैनल के प्रसारणों में लोग आज भी रूचि रखते है।

मैं आज भी गांव की ऊंची पहाड़ी पर से रेडियो पर बज रहा पहाड़ी गीतों के कार्यक्रम में  गीत सुनता हूं,  तेरी परांउठी लागा रेडिया ......  और मैं सदा ही आश्‍वसत हूं कि रेडियों जनमानस की आवाज़ रहेगा और एक  आकर्षण भी ।

 

* रौशन जसवाल विक्षिप्‍त



रविवार, मार्च 19, 2023

शिमला मैं तुम्हे याद करता हूँ।

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शिमला


मैं तुम्हे याद करता हूँ। बचपन यही तो बिता है। मटरगश्ती भी तो यही की है। ढली उस समय मिडल स्कूल होता था। मशोबरा से दसवीं पास करने के बाद संजौली कॉलेज में दाखिला लिया तो मानो आसमान मिल गया। कक्षाएं लगाने के बाद रिज पर जाना लोगो को देखना गप्पे लगाना हमेशा याद आता है। संजौली में कलकत्ता टी स्टॉल के परांठे हमेशा याद आते है। हाँ खाली समय मे सेंट बीड्स की तरफ चक्कर लगाना भी याद है।

स्नातक होने के बाद विश्वविद्यालय में प्रवेश ने नए आयाम दिए। कभी कभी ढली से समरहिल तक पैदल पहुंचना याद है। रिज पर लवीना में सॉफ्टी का आनंद मैं कभी नहीं भूल सकता और रिज पर पर बढ़े पेड़ के नीचे बैठे भाई से मूंगफली खाना मेरी स्मृतियों में है।

कभी सोचता था यहीं जीवन बीत जाएगा। गोष्ठियां होंगी कविताएं सुनाऊंगा कविताएं सुनूंगा।

ईश्वर आपके लिए क्या सोचता है कोई नहीं जानता।

ये फोर लेन कहां से आ गया विस्तफीत कर दिया ऐसा कभी सोचा नहीं था। फोरलेन तुम्हे मैं कभी माफ नहीं करूंगा । तुमने मेरे आत्मीयों को मुझ से छीना है और मुझे अकेला किया है।

मैं ये किस शहर में आ गया हूँ। यहां तो मैं अकेला हो गया हूँ ।

जब शिमला तुम मुझे बुलाते हो मैं अपने को रोक नहीं पता हूँ। गेयटी में हिमालयन मंच का आयोजन हो या कीकली या फिर भाषा विभाग का आयोजन। हिमालयन मंच तो काफी बाद में बना ये तरुण संगम होता था और ग्रेंड होटल के सभागार में आयोजन होते थे।

इसी समय कालीबाड़ी के रास्ते में गोलगप्पों का आनंद उठाते थे। वो जो काली बॉडी के पास गोलगप्पों वाला है उसका ज़ायका अलग था अगली बार समय मिला तो जरूर उससे मिलूंगा। अब वही है या नहीं मालूम नहीं ।

रेडियो और दूरदर्शन तक मुझे भूल गए है। उनसे कोई शिकायत नहीं। कुछ लोग समय के साथ बदल जाते है।

ये सब न लिखता अगर कीकली ने बच्चों के कार्यक्रम में न बुलाया होता।

मुझे हिमालयन मंच के आमन्त्रण का इंतज़ार रहता है। ये इसलिए की मेरे लेखन की शुरुआत में इसका बहुत बड़ा हाथ है। बाकी भाषा विभाग और अकादमी तो मुझे कभी याद करता ही नहीं। उनकी सूची में मैं हूँ ही नहीं।

कभी सोचा नहीं था जीवन के अंतिम पड़ाव मैं इस शहर सोलन आ जाऊंगा। लेकिन तुमसे शिकायत है तुम बहुधा पूर्वाग्रह में आ जाते हो। ये पूर्वाग्रह ये दल बंधी मुझे बिल्कुल पसंद नहीं। इस बारे कभी किसी दिन और बात करूँगा।

शिमला मैं कुछ नहीं भुला हूँ क्या तुम्हे कुछ याद है। शिमला मैं तुम्हे बहुत याद करता हूँ। परंतु तुम तो मुझे भूल गए हो....।


तस्‍वीर साभार नमन पांडेय

रविवार, नवंबर 12, 2017

चाय आज मीठी लगी

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#अधूरे_पन्ने

बेहद प्रसन्‍नता होती है जब कोई ऐसा मित्र मिलता जिसने अपने कार्य से प्रेरणादायक काम किया हो। पिछले कल दूसरा शनिवार होने के कारण कार्यालय से अवकाश था। फोन आया गुरू जी आपसे मिलना है और आपके साथ चाए पीनी है। फोन बहुत पुराने मित्र Chet Ram Azad  जी का था। आज़ाद जी ठियोग से है और मेहनती व्‍यक्ति है। मैं 1996 में ठियोग में कार्यरत था। आज़ाद जी उस समय मात्र मैट्रिक ही थे जो 1986 में की थी और पढ़ने की इच्‍छा रखते थे। लेकिन आगे नहीं पढ़ पाए । एक दिन उन्‍होने अपने मन की बात मुझ से कह दी और मैंने भी उनका जमा दो का फॉर्म भरवा दिया। परिणाम आया तो अंग्रेजी विषय में कम्‍पार्टमेंट आ गई। आजाद जी को प्रोत्‍साहित किया और उनकी जमा दो परीक्षा भी हो गई। आजाद जी इससे बेहद उत्‍साहित हो गएऔर कहने लगे अब तो ग्रेजुऐशन भी करनी है। इग्‍नू का फॉर्म भरवा दिया। आजाद जी की अध्‍ययन यात्रा चलती रही । मैं सन 2000 में ठियोग से कुमारसैन के लिए स्‍थानान्‍तरित होगया।
आजाद जी ने इग्‍नू से स्‍नातक कर लिया। वे अपनी प्रगति की सूचना मुझे देते रहे । आजाद जी की पढ़ने की ऐसी ललक पैदा हुई की इग्‍नू से एक दो डिप्‍लोमें भी कर लिए।
आजाद जी एक सहयोग नाम से एक सस्‍था का संचालन भी करते है और इस क्षेत्र में जब आते है तो मिलकर ही जाते है। शनिवार को उन्‍होने रूक कर चाए पीने की इच्‍छा व्‍यक्‍त की तो अच्‍छा लगा।
आजाद जी आए और गप्‍प शप्‍प होने लगी । बातचीत में उन्‍होने कहा गुरूजी चाए तो बहाना है दरअसल मैं आपको कुछ दिखाना चाहता हूं। मैंने कहा, हां हां दिखाओ। आजाद जी ने एक परिचय कार्ड मेरे हाथों में दिया। गौर से देखा तो वह बार को‍ंसिल ठियोग का परिचय पत्र था। आजाद जी ने विधि स्‍नातक की उप‍ाधि प्राप्‍त कर ली थ्‍ाी और पंजीकरण भी करवा लिया था।
आजाद जी मुझे आभार देते हुए कह रहे थे आपने जो रास्‍ता दिखाया उससे ही ये सम्‍भव हो पाया। आभार तो आजाद जी का जिन्‍होने मुझे याद रखा मैं तो मात्र माध्‍यम बना मेहनत तो उनकी थी।
सच मानिए चाए आज मुझे बेहद मिठी लग रही थी .......

रविवार, जून 26, 2016

अधुरेे पन्‍नेे

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(जीवन यात्रा पर प्रकाशनाधीन पुस्तक से)
वैसे मैं ओझा डाउ तंत्र मंत्र की बातों पर विश्वास कम ही करता। लेकिन पिछले वर्ष अस्वस्थ होने के कारण दवा और दुआ का दौर निरंतर चलता रहा है । वर्ष अप्रैल 2014 में गंभीर रूप से अस्वस्थ हुआ था दुसरे शब्दों में कहूँ तो मैंने मौत का साक्षात्कार किया । मेरे विद्यालय के सहयोगियों ने समय रहते मुझे स्थानीय अस्पताल पहुंचा कर चिकित्सा सहायता प्रदान की जिससे मैं स्वस्थ हो पाया।
दवा और दुआ सफर साथ साथ रहा । ग्रहों की दशा और दिशा जानने का प्रयास भी किया गया किसी ने कहा की किसी ओझा से भी बातचीत जरुर करें । बातचीत की गई तो बताया गया की आप पर नारसिंह लगाया गया है । किसने लगाया है ?इसका मात्र संकेत दिया गया की कोई औरत है जो आपको समाप्त करना चाहती है । अब मैं उस औरत को कहाँ खोजू और पुछू की बता मेरी खता क्या है है?
सोचता रहा इस पर विश्‍वास किया जाए या नहीं । मैं तो मात्र इतना समझता हूँ की देवी देवता किसी का अहित नहीं करते तो मेरा भी नहीं करेगें ।


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(जीवन यात्रा पर प्रकाशनाधीन पुस्तक से)
शाम कार्यालय से निकला ही था कि मदिरा पान किये एक व्यक्ति मिल गया। किसी वाहन को चलाता है शायद । आज छुट्टी थी उसकी। देखते ही आत्मीयता दिखाते मुझसे चिपक ही गया। घर की जल्दी ऊपर से हाथ न छोड़े। मैं मात्र हाँ जी हाँ जी करता छूटने की कोशिश करता रहा।
कहने लगा मास्टर जी आप बहुत अच्छे है लेकिन मैं बीन्ड(पंगेबाज) बन्दा हूँ । किसी तरह हाथ छुड़ा निकला और सोचता रहा ऐसे ही बीन्ड बंदे कभी भी कुछ कर सकते हैं । मास्टर तो एक निरीह प्राणी है उसकी औकात क्या?

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(जीवन यात्रा पर प्रकाशनाधीन पुस्तक से)
सुबह उठते ही गुनगुना पानी और टहलने, योगा करने का आदेश ये मीरा के दैनिक कामों में शामिल है। पानी पिया और एक दो चक्‍कर इधर उधर लगाए। फिर व्‍टस एप्‍प पर नमस्‍कार का दौर शुरू । फेसबुक पर अपडेट देखना । समय बीत जाता है तुरन्‍त।
मीरा व्‍यस्‍त हो जाती रसोई में । व्‍यस्‍तता सबकी है अपनी अपनी । वो सब के लिए कुछ न कुछ कर रही है मैं जो भी कर रहा हूं सिर्फ अपने लिए । इस यात्रा में अनेक बार ऐसा लगा मैं स्‍वार्थी हूँ कुछ नहीं कर पाता हूँ उसके लिए । मैं आत्‍मकेन्द्रित होता जा रहा हूँ । .........


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(जीवन यात्रा पर प्रकाशनाधीन पुस्तक से)
पदोन्नति के बाद बाहली स्कूल में कार्य भार ग्रहण था। एक दिन एक लड़का लगभग 11 बजे सुबह छुट्टी लेने। आ गया। मैंने पूछा क्यों चाहिए? वो बोला,"सर मुझे नींद आ रही है।" मेरे ये एक नया कारण था। इस तरह का छुट्टी का कारण पहली बार सुन रहा था।
मेरी उत्सुकता जागी मैंने पूछा नींद क्यों आ रही है? वो बोल,"सर रात को रामपुर में लवी का कार्यक्रम देखा तो सोया नहीं अब नींद आ रही है।
मैं निरुत्तर अपलक उसे देख रहा था.... ।


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(जीवन यात्रा पर प्रकाशनाधीन पुस्तक से)
शुरू से कविताओं में रूचि रही । नए रचनाकार भी सेना में भर्ती रंगरूट की तरह ही तो होते है। यूूं भी कविताओं को कौन सुनना चाहता है वही जाे इसमें रूचि रखता हो। कुछ लिखता तो मां को सुना देता प्रसन्‍नत होता। वास्‍तव में मां मेरी कविताओं की प्रथम श्रोता रही है। वो लगातार प्रोत्‍साहन भी देती रही।
(शेष पुस्‍तक में)


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(जीवन यात्रा पर प्रकाशनाधीन पुस्तक से)
जब भी मीरा को देखता हूं उसके बारे में सोचता हूं तो उसकी किस्‍मत के बारे में मेरे भीतर ही भीतर मंत्रणा करने लगती है। एक अपराध बोध सा लगने लगता है कि उसकी अस्‍वस्‍थता के लिए क्‍या कहीं मैं ही जिम्‍मेदार तो नहीं?
जीवन और मृत्‍यु के प्रश्‍न उसी को देख कर पूर्ण हो जाते है।
(शेष पुस

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बाऊ जी की मृत्‍यु के बाद मां ने कभी भी किसी कमी का अहसास नहीं होने दिया। हम अपनी जिम्‍मेवारियों का बोध तक नहीं कर पाऐ थे। कोई चिंता नहीं। मां है न वो सब कर देगी । मदद के लिए छोटा भाई है । जीवन चल रहा था बिना किसी समस्‍या के और सुखद जीवन।
तीन साल पूर्व (अगस्‍त 2012) जब मां का भी निधन हो गया तो दुनियादारी का पता चला। बड़े सामने हो तो बच्‍चों को कोई चिंता नहीं होती । मस्‍त होते है अपने अपने में। लेकिन उनकी रिक्‍तता असहनीय होती है। लोगो के आचार व्‍यवहार में परिवर्तन हो जाता है। जीवन की सचाई का सामना करना होता है। मां के जाने के बाद कई बातें याद आने लगी जो उन्‍होने समझाते हुए कही थी। एक एक शब्‍द की महता का आभास होने लगा थ्‍ाा। जीवन के मायने क्‍या है उसका बोध होने लगा था।
आना और जाना जीवन का सत्‍य है। जो आया है वो महाप्रस्‍थान तो करेगा ही। इस यात्रा में कई अनुभव मिले । मीठे कड़वे सब तरह के



विभागीय आदेश पर एक इन्‍कवारी के लिए बनूना स्‍कूल जाना पड़ा । इससे पूर्व भी इन्‍कवारी का कार्य कर चुका था । साथ कार्यालय अधीक्षक, गणित के प्राध्‍यापक और प्रयोगशाला परिचर भी साथ थ्‍ेा। वापसी में

स्‍कूल में हर रोज नया ही अनुभव प्राप्‍त होता है। बच्‍चों के नए नए बाहाने भी सृजनात्‍मकता का रूप ही तो है। प्राय: ये बाहाने झूठ पर आधारित होते है जिन्‍हें बोल का छुटी ले ही लेते हैं और बाहर निकलते ही अपनी स्‍थानीय बोली में भी जरूर टिप्‍पणी करते हैं। वे नहीं जानते की मैं पहाड़ी समझता हूं। एक लम्‍बे समय तक आकाशवाणी शिमला से नैमितिक उदघोषक और प्रादेशिक समाचार वाचक के रूप में जुड़ा रहा। किन्‍नौरी और लाहोल स्पिति को छोड़ कर अन्‍य बोलियों को प्राय: समझ जाता हूं परन्‍तु बोल नहीं पाता।
छुटी मिलते ही जैसे ही वे अपनी बोली में टिप्‍पणी करते मैं भी टूटी फूटी पहाड़ी में कुछ न कुछ जरूर कर देता । धीरे धीरे टिप्‍पणीयां तो बन्‍द हो गई लेकिन छुटी लेने का सिलसिला जारी ही रहता है। अवकाश अनुमादित करते ही मैं कह देता हूं ढेयो वे ढेयाे ( जाओ अब) ।



कुमारसैन शहर में जीवन का काफी समय गुजारा है । अनेक मित्र बने । गप्‍प शप्‍प जीवन अनुभव की बातें जीवन चर्या का एक हिस्‍सा है। मित्रों की गप्‍पें हमेशा ठाहके भरी होती है। एक मित्र है वैसे उमर में मेरे से काफी बड़े है के साथ चाए का दौर चलता ही है। चाए की अधिकता को देखते हुए मैं हमेशा एक कप मंगवाने का आग्रह करता हूं और कहता हूं एक बटा दो कर लेते है लेकिन चाए हमेशा ही पूरी ही आई। उन्‍होने दुकान परिवर्तन की तो मिलना कम हो गया। जबभी उनकी दुकान के सामने से गुजरता हूं तो वे कह उठते है वो एक बटा दो बहुत सी इक्‍कठी हो गई है जनाब। मेरे बैठते ही वे जोर से आवाज़ देकर चाए मंगवा लेते है दस पंद्रह मिनट चाए के साथ गप्‍प शप्‍प और ठहाके लगते है और मैं निकल आता हूं वादा करके एक और एक बटा दो के दौर का।
एक बार उन्‍होने ने शराबी कितने प्रकार के होते है और उनकी क्‍या पहचान होती है कि विस्‍तृत जानकारी दी जिस पर हम हंस हंस कर लोट पोट हुए। ओ हो क्षमा चाहूंगा आपको उन मित्र का नाम तो बताया ही नहीं । उनका .......

अधुरे पन्‍ने

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जन्म और प्रारम्भिक शिक्षा ठियोग में हुई। 1977 या 1978 में ठियोग से ढली आ गए। नया शहर नए लोेग नया परिवेश। इस समय मैं सातवी पास कर चुका था। बाजार जाने के अलावा और कहीं जाने पर मनाही थी। एक दिन साहस कर संजौली बाजार की तरफ निकल गया। चौक तक पंहुच गया । वहां से लक्‍कड़ बाजार रोड़ पर चला गया लेकिन एक मोड़ के बाद वापिस आ गया। चौक पर भूल गया कि मैं किस रास्‍ते आया था। दो चार मिनट खड़े रहने के बाद ढली का रास्‍ता पूछा और उसी रास्‍ते वापिस आ गया।

दसवीं पास करते ही आगे क्‍या करना है ये प्रश्‍न सामने आ गया था। कहा गया कि टाईपिंग आदि सीख कर कहीं कलर्क आदि का काम मिल जाए तो बेहतर । लेकिन मां मुझे कॉलेज भेजने के पक्ष में थ्‍ाी। मेरी उच्‍च शिक्षा मां के कारण ही सम्‍भव हो पाई । आर्थिक स्‍ि‍थति आगे कॉलेज आदि में प्रवेश लेने की अनुमति नहीं देती थी लेकिन मां ने इसके लिए बाऊ जी को मना लिया। मुझे याद है कॉलेज में प्रवेश फीस के लिए उधार लिया गया था। और 1980 में संजौली कॉलेज में एडमिशन लिया था। मैंने संजौली कॉलेज से 1984 में बी.ए. आॅनर्स इतिहास किया और एम.ए. के लिए यूनिवर्सिटी का रूख किया।

जू बाड़ा दे पाई सो ई बणा रिंगण । ये एक पहाड़ी लोकोक्ति है। जिसका सीधा सम्‍बध विश्‍वास आत्‍मीय और सुदृढ़ सम्‍बधों से है। जीवन में विश्‍वास और विश्‍वासघात जीवन की धारा बदल देता है। आंखें खुली हो और विवेक से काम लिया जाए तो बेहतर अगर आंखों पर पर्दा पड़ा हो तो कुछ भी दिखाई नहीं देता।
अांख बन्‍द कर विश्‍वास कर लेना भी हानिकारक होता है .......


 
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