जन्म और प्रारम्भिक शिक्षा ठियोग में हुई। 1977 या 1978 में ठियोग से ढली आ गए। नया शहर नए लोेग नया परिवेश। इस समय मैं सातवी पास कर चुका था। बाजार जाने के अलावा और कहीं जाने पर मनाही थी। एक दिन साहस कर संजौली बाजार की तरफ निकल गया। चौक तक पंहुच गया । वहां से लक्कड़ बाजार रोड़ पर चला गया लेकिन एक मोड़ के बाद वापिस आ गया। चौक पर भूल गया कि मैं किस रास्ते आया था। दो चार मिनट खड़े रहने के बाद ढली का रास्ता पूछा और उसी रास्ते वापिस आ गया।
दसवीं पास करते ही आगे क्या करना है ये प्रश्न सामने आ गया था। कहा गया कि टाईपिंग आदि सीख कर कहीं कलर्क आदि का काम मिल जाए तो बेहतर । लेकिन मां मुझे कॉलेज भेजने के पक्ष में थ्ाी। मेरी उच्च शिक्षा मां के कारण ही सम्भव हो पाई । आर्थिक स्िथति आगे कॉलेज आदि में प्रवेश लेने की अनुमति नहीं देती थी लेकिन मां ने इसके लिए बाऊ जी को मना लिया। मुझे याद है कॉलेज में प्रवेश फीस के लिए उधार लिया गया था। और 1980 में संजौली कॉलेज में एडमिशन लिया था। मैंने संजौली कॉलेज से 1984 में बी.ए. आॅनर्स इतिहास किया और एम.ए. के लिए यूनिवर्सिटी का रूख किया।
जू बाड़ा दे पाई सो ई बणा रिंगण । ये एक पहाड़ी लोकोक्ति है। जिसका सीधा सम्बध विश्वास आत्मीय और सुदृढ़ सम्बधों से है। जीवन में विश्वास और विश्वासघात जीवन की धारा बदल देता है। आंखें खुली हो और विवेक से काम लिया जाए तो बेहतर अगर आंखों पर पर्दा पड़ा हो तो कुछ भी दिखाई नहीं देता।
अांख बन्द कर विश्वास कर लेना भी हानिकारक होता है .......
अांख बन्द कर विश्वास कर लेना भी हानिकारक होता है .......
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