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शुक्रवार, जनवरी 11, 2013

स्वामी विवेकानन्द की 150वीं जयंती

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12 जनवरी, 2013 को स्वामी विवेकानन्द की 150वीं जयंती है।विवेकानंद  का जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता में हुआ था। जन्म के समय उनका नाम नरेन्द्रनाथ दत्त रखा गया। आगे चल कर नरेन्द्रनाथ को उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस ने सन्यासी होने की दीक्षा दी।  सन्यासी अपना सब कुछ त्याग देता है इसलिए नरेन्द्रनाथ ने अपने नाम को भी त्याग दिया और  नाम धारण कर लिया: स्वामी विवेकानंद। स्वामी विवेकानंद भारतीय अध्यात्म और दर्शन में एक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति रहे हैं। उन्होनें पश्चिमी देशों का वेदांत और योग दर्शन से परिचय कराया। स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने अपने शिष्य को सिखाया कि सभी धर्म सच्चे हैं और एक ही लक्ष्य की ओर जाने वाले अलग-अलग मार्गों की तरह हैं। इस विश्व में सभी कुछ ईश्वर है और ईश्वर के सिवा यहाँ कुछ भी नहीं है। इस दर्शन को अद्वैत वेदांत कहा जाता है। स्वामी विवेकानंद 1893 में हुई उक्त धर्म संसद में भाग लेने के लिए शिकागो गए। वहाँ इस भारतीय सन्यासी ने सभी का मन बिना प्रयत्न के ही जीत लिया। भारत वापस आने के बाद, 1897 में, उन्होनें रामकृष्ण मिशन नामक एक आध्यात्मिक और लोकहितैषी संस्था की नींव रखी।   भारत में स्वामी विवेकानंद के जन्मदिवस (12 जनवरी) को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है
जीवन में  मनुष्य तभी तक महत्वपूर्ण बना रहता है,जब तक वह अपने लक्ष्य के प्रति कार्यशील रहता है। उदेश्यहीन व्यक्ति को समाज ही नहीं बल्कि प्रकृति भी त्याग देती है। संपूर्ण विश्व में महान लोगों की पहचान भी उनके द्वारा मानव विकास के लिए किए गए योगदान व बलिदान के कारण की हुई है। मानवीय चेतना को उत्कृष्ट बनाने में स्वामी विवेकानंद का अतुलनीय योगदान है। इसी कारण,वह करोड़ों भारतीयों के आदर्श बने और पूरी दुनिया के सामने देश की समृद्ध संस्कृति को रखा। वर्तमान विसंगतियों को दूर करने में स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाएं आज भी सक्षम हैं। उनके शाश्वत विचारों के जरिए सामाजिक समस्याओं को बड़े हद तक हल किया जा सकता है।
  स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि  ‘‘मेरा विश्वास आधुनिक युवा पीढ़ी में है। उनमें से मेरे कार्यकर्ता आएंगे और सिंह के समान पुरुषार्थ कर सभी समस्याओं का समाधान करेंगे।’’ 
  समाज के अग्रणी और प्रबुद्ध वर्ग पर राष्ट्र निर्माण का दायित्व होता है ।
स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि ‘‘याद रखो कि राष्ट्र गरीब की झोपड़ी में बसता है, राष्ट्र का भवितव्य जनसामान्य की दशा पर निर्भर करता है। क्या तुम उन्हें ऊपर उठा सकते हो। उनके आंतरिक आध्यात्मिक सत्व को नष्ट किए बिना क्या तुम उन्हे अपना खोया परिचय वापस दिला सकते हो।’’ स्वामी जी की नजर में ग्राम्य जीवन ही भारत और भारतीयता का आधार है। भारत के उत्थान के लिए ग्रामीणों का आत्मविश्वास बढ़ाने तथा ग्राम जीवन को सशक्त बनाने की आवष्यकता है।
स्वामी जी का मत था कि  हिन्दू महिलाएं अत्यंत आध्यात्मिक और धार्मिक होती हैं। यदि हम इन गुणों का संवर्धन करते हुए जीवन के सभी क्षेत्रों में महिलाओं के सहभाग को विकसित करते हैं तो भविष्य की हिन्दू महिलाएं सभी क्षेत्रों में नए विकास के नए मानक गढ़ सकते हैं।
 स्वामी जी मतांतरण के प्रबल विरोधी थे। उन्होंने एक जगह पूछा है ईसाई मिशनरियों से पूछा है कि -क्या हमने कभी मत परिवर्तन के लिए एक भी धर्म प्रचारक दुनिया में भेजा है’’। अस्मिता के जरिए जनजातियों के आत्मबल को बढ़ाने का प्रयास  किया जाएगा। इसके जरिएआना चाहिए। 
 तो मैं भविष्य में देखता हूं और न ही भविष्य की चिंता करता हूं। किन्तु एक दृश्य मेरे सम्मुख जीवंत स्पष्टता से दिखाई देता है कि हमारी यह प्राचीन भारत माता पुनः एक बार जागृत हो चुकी है और अपने सिंहासन पर पूर्व से भी अधिक आलोक के साथ विराजमान है। आइए! शान्ति एवं मंगल वचनों से पूरे विश्व के सम्मुख इसकी उद्घोषणा करें।
स्वामी जी ने प्राचीन शास्त्रों की पुनर्व्याख्या कर,निराशा, कुंठा, ईर्ष्या के भ्रमजाल में फंसी मानवता को एक नया जीवनपथ दिखाया। आध्यात्मिक उन्नति के लिए देश की समृद्धि आवश्यक है। उन्होंने आध्यात्मिकता को संसार विरोधी बताने वाली मान्यताओं का खंडन और विरोध किया।
स्वामी जी के संपूर्ण चिंतन के केंद्र में मानव है। उन्होंने लिखा है-मानव सभ्यता के गौरव को कभी न भूलो। प्रत्येक व्यक्ति धोषणा करे कि मैं ही परमेश्वर हूं, क्राइस्ट व बुद्ध उस असीम महासागर की तरंगें मात्र हैं, जो मैं हूं। लेकिन विश्व की बात करते हुए भी भारतीयता के प्रति आग्रही हैं। उन्होंने कहा है कि आज जिस बात की सर्वाधिक आवश्यकता है वह हैं, चरित्रवान स्त्री पुरुष। किसी भी राष्ट्र का विकास और उसकी सुरक्षा, उसके चरित्रवान नागरिकों पर निर्भर है। मूर्ख, दरिद्र, ब्राह्मण और चाण्डाल सभी भारतवासी मेरे भाई हैं। भारत के दीनदुखियों के साथ खड़े होकर गर्व से पुकारो कि प्रत्येक भारतवासी मेरा भाई है, भारत का समाज मेरे बचपन का झूला, जवानी की फुलवारी और बुढ़ापे की काशी है। भाई! कहो कि भारत की मिट्टी मेरा स्वर्ग है, भारत के कल्याण में मेरा कल्याण है।
स्वामी विवेकानंद शैक्षिक पाठ्यक्रम में आध्यात्मिकता के साथ विज्ञान व तकनीकि शिक्षा के  पक्षधर थे। उनके अनुसार विज्ञान के विकास ने मानव को कई कष्टों से मुक्ति दिलाई है, जीवन को सुख सुविधाओं से परिपूर्ण किया है। लेकिन वेदांत के अभाव में यही विज्ञान विनाशकारी बन सकता है, स्वार्थ एवं शोषण को बढ़ाने में सहायक हो सकता है। उनकी सबसे बड़ी चिंता यही थी कि वर्तमान शिक्षा केवल नौकरी योग्य ही बनाती है। उनके अनुसार शैक्षिक पाठ्यक्रम में विज्ञान, तकनीकि व औद्योगिक शिक्षा को महत्वपूर्ण स्थान मिलना चाहिए, परंतु  कला शिक्षा की उपेक्षा करके नहीं। कला शिक्षा भी हमारे समाज का एक अभिन्न अंग है।
वर्तमान में  भले ही विज्ञान तकनीकि के क्षेत्र में ाफी प्रगति हुई है, लेकिन गरीबी, अशिक्षा जैसी समस्याएं आज भी हमारे समाज में मौजूद है। देश की लगभग 35 फीसदी से ज्‍यादा आबादी निरक्षर, कुपोषित,बेघर व फु टपाथों तथा झुग्गी-झोंपडि़यों में जीने को विवश है। इसका कारण विज्ञान व तकनीकि नहीं,बल्कि मनुष्य में व्यावहारिक, आध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्यों का वैज्ञानिक शक्तियों के साथ समन्वय न होना है। इसी समन्वय के अभाव में विज्ञान, तकनीकि व औद्योगिक विकास का लाभ गरीब, ग्रामीण व आम लोगों तक नहीं पहुंच पाया है। ऐसे में विज्ञान व व्यक्ति विकास के विभिन्न पहलुओं में समन्वय बिठाने की आवश्यकता है।  देश की वर्तमान सामाजिक, आर्थिक व शैक्षिक स्थिति को देखते हुए स्वामी विवेकानंद के विचारों को अपनाने के लिए गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है ताकि भारत अपने खोए हुए ताज विश्वगुरु को हासिल कर सके।
11 सितम्बर को “विश्व भाईचारा दिवस मनाया जाता है। इसी दिन स्वामी विवेकानंद ने शिकागो धर्म संसद में अपना भाषण दिया था।  भारत में स्वामी विवेकानंद के जन्मदिवस (12 जनवरी) को राष्ट्रीय युवा दिवस के      रूप में मनाया जाता है कन्याकुमारी विवेकानंद रॉक मेमोरियल बनाने का काम स्वामी विवेकानंद की जन्मशती के उपलक्ष्य में 1963 में शुरु हुआ था। यह मेमोरियल भारत भूमि के सुदूरतम दक्षिणी बिंदू से 500 मीटर आगे समुद्र के बीच बना है। इसे बनाने में सात वर्ष का समय लगा था।इस मेमोरियल को बनाने के राष्ट्रीय प्रयास में करीब तीस लाख लोगों ने आर्थिक सहायता दी। इन सभी व्यक्तियों ने कम से कम एक-एक रुपए का योगदान दिया।स्वामी विवेकानंद पहले भारतीय थे जिन्हे हार्वर्ड विश्वविद्यालय में ओरियेंटल फ़िलॉसफ़ी चेयर स्वीकारने के लिए आमंत्रित किया गया था।स्वामी विवेकानंद एक अच्छे कवि और गायक भी थे। उनकी सबसे पसंदीदा स्वरचित कविता का शीर्षककाली द मदर है। स्वामी विवेकानंद ने भविष्यवाणी की थी कि वे 40 वर्ष की आयु प्राप्त नहीं कर सकेंगे। उनकी यह बात तब सच साबित हो गई जब 4 जुलाई 1902 को उनकी मृत्यु 39 वर्ष की उम्र में ही हो गई। उन्होने समाधि की अवस्था में अपने प्राण त्यागे !



मंगलवार, नवंबर 02, 2010

संयम का महत्व

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 इंद्रियों के संयम को जीवन की सफलता का प्रमुख साधना कहा है।  नारद उपदेश देते हुए कहते हैं, ‘इंद्रियों का आवश्यक कर्मों को संपन्न करने में कम से कम उपयोग करना चाहिए। मन पर नियंत्रण करके ही इंद्रिय-संयम संभव है। वाणी का जितना हो सके, कम उपयोग करने में ही कल्याण है।’ वाणी के संयम के अनेक प्रत्यक्ष लाभ देखने में आते हैं। वाणी पर संयम करने वाला किसी की निंदा के पाप, कटु वचन बोलकर शत्रु बनाने की आशंका, अभिमान जैसे दोषों से बचा रहता है। एक बार  बुद्ध मौन व्रत का पालन करते समय  एकाग्रचित बैठे हुए थे। उनसे द्वेष रखने वाला एक कुटिल व्यक्ति उधर से गुजरा। उसके मन में ईर्ष्या भाव पनपा-उसने वृक्ष के पास खड़े होकर बुद्ध के प्रति अपशब्दों का उच्चारण किया। बुद्ध मौन रहे। उन्हें शांत देखकर वह वापस लौट आया। रास्ते में उसकी अंतरात्मा ने उसे धिक्कारा- एक शांत बैठे साधु को गाली देने से क्या मिला? वह दूसरे दिन पुनः बुद्ध के पास पहुंचा। हाथ जोड़कर बोला, ‘मैं कल अपने द्वारा किए गए व्यवहार के लिए क्षमा मांगता हूं।’ बुद्ध ने कहा, ‘कल जो मैं था, आज मैं वैसा नहीं हूं। तुम भी वैसे नहीं हो। क्योंकि जीवन प्रतिफल बीत रहा है। नदी के एक ही पानी में दोबारा नहीं उतरा जा सकता। जब वापस उतरते हैं, वह पानी बहकर आगे चला जाता है। कल तुमने क्या कहा, मुझे नहीं मालूम। और जब मैंने कुछ सुना ही नहीं, तो वे शब्द तुम्हारे पास वापस लौट गए।’ बुद्ध के शब्दों ने उसे सहज ही वाणी के संयम का महत्व बता दिया

सोमवार, नवंबर 01, 2010

विश्‍वास और श्रद्धा

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भगवान बुद्ध धर्म प्रचार करते हुए काशी की ओर जा रहे थे। रास्ते में जो भी उनके सत्संग के लिए आता, उसे वह बुराइयां त्यागकर अच्छा बनने का उपदेश देते। उसी दौरान उन्हें उपक नाम का एक गृहत्यागी मिला। वह गृहस्थ को सांसारिक प्रपंच मानता था और किसी मार्गदर्शक की खोज में था। भगवान बुद्ध के तेजस्वी निश्छल मुख को देखते ही वह मंत्रमुग्ध होकर खड़ा हो गया। उसे लगा कि पहली बार किसी का चेहरा देखकर उसे अनूठी शांति मिली है। उसने अत्यंत विनम्रता से पूछा, ‘मुझे आभास हो रहा है कि आपने पूर्णता को प्राप्त कर लिया है?’ बुद्ध ने कहा, ‘हां, यह सच है। मैंने निर्वाणिक अवस्था प्राप्त कर ली है।
उपक यह सुनकर और प्रभावित हुआ। उसने पूछा, ‘आपका मार्गदर्शक गुरु कौन है?’ बुद्ध ने कहा, ‘मैंने किसी को गुरु नहीं बनाया। मुक्ति का सही मार्ग मैंने स्वयं खोजा है।
क्या आपने बिना गुरु के तृष्णा का षय कर लिया है?’
बुद्ध ने कहा, ‘हां, मैं तमाम प्रकार के पापों के कारणों से पूरी तरह मुक्त होकर सम्यक बुद्ध हो गया हूं।
उपक को लगा कि बुद्ध अहंकारवश ऐसा दावा कर रहे हैं। कुछ ही दिनों में उसका मन भटकने लगा। एक शिकारी की युवा पुत्री पर मुग्ध होकर उसने उससे िवाह कर लिया। फिर उसे लगने लगा कि अपने माता-पिता परिवार का त्यागकर उनसे एक प्रकार का विश्वासघात किया है। वह फिर बुद्ध के पास पहुंचा। संशय ने पूर्ण विश्वास श्रद्धा का स्थान ले लिया। वह बुद्ध की सेवा-सत्संग करके स्वयं भी मुक्ति पथ का पथिक बन गया।

शनिवार, जुलाई 17, 2010

परम शांति

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महर्षि सनतकुमार और देवर्षि नारद सत्संग कर रहे थे। सनतकुमार ने प्रश्न किया, ‘देवर्षि, आपने किन-किन शास्त्रों और विद्याओं का अध्ययन किया है?’ नारद जी ने उन्हें बताया कि उन्होंने वेदों, पुराणों, वाकोवाक्य  देवविद्या, ब्रह्मविद्या, नक्षत्र विद्या आदि का अध्ययन किया है। पर उनका ज्ञान मात्र पुस्तकीय है। नारद जी ने विनयपूर्वक महर्षि से ब्रह्मविद्या का ज्ञान कराने की प्रार्थना की। महर्षि सनतकुमार ने उपदेश देते हुए बताया, ‘वाणी, मन, संकल्प, चित्त, ध्यान, विज्ञान, प्राण आदि पंद्रह तत्वों को जानना चाहिए। सत्य, मति  कर्मण्यता  निष्ठा तथा कर्तव्यपरायणता आदि का ज्ञान प्राप्त करने से आत्मिक सुख मिलता है।’ उन्होंने कहा, ‘सच्चा सुख तो परमात्मा की सर्वव्यापकता की अनुभूति होने पर ही प्राप्त होता है। इस अनुभूति के होने पर मनुष्य यह स्वीकार कर लेता है कि सारा संसार ही उसका परिवार है-वसुधैव कुटुंबकम्। जब हमारा दृष्टिकोण व्यापक हो जाता है, तो हम प्राणी मात्र में अपने परमात्मा के दर्शन कर सभी के प्रति सुहृद के समान व्यवहार करते हैं।’ धर्मशास्त्रों में कहा गया है, ‘परमात्मा सर्वत्र है। वह सर्वशक्तिमान है। वह नित्य, पवित्र और प्रेम का प्रतीक है। जिसे परमात्मा के प्रति असीम निश्छल प्रेम की अनुभूति होने लगती है, उसका हृदय-मन पूरी तरह सांसारिक आसक्ति से रहित हो जाता है। जीव जब संसार की वासनाओं और क्षणिक आकर्षणों में भटककर थक जाता है, तब उसे परमात्मा की शरण में जाकर ही परम शांति व सुख प्राप्त होता है।’

अहंकार

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राजगृह के  कोषाध्यक्ष की पुत्री भद्रा बचपन से ही प्रतिभाशाली थी।  माता-पिता की इच्छा के विरुद्ध  विवाह कर लिया। विवाह के बाद उसे पता चला कि    वह युवक दुर्व्यसनी और अपराधी किस्म का है। एक दिन उस युवक ने भद्रा के तमाम आभूषण कब्जे में ले लिए और उसकी हत्या का प्रयास किया। पर भद्रा ने युक्तिपूर्वक अपनी जान बचा ली। इस घटना ने उसमें सांसारिक सुख से विरक्ति की भावना पैदा कर दी। वह भिक्षुणी बन गई। अल्प समय में ही उसने शास्त्रों का अध्ययन कर लिया और उसकी ख्याति विद्वान साध्वियों में होने लगी। भद्रा को अहंकार हो गया कि वह सबसे बड़ी शास्त्रज्ञ है। उसने पंडितों को शास्त्रार्थ के लिए ललकारना शुरू कर दिया। एक बार वह श्रावस्ती पहुंची। उसे पता चला कि अग्रशावक सारिपुत्र प्रकांड पंडित माने जाते हैं। भद्रा ने सारिपुत्र को शास्त्रार्थ की चुनौती दे डाली। उसने सारिपुत्र से अनेक प्रश्न किए, जिसका सारिपुत्र ने जवाब दे दिया। अंत में सारिपुत्र ने उससे प्रश्न किया, ‘वह सत्य क्या है, जो सबके लिए मान्य हो?’ भद्रा यह सुनते ही सकपका गई। पहली बार उसने किसी विद्वान के समक्ष समर्पण करते हुए कहा, ‘भंते, मैं आपकी शरण में हूं।’ सारिपुत्र ने उत्तर दिया, ‘मैं बुद्ध की शरण में हूं, उनका शिष्यत्व ग्रहण करो।’ भद्रा बुद्ध के पास पहुंची। बुद्ध ने उसे उपदेश देते हुए कहा, ‘देवी, किसी भी प्रकार का अहंकार समस्त सद्कर्मों व पुण्यों को क्षीण कर देता है। धर्म के केवल एक पद को जीवन में ढालो कि मैं ज्ञानी नहीं, अज्ञानी हूं।’ तथागत के शब्दों ने भद्रा को पूरी तरह अहंकारशून्य बना दिया

शनिवार, जून 26, 2010

अधर्म

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महर्षि व्यास के पुत्र शुकदेव ने किसी विद्वान से ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त की। पिता ने उन्हें राजा जनक के पास भेज दिया। शुकदेव जी महाराज जनक के राजमहल पहुंचे। उन्हें लगा कि प्रचुर ऐश्वर्य से घिरे जनक क्या उपदेश देंगे? वह निराश होकर लौटने ही वाले थे कि जनक जी ने उन्हें बुलवाया और कहा, ‘धर्मचर्चा  सत्संग भवन में करेंगे।सत्संग भवन पहुंचकर उन्होंने शुकदेव से आत्मा-परमात्मा संबंधी बातचीत शुरू कर दी। अचानक कुछ राज कर्मचारी हांफते हुए वहां पहुंचे और सूचना दी कि महल के एक कक्ष में आग लग गई है। राजा जनक ने शांत भाव से उत्तर दिया, ‘मैं इस समय मुनि के साथ ईश्वर संबंधी चिंतन में लीन हूं। आग से बचाव का प्रयास करो। सांसारिक संपत्ति नष्ट होती हो, तो हो जाने दो।देखते-देखते आग सत्संग भवन तक पहुंच गई। राजा जनक पास आती आग देखकर भी बेचैन नहीं हुए, किंतु शुकदेव अपनी पुस्तकें उठाकर उस कक्ष से बाहर निकल आए। उन्होंने देखा कि राजा जनक को न तो अपनी संपत्ति नष्ट होने की चिंता थी और न ही किसी के जलकर मरने की। वह निश्चिंत होकर ईश्वर चिंतन में लगे रहे। कुछ देर बाद महाराज जनक ने शुकदेव जी से कहा, ‘दुख का मूल संपत्ति नहीं, संपत्ति से आसक्ति है। संसार में हमें केवल वस्तुओं के उपयोग का अधिकार दिया गया है। अक्षय संपत्ति के स्वामी और निर्धन, दोनों को मृत्यु के समय सब कुछ यहीं छोड़कर जाना होता है। इसलिए नाशवान धन-संपत्ति के प्रति अधिक आसक्ति अधर्म है।’ 

शुक्रवार, जून 25, 2010

हस्त दर्शन

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एक ऋषि अपने छात्रों को वेदों का  अध्ययन करा रहे थे। उन्होंने ऋग्वेद के  एक मंत्र  अयं मे हस्तो भगवानयं में भगवत्तरः, अयं मे विश्वभेषजोडयं शिवाभिमर्शनः का अर्थ समझाया  जिसका अर्थ था  यह मेरा हाथ भगवान अर्थात ऐश्वर्यशाली है। यह अत्यंत भाग्यशाली है। यह दुनिया के सभी रोगों का चिकित्सक है। यह  कल्याणकारी स्पर्शवाला है। ऋषि ने कहा इस संदेश का अर्थ यही है कि हाथों से श्रम या पुरुषार्थ करने वाला सदैव सुखी, प्रसन्न तथा स्वस्थ रहता है। वैसे तो मानव शरीर का प्रत्येक अंग महत्वपूर्ण है, किंतु कर्म और पुरुषार्थ में हाथों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। हाथों से निरंतर काम  करते रहकर वैभवशाली  बना जा सकता है। जबकि हाथों पर हाथ धरे बैठा व्यक्ति निठल्ला कहलाता है। जब हम अपने हाथों से श्रम करते हैं, तब रोग स्वतः दूर रहने को मजबूर हो जाते हैं।’ स्वामी  के पास एक व्यक्ति पहुंचा। उसके चेहरे पर निराशा देखकर स्वामी जी ने इसका कारन पूछा ? उसने कहा, ‘धन की कमी  के कारण परेशान हूं। मैं अपने को सबसे बड़ा अभागा मानने लगा हूं।’ स्वामी जी ने उसका हाथ अपने हाथ में लिया और बोले, ‘अरे मूर्ख, इन दो हाथों के होते हुए भी अभागे कैसे हो? इनकी मुट्ठियों में तो तुम्हारा भाग्य है। निराशा त्यागो और इन हाथों से श्रम करो, ऐश्वर्य स्वयं तुम्हारे पास दौड़ा आएगा।’ यदि कोई महिला स्वादिष्ट भोजन बनाती है, तो कहा जाता है कि उसके हाथों में जादू है। कोई चिकित्सक रोगियों को स्वस्थ कर देता है, तो कहा ही जाता है कि उस डॉक्टर के हाथ की शफा है। अगर कोई सच्चा संत सिर पर हाथ रख दे, तो कहा जाता है कि हाथ के स्पर्श से अपूर्व शांति मिली है। भारतीय परंपरा में इसलिए तो सवेरे शैया से उठकर सर्वप्रथम हस्त दर्शन करने को शुभ माना गया है। 

बुधवार, जून 23, 2010

ईश्वर की कृपा

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सेठ जमनालाल बजाज ने  आजीवन स्वदेशी वस्तुओं के  उपयोग संकल्प लिया था ! एक   प्रतिज्ञा यह भी थी कि वह प्रतिदिन किसी-न-किसी संत-महात्मा या विद्वान का सत्संग करेंगे।  वह एक दिन संत का सत्संग करने पहुंचे। इस  दौरान उन्होंने कहा, ‘महाराज, आप जैसे संतों के आशीर्वाद से मैंने अपने जीवन में आय के इतने साधन अर्जित कर लिए हैं कि मेरी सात पीढ़ियों को कमाने की चिंता नहीं करनी पड़ेगी।  कभी-कभी मुझे आठवीं पीढ़ी की चिंता होती है कि उसके भाग्य में पता नहीं, क्या होगा?’ संत जी ने कहा, ‘सेठ जी,  आप चिंता  न करें। कल  आप यहां आ जाएं।  सभी चिंताओं का समाधान हो जाएगा।’ सेठ जमनालाल बजाज अगली सुबह-सुबह उनकी कुटिया पर जा पहुंचे। संत ने कहा गांव के मंदिर के पास झाड़ू बनाने वाला एक गरीब परिवार झोपड़पट्टी में रहता है।  उसे एक दिन के भोजन के लिए दाल-आटा दे आओ। सेठ आटा-दाल लेकर उस झोंपड़ी पर पहुंचे। दरवाजे पर आवाज देते ही एक वृद्धा निकलकर बाहर आई। सेठ जी ने उसे लाया हुआ सामान  थमाया, तो वह बोली, ‘बेटा, इसे वापस लेकर जा। आज का दाना-पानी तो आ गया है।’ जमनालाल जी ने कहा, ‘तो कल के लिए इसे रख लो।’ वृद्धा बोली, ‘जब ईश्वर ने आज का इंतजाम कर दिया है, तो कल का भी वह अवश्य करेगा। आप इसे किसी जरूरतमंद को दे देना।’ वृद्धा के शब्द सुनकर सेठ जमनालाल बजाज पानी-पानी हो गए। उन्होंने विरक्ति और त्याग की मूर्ति उस वृद्धा के चरण छूकर आशीर्वाद मांगा और वापस हो गए। इस घटना के बाद वह स्वयं कहा करते थे ‘कर्म करते रहो ईश्वर की कृपा से आवश्यकताओं की पूर्ति अपने आप  होती रहेगी।

मंगलवार, जून 22, 2010

विनम्रता और दया

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 सत्संग के लिए आने वालों से संत कबीर अकसर कहा करते थे कि अपने काम को पूरी लगन से करते हुए भगवान का चिंतन करते रहना चाहिए। एक दिन एक श्रद्धालु कबीर के दर्शन के लिए आया। उसने उनसे कहा, ‘बाबा आप तो दिन भर बैठे करघे पर कपड़ा बुनते रहते हैं। फिर भला भगवान का ध्यान-स्मरण कब कर लेते हैं?’ कबीर उसे अपने साथ लेकर गंगा तट पर पहुंचे। एक महिला गंगाजल से भरा गागर अपने सिर पर रखे लौट रही थी। गागर को उसने पूरी तरह छोड़ रखा था और मुंह से गंगा की महिमा के गीत गुनगुना रही थी। लेकिन गागर से एक बूंद भी गंगाजल नहीं छलक रहा था। कबीर उसकी तरफ इशारा करते हुए बोले, इस महिला को ध्यान से देखो। यह मुंह से गंगा का- भगवान का स्मरण कर रही है और इसे यह भी पूरा ध्यान है कि गागर गिर न पाए। दोनों काम एक साथ साधना इस महिला से सीखो। मैं भी हाथों से करघा चलाता हूं, और ऐसा करते हुए मुख से राम नाम जपता रहता हूं। परमात्मा का नाम तो हर क्षण भक्त के हृदय व मन में रमते रहना चाहिए।’ कबीर के इस उपदेश से जिज्ञासु की समस्या का समाधान हो गया। संत कबीर धर्म के नाम पर पनपने वाले आडंबर के घनघोर विरोधी थे। उन्होंने अपनी साखियों में अभिमान में अंधे, ढोंगी-नशेड़ी साधुओं पर काफी कठोर लहजे में प्रहार किए थे। अपने को चमत्कारी साधु या गुरु बताने वाले अहंकारी साधुओं पर उन्होंने लिखा, घर-घर मंतर देत फिरत हैं, महिमा के अभिमाना/ गुरु सहित शिष्य सब बूड़ें, अंत काल पछताना। कबीरदास का मत था कि वही साधु-महात्मा सच्चा गुरु कहलाने का अधिकारी है, जो स्वयं सदाचारी, संयमी और ज्ञानी है। जिसके मन में विनम्रता और दया का वास नहीं है, वह आखिर गुरु कैसे हो सकता है।

सोमवार, जून 21, 2010

परम संतोष

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धृतराष्ट्र समय-समय पर महात्मा विदुर के सत्संग के लिए लालायित रहा करते थे। वह जानते थे कि विदुर जो सलाह देते हैं, वह पूर्णतया धर्मसम्मत होती है। वह उनके कटु लगने वाले वचनों को भी कल्याणकारक मानते थे। एक दिन विदुर जी ने धृतराष्ट्र को उपदेश देते हुए कहा, ‘राजन, केवल धर्म ही कल्याणकारक है। एकमात्र क्षमा ही शांति का सर्वश्रेष्ठ उपाय है। विद्या ही परम संतोष देने वाली है। काम, क्रोध और लोभ, मनुष्य के पुण्य का नाश करने वाले नरक के तीन दरवाजे हैं। अतः हर हाल में इनका त्याग करना चाहिए।’ जब उन्होंने देखा कि धृतराष्ट्र पुत्रमोह में सत्य की अवहेलना कर रहे हैं, तो विदुर जी ने कहा, ‘जैसे नदी के पार जाने के लिए नाव ही एकमात्र साधन है, उसी प्रकार स्वर्ग के लिए सत्य ही एकमात्र सोपान है।’ विदुर जी जानते थे कि मोह के कारण ही धृतराष्ट्र पतन को प्राप्त होंगे। इसलिए वह उनसे अकसर कहते, ‘जैसे सूखी लकड़ी में मिल जाने से गीली लकड़ी भी जल जाती है, ठीक उसी तरह दुष्टों का त्याग न करने और उनके साथ मिले रहने से निरपराध सज्जनों को भी दंड भोगना पड़ता है, इसलिए दुर्व्यसनी एवं अहंकारी का साथ तुरंत त्याग देना चाहिए। किसी के मोह में पड़कर दूसरे के साथ अन्याय घोर अधर्म है। आप कौरवों और पांडवों के साथ समान रूप से कोमलता का व्यवहार कीजिए। ऐसा करने से आपको इस लोक में सुयश तो प्राप्त होगा ही, मृत्यु के बाद स्वर्गलोक की प्राप्ति होगी।’ विदुर को श्रीकृष्ण का पूर्ण आशीर्वाद प्राप्त था। भगवान श्रीकृष्ण भी उनकी धर्मपरायणता तथा भक्ति भावना के कायल थे।

रविवार, जून 20, 2010

विनम्रता

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शिक्षाविद और राजनेता डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी 1952 में भगवान बुद्ध के दो प्रधान शिष्यों सारिपुत्त और महमोग्गलामने के पवित्र भस्मावशेष लेकर म्यांमार गए थे। उसके बाद कंबोडिया के बौद्ध धर्मावलंबियों ने उन्हें अपने देश में आमंत्रित किया। कंबोडिया की राजधानी नॉमपेन्ह में आयोजित बौद्ध महासम्मेलन में उन्होंने कहा, ‘भगवान बुद्ध सनातन धर्मियों द्वारा दशावतार के रूप में पूजे जाते हैं। धर्म के नाम पर प्रचलित ऊंच-नीच की कुप्रवृत्ति के उन्मूलन में उनका योगदान सराहनीय है। उनके इस ऋण से हम कभी उऋण नहीं हो सकते।’ बौद्ध धर्म व दर्शन पर उनका भाषण सुनकर सभी प्रभावित हुए। सम्मेलन में उपस्थित कंबोडिया के एक बौद्ध लामा डॉ. मुखर्जी की श्रद्धा-भावना देखकर भाव-विह्वल हो उठे। वह मुखर्जी के पास पहुंचे और यह कहकर उनके पैरों की ओर झुके कि आप हमारे भगवान बुद्ध की पावन जन्मभूमि में जन्मे हैं, इसलिए हमारे लिए श्रद्धा भाजन हैं। इस पर मुखर्जी ने उन्हें रोकते हुए कहा, ‘आप भिक्षु हैं और हमारी संस्कृति में साधु-संतों के चरण स्पर्श करने की परंपरा है।’ यह कहते-कहते वह तुरंत उनके चरणों में झुक गए। डॉ. मुखर्जी जैसे अग्रणी नेता की इस विनम्रता को देखकर सभी हतप्रभ रह गए। डॉ. मुखर्जी परम धार्मिक व्यक्ति और विनम्रता की मूर्ति थे। 23 जून, 1953 को श्रीनगर में नजरबंदी के दौरान उनकी मृत्यु हो गई। नजरबंदी काल में भी प्रतिदिन दुर्गा सप्तशती का पाठ करने के बाद ही वह अन्न-जल ग्रहण करते थे

मंगलवार, जून 15, 2010

अहंकार पतन का कारण

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राजा भुवनेश्वर ने अनेक अश्वमेध और वाजपेय यज्ञ कराए थे। उन्हें अहंकार हो गया कि पृथ्वी पर उनसे बड़ा धर्मात्मा और कोई नहीं है। उन्होंने राज्य में घोषणा करा दी कि यज्ञ होम करके ही पूजा-उपासना की जा सकती है। जो इस आज्ञा का पालन नहीं करेगा, उसे दंड दिया जाएगा। राज्य में हरिमित्र नामक एक पहुंचे हुए भक्त रहते थे। एक दिन नदी के तट पर जब वह वीणा पर संकीर्तन कर रहे थे, तो राजा के दूत ने उन्हें देख लिया। उसने राजा से शिकायत कर दी कि एक ब्राह्मण यज्ञ होम करने की जगह मूर्ति के सामने नाच-गाकर भगवान को रिझाने का प्रयास कर रहा है। अहंकार में डूबे राजा ने हरिमित्र को पकड़कर दरबार में बुलवाया और पूछा, ‘तुम वेदों के अनुसार यज्ञ-हवन न करके मनमानि ढंग से कीर्तन द्वारा पूजा क्यों कर रहे हो?’ हरिमित्र का उत्तर था, ‘राजन, मैं वेदशास्त्रों के गूढ़ रहस्यों को नहीं समझ सकता। भगवान की मूर्ति के सामने नाच-गाकर उनके नाम का उच्चारण करने से मुझे परम शांति मिलती है।’ राजा संतुष्ट नहीं हुआ और उसने उन्हें राज्य से निकल जाने का आदेश दिया। कुछ दिनों बाद राजा भुवनेश्वर की मृत्यु हो गई। यमराज ने उनके कर्मों का खाता देखकर उन्हें उल्लू की योनि में भेजने का आदेश दिया। राजा ने सकपकाकर धर्मराज से पूछा, ‘मैंने जीवन में असंख्य अश्वमेध यज्ञ किए हैं। प्रजा को धर्मशास्त्रों के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। ऐसा फिर भला कौन सा पाप है, जो मुझे उल्लू योनि में भेजा जा रहा है?’ धर्मराज ने राजा को हरिमित्र वाली घटना की याद दिलाते हुए बताया, ‘अहंकार और मनमाने व्यवहार के कारण ही तुम्हारे तमाम पुण्य क्षीण हो गए हैं। इसलिए तुम्हें उल्लू योनि में भेजा जा रहा है।’ राजा समझ गया कि अहंकार पतन का कारण अवश्य बनता है

सोमवार, जून 14, 2010

प्रजा कल्याण

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सुरथ मनु धर्मात्मा राजा थे। प्रजा को किसी प्रकार का कष्ट हो, इसका वह विशेष ध्यान रखते थे। मेधा ऋषि से उन्होंने दीक्षा ली थी। गुरु ने उन्हें अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण रखने का उपदेश दिया। एक दिन किसी सलाहकार ने उनसे कहा, ‘राजा को प्रतिवर्ष अपने राज्य का विस्तार करते रहना चाहिए।सलाहकार की बातों ने राजा सुरथ के मन में राज्य विस्तार की आकांक्षा जगा दी। उन्होंने आसपास के अनेक राज्यों को अपने राज्य में मिला लिया। इस सफलता ने उनमें चक्रवर्ती सम्राट बनने की लालसा पैदा कर दी। एक बार उन्होंने सेना में वृद्धि कर कोवा विधवंशी नामक राजा पर आक्रमण कर दिया। पर उस राज्य के सैनिकों ने सुरथ की विशाल सेना का संहार कर दिया। सुरथ मनु इस हार से अत्यंत निराश हो गए। एक दिन वह मेधा ऋषि के आश्रम में पहुंचे और उनके चरणों में गिरकर बोले, ‘गुरुदेव, असीमित इच्छाओं के कारण मैं कहीं का रहा। मैं साधु बनकर आपके चरणों में जीवन बिताना चाहता हूं।गुरु ने कहा, ‘मैंने कहा था कि आकांक्षाएं सीमित रखनी चाहिए। राज-मद को पास नहीं फटकने देना चाहिए। तुमने मेरे वचनों का पालन नहीं किया। इसी से तुम्हारी यह दशा हुई है। अब धैर्य रखो।गुरु के शब्दों से उनकी निराशा दूर हुई। कुछ समय बाद उन्होंने अपना राज्य फिर से वापस पा लिया। उसके बाद तो सुरथ किसी भी प्रकार की आकांक्षा और मद से दूर रहकर प्रजा कल्याण में लगे रहे।


शनिवार, मई 22, 2010

साधु के लक्षण

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संत कबीरदास धर्म के नाम पर पाखंड करने वालों से बचकर रहने की प्रेरणा दिया करते थे। काशी के गंगातट पर वह किसी साधुवेशधारी को नशा करते या अमर्यादित आचरण करते देखते, तो उसे इन पाप कर्मों से बचने का सुझाव देते। एक बार किसी श्रद्धालु ने कबीर से पूछा, ‘साधु के लक्षण क्या होते हैं?’ उन्होंने तपाक से कहा, साधु सोई जानिए, चले साधु की चाल। परमारथ राता रहै, बोलै वचन रसाल। यानी संत उसी को जानो, जिसके आचरण संत की तरह शुद्ध हैं। जो परोपकार-परमार्थ में लगा हो और सबसे मीठे वचन बोलता हो। कबीरदास ने अपनी साखी में लिखा, ‘संत उन्हीं को जानो, जिन्होंने आशा, मोह, माया, मान, हर्ष, शोक और परनिंदा का त्याग कर दिया हो। सच्चे संतजन अपने मान-अपमान पर ध्यान नहीं देते। दूसरे से प्रेम करते हैं और उसका आदर भी करते हैं।’ उनका मानना था कि यदि साधु एक जगह ही रहने लगेगा,
तो वह मोह-माया से नहीं बच सकता। इसलिए उन्होंने लिखा, बहता पानी निरमला- बंदा गंदा होय। साधुजन रमता भला- दाग न लागै कोय। संत कबीरदास जानते थे कि ऐसा समय आएगा, जब सच्चे संतों की बात न मानकर लोग दुर्व्यसनियों की पूजा करेंगे। इसलिए उन्होंने लिखा था, यह कलियुग आयो अबै, साधु न मानै कोय। कामी, क्रोधी, मसखरा, तिनकी पूजा होय। आज कबीर की वाणी सच्ची साबित हो रही है तथा संत वेशधारी अनेक बाबा घृणित आरोपों में घिरे हैं।

शनिवार, मई 15, 2010

सीख

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परम बाबा देवरहा,विरक्त संत थे। वृंदावन में यमुना तट पर बने मचान में वह साधना में लीन रहते थे। अपने दर्शनार्थियों को बाबा हमेशा सदाचार का पालन करने, अपने कर्तव्यों को धर्म मानने और हर क्षण भगवान को याद रखने की प्रेरणा दिया करते थे। एक बार इलाहाबाद से कुछ भकतजन वृंदावन आए। वे बाबा के पूर्व परिचित थे, इसलिए बाबा के दर्शन के लिए पहुंचे। देवरहा बाबा ने पूछा बच्चा, प्रतिदिन भगवान की पूजा उनके नाम का जाप तो पूर्ववत चल रहा है न।  उनमें से एक ने कहा बाबा, हम पहले भगवान की पूजा करते थे। पर अब हमने एक संत को गुरु बना लिया है। उन्होंने कहा कि इतने वर्षों तक पूजा करने के बाद भी भगवान के दर्शन नहीं कर पाए। इसलिए अब हमारे दर्शन कर समझ लो कि ईश्वर के दर्शन कर रहे हो। मेरे नाम का जप करो। उनके आदेश से ही हमने राम-कृष्ण की पूजा छोड़ दी है। अब उन्हीं के नाम का कीर्तन करते  हैं। यह सुनकर देवरहा बाबा बोले बेटा, तुम कलियुग के प्रभाव में गए हो। स्वयंभू अवतार के झांसे में आकर भटक गए हो। जो संत भगवान की पूजा छुड़वाकर अपनी पूजा कराता है और अपने नाम का मंत्र देता है, वह भगवान तो छोड़ो, संत भी नहीं है। सच्चा संत वही है, जो अपने को तुच्छ समझता है। भगवान के भजन का तरीका बताता है।’ बाबा देवरहा  के वचन सुनकर उनकी आंखें खुल गईं। और उन्होंनेऊं नमो भगवते वासुदेवायमंत्र का जाप करने का संकल्प ले लिया। 
 
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