परम बाबा देवरहा,विरक्त संत थे। वृंदावन में यमुना तट पर बने मचान में वह साधना में लीन रहते थे। अपने दर्शनार्थियों को बाबा हमेशा सदाचार का पालन करने, अपने कर्तव्यों को धर्म मानने और हर क्षण भगवान को याद रखने की प्रेरणा दिया करते थे। एक बार इलाहाबाद से कुछ भकतजन वृंदावन आए। वे बाबा के पूर्व परिचित थे, इसलिए बाबा के दर्शन के लिए पहुंचे। देवरहा बाबा ने पूछा बच्चा, प्रतिदिन भगवान की पूजा व उनके नाम का जाप तो पूर्ववत चल रहा है न। उनमें से एक ने कहा बाबा, हम पहले भगवान की पूजा करते थे। पर अब हमने एक संत को गुरु बना लिया है। उन्होंने कहा कि इतने वर्षों तक पूजा करने के बाद भी भगवान के दर्शन नहीं कर पाए। इसलिए अब हमारे दर्शन कर समझ लो कि ईश्वर के दर्शन कर रहे हो। मेरे नाम का जप करो। उनके आदेश से ही हमने राम-कृष्ण की पूजा छोड़ दी है। अब उन्हीं के नाम का कीर्तन करते हैं। यह सुनकर देवरहा बाबा बोले बेटा, तुम कलियुग के प्रभाव में आ गए हो। स्वयंभू अवतार के झांसे में आकर भटक गए हो। जो संत भगवान की पूजा छुड़वाकर अपनी पूजा कराता है और अपने नाम का मंत्र देता है, वह भगवान तो छोड़ो, संत भी नहीं है। सच्चा संत वही है, जो अपने को तुच्छ समझता है। भगवान के भजन का तरीका बताता है।’ बाबा देवरहा के वचन सुनकर उनकी आंखें खुल गईं। और उन्होंने ‘ऊं नमो भगवते वासुदेवाय’ मंत्र का जाप करने का संकल्प ले लिया।
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