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सोमवार, नवंबर 01, 2010

विश्‍वास और श्रद्धा

भगवान बुद्ध धर्म प्रचार करते हुए काशी की ओर जा रहे थे। रास्ते में जो भी उनके सत्संग के लिए आता, उसे वह बुराइयां त्यागकर अच्छा बनने का उपदेश देते। उसी दौरान उन्हें उपक नाम का एक गृहत्यागी मिला। वह गृहस्थ को सांसारिक प्रपंच मानता था और किसी मार्गदर्शक की खोज में था। भगवान बुद्ध के तेजस्वी निश्छल मुख को देखते ही वह मंत्रमुग्ध होकर खड़ा हो गया। उसे लगा कि पहली बार किसी का चेहरा देखकर उसे अनूठी शांति मिली है। उसने अत्यंत विनम्रता से पूछा, ‘मुझे आभास हो रहा है कि आपने पूर्णता को प्राप्त कर लिया है?’ बुद्ध ने कहा, ‘हां, यह सच है। मैंने निर्वाणिक अवस्था प्राप्त कर ली है।
उपक यह सुनकर और प्रभावित हुआ। उसने पूछा, ‘आपका मार्गदर्शक गुरु कौन है?’ बुद्ध ने कहा, ‘मैंने किसी को गुरु नहीं बनाया। मुक्ति का सही मार्ग मैंने स्वयं खोजा है।
क्या आपने बिना गुरु के तृष्णा का षय कर लिया है?’
बुद्ध ने कहा, ‘हां, मैं तमाम प्रकार के पापों के कारणों से पूरी तरह मुक्त होकर सम्यक बुद्ध हो गया हूं।
उपक को लगा कि बुद्ध अहंकारवश ऐसा दावा कर रहे हैं। कुछ ही दिनों में उसका मन भटकने लगा। एक शिकारी की युवा पुत्री पर मुग्ध होकर उसने उससे िवाह कर लिया। फिर उसे लगने लगा कि अपने माता-पिता परिवार का त्यागकर उनसे एक प्रकार का विश्वासघात किया है। वह फिर बुद्ध के पास पहुंचा। संशय ने पूर्ण विश्वास श्रद्धा का स्थान ले लिया। वह बुद्ध की सेवा-सत्संग करके स्वयं भी मुक्ति पथ का पथिक बन गया।

3 Reviews:

JAGDISH BALI on 1 नवंबर 2010 को 9:41 am बजे ने कहा…

आच्छा लगा!

डॉ. मोनिका शर्मा on 1 नवंबर 2010 को 11:47 am बजे ने कहा…

achhi bodhkatha....bahut sunder....

aarkay on 1 नवंबर 2010 को 2:57 pm बजे ने कहा…

विश्वास एवं श्रद्धा दोनों ही मुक्ति के प्रयास के लिए आवश्यक हैं . अति सुंदर !

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