google.com, pub-7517185034865267, DIRECT, f08c47fec0942fa0 आधारशिला : परम संतोष

सोमवार, जून 21, 2010

परम संतोष

धृतराष्ट्र समय-समय पर महात्मा विदुर के सत्संग के लिए लालायित रहा करते थे। वह जानते थे कि विदुर जो सलाह देते हैं, वह पूर्णतया धर्मसम्मत होती है। वह उनके कटु लगने वाले वचनों को भी कल्याणकारक मानते थे। एक दिन विदुर जी ने धृतराष्ट्र को उपदेश देते हुए कहा, ‘राजन, केवल धर्म ही कल्याणकारक है। एकमात्र क्षमा ही शांति का सर्वश्रेष्ठ उपाय है। विद्या ही परम संतोष देने वाली है। काम, क्रोध और लोभ, मनुष्य के पुण्य का नाश करने वाले नरक के तीन दरवाजे हैं। अतः हर हाल में इनका त्याग करना चाहिए।’ जब उन्होंने देखा कि धृतराष्ट्र पुत्रमोह में सत्य की अवहेलना कर रहे हैं, तो विदुर जी ने कहा, ‘जैसे नदी के पार जाने के लिए नाव ही एकमात्र साधन है, उसी प्रकार स्वर्ग के लिए सत्य ही एकमात्र सोपान है।’ विदुर जी जानते थे कि मोह के कारण ही धृतराष्ट्र पतन को प्राप्त होंगे। इसलिए वह उनसे अकसर कहते, ‘जैसे सूखी लकड़ी में मिल जाने से गीली लकड़ी भी जल जाती है, ठीक उसी तरह दुष्टों का त्याग न करने और उनके साथ मिले रहने से निरपराध सज्जनों को भी दंड भोगना पड़ता है, इसलिए दुर्व्यसनी एवं अहंकारी का साथ तुरंत त्याग देना चाहिए। किसी के मोह में पड़कर दूसरे के साथ अन्याय घोर अधर्म है। आप कौरवों और पांडवों के साथ समान रूप से कोमलता का व्यवहार कीजिए। ऐसा करने से आपको इस लोक में सुयश तो प्राप्त होगा ही, मृत्यु के बाद स्वर्गलोक की प्राप्ति होगी।’ विदुर को श्रीकृष्ण का पूर्ण आशीर्वाद प्राप्त था। भगवान श्रीकृष्ण भी उनकी धर्मपरायणता तथा भक्ति भावना के कायल थे।

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