राजा गिरिसेन ने जुनगा को अपने राज्य की राजधानी बनाया। कुलदेवी होने के नाते वे भगवती तारा को भी (मूर्ति रूप में) अपने साथ ही लाए थे। सेनवंश के सभी राजाओं तथा राजपरिवार पर भगवती तारा की असीम कृपा रही है। संकट की घड़ी में भगवती तारा ने हर प्रकार से उनकी सहायता की है।
एक बार अपने राज्यकाल में तत्कालीन क्योंथल रियासत (जुनगा) के राजा भूपेन्द्र सेन जुग्गर के घने जंगल में शिकार खेलने पहुंचे। उन्हें वहां पहुंचे कुछ ही समय हुआ था कि सहसा उन्हें उस स्थान पर भगवती तारा की विद्यमानता का आभास हुआ। भगवती ने आवाज+ देकर कहा- ''हे राजन्! तुम्हारी वंश परम्परा बंगाल से चली आ रही है। मैं दश महाविद्याओं में से एक महाविद्या हूँ।'' इस आवाज़ को सुनकर राजा आश्यर्चचकित हो गए और हने लगे- ''हे माता! यदि यह आवाज़ वास्तव में आपकी ही है, तो साक्षात् रूप में प्रकट होकर दर्शन देकर कृतार्थ करो।'' राजा के इस प्रकार कहने पर माता ने साक्षात् दर्शन दिए और कहा- ''राजन्! तुम मेरे स्थान का निर्माण करो। मैं सदैव तुम्हारे साथ रहकर तुम्हारे वंश तथा राज्य की रक्षा करूंगी।'' ऐसा कहकर उसी क्षण भगवती अदृश्य हो गईं।
भगवती के इस प्रत्यक्ष चमत्कार से प्रभावान्वित होकर राजा भूपेन्द्र सेन ने भगवती के आदेशानुसार वहां एक मन्दिर का निर्माण करवाया तथा उस मन्दिर में भगवती तारा की मूर्ति को प्रतिष्ठापित करवाया। साथ ही एक बड़ा भूक्षेत्र भी मन्दिर के नाम दान कर दिया। यहां भगवती तारा प्रत्यक्ष रूप में स्वयं प्रकट हुई थीं। इस कारण यह प्रमुख स्थान माना जाता है। पूर्व काल में इस मन्दिर में विधिवत् पूजा हुआ करती थी। इस कार्य के लिए एक पुजारी को यहां नियुक्त किया गया था। उसके बाद उसके वंशज पूजा-अर्चना का कार्य किया करते थे। परन्तु किसी कारणवश एक ऐसा समय आया कि धीरे-धीरे उक्त परिवार का प्रायः अन्त हो गया और यहां की सारी व्यवस्था में व्यवधान पड़ गया। मन्दिर जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पहुंच गया।
परन्तु श्रद्धालुओं के लिए यह प्रसन्नता का विषय है कि कुछ समय पूर्व ही श्री तारादेवी मन्दिर न्यास ने स्थानीय लोगों के प्रशंसनीय योगदान से इस स्थान पर एक नए मन्दिर का निर्माण करवाया है। मन्दिर की वास्तुशैली भी आकषर्क है। जुग्गर मन्दिर शिलगांव चक के अन्तर्गत आता है। इसलिए वहां के निवासी ही मुख्यरूप से वर्षों से इस मन्दिर की देख-रेख तथा कार्यभार के उत्तरदायित्व को निभाते चले आ रहे हैं। छठे महीने अर्थात् वर्ष में दो बार ये सभी लोग मिलजुल कर इस मन्दिर में विशेष पूजा-अर्चना तथा कड़ाही-प्रसाद की व्यवस्था करते हैं। ये सभी लोग इस बात को भी मानते हैं कि भगवती कृपा सदैव इन पर बनी रहती है।
एक समय महात्मा ताराधिनाथ नामक एक सिद्ध योगी घूमते-घुमाते तारब के जंगल में पहुंच गए। उन्होंने सांसारिक बन्धनों का त्योग कर दिया था। अभीष्ट सिद्धि की प्राप्ति हेतु कठोर तपस्या तथा योगशक्ति के बल पर उन्होंने अलौकिक शक्तियों से सामंजस्य स्थापित कर लिया था। वे भगवती तारा के अनन्य उपासक थे। वे इस जंगल के उच्च शिखर पर अपने आगे धूनी लगाकर अपने आसन पर ध्यानमुद्रा में बैठे रहा करते थे। जब वर्षा होती थी तो एक बूँद भी उनकी धूनी तथा उनके आसन पर नहीं गिरती थी। वह स्थान को वर्षा से अप्रभावित रहा करता था। जो लोग भी वहां जाते थे, वे इस चमत्कार को देखकर अचम्भित होते थे।
श्री तारादेवी मन्दिर में 7 अगस्त, 1970 को एक बहुत ही निन्दनीय घटना घटित हुई। अर्धरात्रि के समय कुछ लुटेरों ने मन्दिर के द्वार को तोड़कर गर्भगृह में प्रवेश किया। भगवती तारा की मूर्ति को उठाकर वे भागने लगे। वे कुछ ही दूरी तक मूर्ति को ले जा सके थे कि उनका दम घुटने लगा। उनकी आंखों के आगे अन्धेरा छा गया। उन्हें आगे जाने का रास्ता नहीं सूझा। भगवती की अद्भुत शक्ति ने लुटेरों के इस नीचतापूर्ण दुष्कृत्य को विफल कर दिया। विवश होकर उन लुटेरों ने भगवती की मूर्ति को एक बड़ी झाड़ी के बीच फैंक कर छोड़ दिया और वे स्वयं रात्रि के अंधेरे का लाभ उठाकर भाग निकले।
क्योंथल राजवंश की अपनी कुलदेवी भगवती तारा के प्रति अटूट श्रद्धा है। वे समय-समय पर अपने कल्याणार्थ तथा सर्वजनहितार्थ श्री तारादेवी मन्दिर में अनुष्ठान करवाते रहते हैं।
श्री तारादेवी मन्दिर में आने वाले श्रद्धालुओं में से अनेक ऐसे भी हैं, जो भगवती का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए अथवा मांगी गई मन्नत पूरी होने पर दूर-दूर से नंगे पावं पैदल चलकर यहां पहुंचते हैं।
वस्तुतः भगवती सम्पूर्ण जगत की अधीश्वरी हैं। वे अपने भक्तों की रक्षा तथा कल्याण के लिए ही प्रकट रूप में इस मन्दिर में निवास करती हैं।