एक बार भगवन श्रीकृषण और युधिष्टर धर्म चर्चा कर रहे थे ! श्रीकृषण ने मानव के कर्तव्यों पर प्रकाश डालते हुए कहा की हर मानव, देवता अतिथि प्रिय जनों तथा पितरों का ऋणी होता है ! इसलिए मानव का कर्त्तव्य है की वह अपने जीवन में ही इनका ऋण ज़रूर चुकाने का प्रयास करें ! श्रीकृषण ने बताया की वेद शास्त्रों के स्वाध्याय द्वारा ऋषिओं के ऋण ,यज्ञ कर्म द्वारा देवताओं के ऋण, श्राद्ध से पितरों के ऋण तथा स्वागत से अतिथियों के ऋण से छुटकारा पाया जा सकता है और उपयुक्त पालन पोषण से प्रिय जनों के ऋण से मुक्ति मिलती है !
अतिथि सेवा को सर्वोपरि महत्त्व देते हुए उन्होंने बताया गृहस्थ पुरुष कभी भी अतिथि का अनादर न करे ! अतिथि घर पर आये तो उसका यथाशक्ति आदर करे ! भोजन के समय यदि चंडाल भी आ जाये तो गृहस्थ को अन्न द्वारा उसका सत्कार करना चाहिए ! जो व्यक्ति किसी भिक्षु या अतिथि के भय से अपने घर का दरवाजा बंद कर भोजन करता है वह अपने लिए स्वर्ग के दरवाजे बंद कर देता है ! जिस गृहस्थ के दरवाजे से कोई अतिथि निराश लोट जाता है वह उस गृहस्थ को अपना पाप दे उसका पुण्य ले कर चला जाता है ! जो ऋषि विद्वानों ,अतिथिओं और निराश्रय मानव को अन्न से तृप्त करता है उसकों महान पुण्य की प्राप्ति होती है ! अतिथि सेवा का महत्त्व सुन कर युधिष्टर गदगद हो गए !
2 Reviews:
उत्तम आलेख....
दीपोत्सव की बधाई !
Darasal ek adrishy shkti hai jo hamare har karmon ka hisab kitab rakhti hai aur hamen hamare karmon ke hisab se subhphal aur ashubh fhal prdan karti hai.HAM SABHI KO US ADRISHY SHAKTI SE NYAY KI AASHA KE LIYE SADKRM KARNA CHAHIYE AUR HAR ANYAY KA WIRODH JAROOR KARNA CHAHIYE.
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