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सोमवार, अगस्त 10, 2015

ज़िन्दगी

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किराए की ज़िन्दगी किरायेदार हूँ
अपनों के लिए बासा अखवार हूँ
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ज़ारी है

बुधवार, जुलाई 01, 2015

तबियत

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तबियत भी क्या है की संभलती नहीं
फितरत इन्सां की कभी बदलती नहीं

मर मर के जी रहा हूँ देख ले यारब
अपनों की नज़र  कभी दिखती नहीं

गुरुवार, मई 15, 2014

जीवन का सार

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पदचिन्‍ह 
जो छोड़ जाते है
अग्रज
वही होते है
जीवन की धूरी
चलना होता है
उन्‍ही पर
जीवन पर्यन्‍त
अंतत:
वही है जीवन की पूंजी
अनुभव
और जीवन का सार

शनिवार, अप्रैल 05, 2014

ज़िल्लत की ज़िन्दगी

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ज़िल्लत की ज़िन्दगी जियो
अश्क अन्दर ही अन्दर पियो
देख ली तेरी खुदाई यारब
लानत है अब तो लब सियो

गुरुवार, अप्रैल 03, 2014

फासले

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लोगों ने बेवजह फासले बना लिए
परिंदों ने नए घोसले बना लिए

मंगलवार, मार्च 18, 2014

कैसी दिवाली कैसी होली

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कैसी दिवाली कैसी होली
धूमिल रौशनी फीकी रंगोली
कुछ पास कुछ बहुत दूर
दूषित है अपनों की बोली
कैसा प्रेम कहाँ का नाता
बहरूपियों ठगों की टोली
हवाओं में अजब सन्नाटा
ज़हर भरी कुटिल ठिठोली
कैसे खेलूं कंच्चे गिली डंडा
खो गए है प्रिय हमजोली
जड़े गहरी है वर्गभेद की 
कौन समझेगा मेरी बोली

रविवार, मार्च 16, 2014

पाकदामन

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गुनाहगारों में शामिल है सब 
क्योंकर कहूँ पाकदामन हूँ मैं

सोमवार, फ़रवरी 03, 2014

मायने बदल गए

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संबधों के मायने बदल गए है
चेहरे वही आईने बदल गये हैं

दरो दीवार वही लोग है वही
परिवार के सयाने बदल गए है

सभी तोहमते है मेरे लिए 
खास तराने बदल गए है 

कोन करे भरोसा शमा  का 
अब तो परवाने बदल गए है

कैसे कहां करे बात दिल की
इश्‍क वही दीवाने बदल गए है

हस दिए आप भी विक्षिप्‍त पर
अजी दोस्‍त पुराने बदल गए है

गुरुवार, अगस्त 15, 2013

दर्द देने वाले

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दर्द देने वाले ही दवा दे रहे है
दबे अलाव को हवा दे रहे है

रविवार, अगस्त 11, 2013

नींद चीज है बड़ी

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नींद चीज है बड़ी  उंघते रहिए
बेफिक्री में आंखे मूंदते रहिए
आग लगती है लगे हमको क्‍या
आम दशहरी जनाब चूसते रहिए
मौका मिले तो तंज कर लो
नहीं तो मस्‍ती में झूमते रहिए
आसां नहीं है अ‍हम को तोड़ना
दुनिया अजब है घूमते रहिए
अदाकार आप खूब है जनाब 
सूत्रधार की भूमिका निभाते रहिए
बातें विक्षिप्‍त की है आपसे बाहर
हंसी चेहरे पर कूटिल दिखाते रहिए 

रविवार, फ़रवरी 10, 2013

कैसा असर चढ़ा है जनाब

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कैसा असर चढ़ा है जनाब
सच बेजुवान पड़ा है जनाब

सम्‍बधों की परिभाषा क्‍या
काला चश्‍मा चढ़ा है जनाब


अच्‍छे बुरे की पहचान तो है
कुछ कानून हमने पढ़ा है जनाब


खुशबु फैलाओ तो बात बने
विष यहां भरा पड़ा है जनाब


समझाया आपने, समझा  कुछ नहीं
अपंगों ने युद्ध कहां लड़ा है जनाब


यही तो पता नहीं है क्‍यों है विक्षिप्‍त
बतायें किसका असर चढ़ा है जनाब

शुक्रवार, जनवरी 11, 2013

पराजय

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कविता पराजय स्‍वर मानसी जसवाल

परिवर्तन

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कविता परिवर्तन का सस्‍वर पाठ

शुक्रवार, अप्रैल 22, 2011

ग़ज़ल

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पत्ते जीवन के कब बिखर जाए क्‍या मालूम
शाम जीवन की कब हो जाए क्‍या मालूम

बन्‍द हो गए है रास्‍ते सभी गुफतगू के
अब वहां कौन कैसे जाए क्‍या मालूम

झूठ पर कर लेते है विश्‍वास सब
सच कैसे सामने आए क्‍या मालूम

दो मुहें सापों से भरा है आस पास
दोस्‍त बन कौन डस जाए क्‍या मालूम

विक्षिप्‍त की दुनिया है बेतरतीव बेरंग
कोई संगकार सजा जाए क्‍या मालूम

बुधवार, सितंबर 08, 2010

विश्‍वास तुम्‍हारा

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शहर मे जब हो
अराजकता
सुर‍क्षित ना हो आबरू
स्‍वतंत्र ना हो सासें
मोड़ पर खड़ी हो मौत
तो मैं कैसे करू विश्‍वास तुम्‍हारा,
बाहर से दिखते हो सुन्‍दर
रचते हो भीतर भीतर ही षड़यंत्र
ढूंढते रहते हो अवसर
किसी के कत्‍ल का
तो मैं कैसे विश्‍वास कंरू तुम्‍हारा,
तुम्‍हारा विश्‍वास नहीं कर सकता मैं
सांसों में तुम्‍हारी बसता है कोई और
तुम बादे करते हो किसी और से
दावा
करते हो तुम विश्‍वास का
परन्‍तु तुम में भरा  है अविश्‍वास,
माना विक्षिप्‍त हूं मैं
कंरू मैं कैसे विश्‍वास तुम्‍हारा
तुम और तुम्‍हारा शहर
नहीं है मेरे विश्‍वास का पात्र। 

शुक्रवार, मई 21, 2010

इसे मैं शीर्षक नहीं दे पाया

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(समीर जी के लेख "मैं कृष्ण होना चाहता हूं" से प्रेरित हो कर) 
छायाचित्र साभार: समीर जी के लेख से

हर एक में कहीं
भीतर ही होता है कृष्ण
और होता है
एक निरंतर महाभारत
भीतर ही भीतर,
क्यों ढूढते है हम सारथी
जब स्वयं में है कृष्ण,
मैं तुम और हम में बटा ये चक्रव्यूह
तोड़ता है भीतर का ही अर्जुन,
माटी है और सिर्फ माटी है
हर रोज यहां देखता हुं
मैं तुम और हम का कुरुक्षेत्र !!

सोमवार, अगस्त 24, 2009

तलाश

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मन में अगर कुछ कर गुजरने की चाह हो तो रास्तें खुद ही निकल आते है ! मस्कुलर डिसट्राफी एक ऐसा रोग है जो व्यक्ति को लगभग नकारा कर देता है ! पिछले दिनों एक नवोदित रचनाकार प्रवीण कुमार अम्बडिया का काव्य संग्रह तलाश पढ़ने का मोका मिला ! हिमाचल प्रदेश के काँगड़ा जिला के अम्बाडी गाँव में ३० जून १९७७ को जन्मे प्रवीण को दूसरी कक्षा में पढ़ते ही मस्कुलर डिसट्राफी ने अपंग कर दिया ! प्रवीण ने कुछ समय तो स्कुल में अध्ययन किया परन्तु आठवीं कक्षा के बाद प्रवीण को स्कुल छोड़ना पड़ा !
प्रवीण ने अपनी विकलागता को अपने जीवन में रूकावट नहीं बनने दिया ! साहित्य में रूचि ने कविता लेखन की तरफ अग्रसर किया ! प्रवीण अब तक लगभग ५०० कवितायेँ लिख चुका है ! तलाश में प्रवीण की करीब ३५ कवितायेँ है जिनमे से कुछ कविताये बरबस ही मन को
प्रभित करती है ! विकलागंता, खुशियाँ, मस्त पवन, जीने का इरादा, मैं हूँ नन्ही सी परी, हे माँ आदि प्रभावित करने वाली कवितायेँ है !
हिमाचल के सोलन स्तिथ इंडियन एसोसिअशन ऑफ़ मस्कुलर डिसट्राफी द्वारा प्रकशित प्रवीण के काव्य संग्रह का मूल्य ५० रुपये है ! यह सहयोग प्रवीण को मस्कुलर डिसट्राफी से लड़ने के प्रेरित करेगा ! मैं पाठकों के सुविधा के लिए एसोसिअशन का पता दे रहा हूँ जहाँ से अधिक जानकारी प्राप्त की जा सकती है !
इंडियन एसोसिअशन ऑफ़ मस्कुलर डिसट्राफी
हॉस्पिटल रोड, सोलन १७३ २१२
फोन ०१७९२ २२३१८३ , ९८१६९ ०५११८
 
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