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बुधवार, सितंबर 08, 2010

विश्‍वास तुम्‍हारा



शहर मे जब हो
अराजकता
सुर‍क्षित ना हो आबरू
स्‍वतंत्र ना हो सासें
मोड़ पर खड़ी हो मौत
तो मैं कैसे करू विश्‍वास तुम्‍हारा,
बाहर से दिखते हो सुन्‍दर
रचते हो भीतर भीतर ही षड़यंत्र
ढूंढते रहते हो अवसर
किसी के कत्‍ल का
तो मैं कैसे विश्‍वास कंरू तुम्‍हारा,
तुम्‍हारा विश्‍वास नहीं कर सकता मैं
सांसों में तुम्‍हारी बसता है कोई और
तुम बादे करते हो किसी और से
दावा
करते हो तुम विश्‍वास का
परन्‍तु तुम में भरा  है अविश्‍वास,
माना विक्षिप्‍त हूं मैं
कंरू मैं कैसे विश्‍वास तुम्‍हारा
तुम और तुम्‍हारा शहर
नहीं है मेरे विश्‍वास का पात्र। 

10 Reviews:

नीलम शर्मा 'अंशु' on 8 सितंबर 2010 को 8:21 am बजे ने कहा…

आज का यथ्रार्थ यही है लेकिन इतना भी निऱाश होने की आवश्यकता नहीं, अभी भी कुछ अच्छे और विश्वसनीय पात्र बचे हुए हैं इस जहां में।
बस चंद लोगों की वजह से हम हरेक को शक के पैमाने से देखते हैं और यहीं चूक जाते हैं हम।


हमारे ऑफिस में एक किसी अच्छी बुक कंपनी के प्रतिनिधि के तौर पर किताबों की प्रोमोशन के लिए एक युवक दो-तीन बार आया था लगभग चौदह पंद्रह साल पहले। मेरा बहुत परिचित भी नहीं था। उसने मुझसे एप्लीकेशन फॉर्म भरने के लिए 50 रुपए मांगे और अपने घऱ के पते की एक स्लिप पकड़ा गया। मैंने एक बेरोजगार युवक की सहायता समझ उस स्लिप को कैजुयली टेबल के ड्रॉयर में सरका दिया यह सोच कर कि भविष्य ही बताएगा कि वह युवक फिर कभी आएगा या नहीं। और आज तक उसका पता नहीं। मुझे तो नाम या शक्ल तक याद नहीं। यह ज़रूरी तो नहीं था कि फॉर्म भरते ही उसे नौकरी मिल ही जाती।


इस तरह के कई किस्से और हैं महानगर में रहने के नाते। क्या होता है कि ऐसे में हम कई बार सही मायने मे ज़रूरतमंद व्यक्ति की सहायता करने से चूक जाते हैं।

माना कि विक्षिप्त हूं........

सुंदर अभिव्यक्ति।

Udan Tashtari on 8 सितंबर 2010 को 8:22 am बजे ने कहा…

बहुत सही!

abhi on 8 सितंबर 2010 को 11:40 am बजे ने कहा…

अच्छी लगी..!

Unknown on 8 सितंबर 2010 को 3:34 pm बजे ने कहा…

badhiya kavita ........

चला बिहारी ब्लॉगर बनने on 8 सितंबर 2010 को 6:26 pm बजे ने कहा…

एक सम्वेदनशील व्यक्ति का वास्तविक पीड़ा...

चन्द्र कुमार सोनी on 8 सितंबर 2010 को 11:34 pm बजे ने कहा…

excellent.
thanks.
WWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM

डॉ. मोनिका शर्मा on 8 सितंबर 2010 को 11:35 pm बजे ने कहा…

सुंदर और संवेदनशील प्रस्तुति.....

aarkay on 9 सितंबर 2010 को 1:38 pm बजे ने कहा…

बहुर सुंदर शब्दों में आज के यथार्थ को दर्शाती कविता !

"मैं किस के हाथ पे अपना लहू तलाश करूं
तमाम शहर नें पहने हुए हैं दस्ताने "

-किस का विश्वास करें किस का न करें
असमंजस की स्थिति रहती है .

Arpit Shrivastava on 10 सितंबर 2010 को 12:14 am बजे ने कहा…

Bahut Badhiya vikshipt Ji

JAGDISH BALI on 23 सितंबर 2010 को 6:37 pm बजे ने कहा…

सच्ची बात कही थी मैने, लोगों ने सूली पर चढ़ाया !
ज़हर का जाम पिलाया. फ़िर भी चैन न आया !

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