पत्ते जीवन के कब बिखर जाए क्या मालूम
शाम जीवन की कब हो जाए क्या मालूम
बन्द हो गए है रास्ते सभी गुफतगू के
अब वहां कौन कैसे जाए क्या मालूम
झूठ पर कर लेते है विश्वास सब
सच कैसे सामने आए क्या मालूम
दो मुहें सापों से भरा है आस पास
दोस्त बन कौन डस जाए क्या मालूम
विक्षिप्त की दुनिया है बेतरतीव बेरंग
कोई संगकार सजा जाए क्या मालूम
9 Reviews:
बस यही सब रंग हैं दुनिया के.....
बेहतरीन प्रस्तुति। शानदार गजल। आभार।
बहुत सुन्दर गजल है
विक्षिप्त जी, बहुत देर से आए पर बहुत दरुस्त आए
" मैं किस के हाथों पे अपना लहू तलाश करूं
तमाम शहर ने पहने हुए हैं दस्ताने "
उम्दा ग़ज़ल !
bahut sundar bhaav hai Roshan ji shukriya !
दो मुँहे सांप: आज ऐसा ही दिखाई दे रहा है.
बहुत सुन्दर. बधाई स्वीकारें
बेहतरीन !
अच्छा संकलन अनुभूति का ,बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति.
'दो मुहें साँपों से भरा है आस पास
दोस्त बन कौन डस जाये क्या मालूम '
.........................बढ़िया शेर ....उम्दा ग़ज़ल
एक टिप्पणी भेजें
" आधारशिला " के पाठक और टिप्पणीकार के रूप में आपका स्वागत है ! आपके सुझाव और स्नेहाशिर्वाद से मुझे प्रोत्साहन मिलता है ! एक बार पुन: आपका आभार !