google.com, pub-7517185034865267, DIRECT, f08c47fec0942fa0 आधारशिला : ग़ज़ल

शुक्रवार, अप्रैल 22, 2011

ग़ज़ल


पत्ते जीवन के कब बिखर जाए क्‍या मालूम
शाम जीवन की कब हो जाए क्‍या मालूम

बन्‍द हो गए है रास्‍ते सभी गुफतगू के
अब वहां कौन कैसे जाए क्‍या मालूम

झूठ पर कर लेते है विश्‍वास सब
सच कैसे सामने आए क्‍या मालूम

दो मुहें सापों से भरा है आस पास
दोस्‍त बन कौन डस जाए क्‍या मालूम

विक्षिप्‍त की दुनिया है बेतरतीव बेरंग
कोई संगकार सजा जाए क्‍या मालूम

9 Reviews:

डॉ. मोनिका शर्मा on 22 अप्रैल 2011 को 9:34 pm बजे ने कहा…

बस यही सब रंग हैं दुनिया के.....

Amit Chandra on 22 अप्रैल 2011 को 9:49 pm बजे ने कहा…

बेहतरीन प्रस्तुति। शानदार गजल। आभार।

Dr. Yogendra Pal on 22 अप्रैल 2011 को 10:16 pm बजे ने कहा…

बहुत सुन्दर गजल है

aarkay on 23 अप्रैल 2011 को 2:41 pm बजे ने कहा…

विक्षिप्त जी, बहुत देर से आए पर बहुत दरुस्त आए

" मैं किस के हाथों पे अपना लहू तलाश करूं
तमाम शहर ने पहने हुए हैं दस्ताने "

उम्दा ग़ज़ल !

आनंद on 24 अप्रैल 2011 को 7:02 pm बजे ने कहा…

bahut sundar bhaav hai Roshan ji shukriya !

​अवनीश सिंह चौहान / Abnish Singh Chauhan on 24 अप्रैल 2011 को 8:26 pm बजे ने कहा…

दो मुँहे सांप: आज ऐसा ही दिखाई दे रहा है.
बहुत सुन्दर. बधाई स्वीकारें

abhi on 26 अप्रैल 2011 को 7:20 am बजे ने कहा…

बेहतरीन !

Unknown on 29 अप्रैल 2011 को 9:58 pm बजे ने कहा…

अच्छा संकलन अनुभूति का ,बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति.

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " on 7 मई 2011 को 12:22 pm बजे ने कहा…

'दो मुहें साँपों से भरा है आस पास

दोस्त बन कौन डस जाये क्या मालूम '

.........................बढ़िया शेर ....उम्दा ग़ज़ल

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