ऊन
और सिलाइयों के बीच
अंगुलियां
बुन डालती थी
जुराबें सर्दियों के लिए,
टीवी पर
निरतन्तर देखते
धारावाहिक के बीच ही
देख लेती भी
जुराबों और पाँव का नाप,
नई पुरानी ऊन से
बुने जाते थे
स्वेटर रंग बिरंगे,
इन्ही बुनते उधड़ते
स्वेटरों जुराबों से ही
दी जाती थे
ढेरों नसीहतें,
रंग बिरंगी
जुराबे स्वेटरे
सुना डालती थी
समाज का रंग ढंग
रिश्तों नातों की मिठास
ये
उस समय की बात है
जब ज़िंदा थी माँ... ।
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शुक्रवार, जनवरी 20, 2017
सर्दियाँ
बुधवार, अक्तूबर 12, 2016
शब्द
शब्द
कुछ अपने
कुछ पराये,
कुछ अपने
कुछ पराये,
शब्द
कुछ छोटे
कुछ बड़े,
कुछ छोटे
कुछ बड़े,
शब्द
कुछ साथ
कुछ अकेले,
कुछ साथ
कुछ अकेले,
शब्द
कुछ थुलथुले
कुछ बुलबुले,
कुछ थुलथुले
कुछ बुलबुले,
शब्द ही तो
मात्र शब्द
नि:शब्द ।।
मात्र शब्द
नि:शब्द ।।
गुरुवार, अप्रैल 07, 2016
आदमी आदमी को लूटता है
आदमी आदमी को ही लूटता है
अपना पराया सभी को लूटता है
क्या खोया क्या पाया सोचता है
दुख भीतर ही तो कचोटता है
जीवन में खो जाते है जो जो
उन्ही को बार बार खोजता है
हार जीत का प्रश्न है गौण अब
जीवन जीवन को ही घसीटता है
दे दे विराम कह दे अलविदा
यही विचार अब जहर घोलता है
अजब है तुम्हारी ये बड़ी बड़ी बातें
विक्षिप्त कभी झूठ नहीं बोलता है
अपना पराया सभी को लूटता है
क्या खोया क्या पाया सोचता है
दुख भीतर ही तो कचोटता है
जीवन में खो जाते है जो जो
उन्ही को बार बार खोजता है
हार जीत का प्रश्न है गौण अब
जीवन जीवन को ही घसीटता है
दे दे विराम कह दे अलविदा
यही विचार अब जहर घोलता है
अजब है तुम्हारी ये बड़ी बड़ी बातें
विक्षिप्त कभी झूठ नहीं बोलता है
सोमवार, दिसंबर 14, 2015
हार गया हूं
मनुष्य
हार भी तो जाता है
सब कुछ जीतने के बावजूद ,
मनुष्य
हार ही तो जाता है
खामोशी से
पराजय स्वीकारने के बावजूद ,
मनुष्य
हार जाता है
जीजीविषा की
इ्च्छा होने के बावजूद ,
मनुष्य को
हार ही जाना होता है
हलाहल पीने के बावजूद ।
शुक्रवार, अक्तूबर 09, 2015
अस्पताल
अस्पताल
क्या अजब जगह है
बिखरी पड़ी है
वेदना दुःख दर्द
जीवन मृत्यु के प्रश्न
इसी अस्पताल के
किसी वार्ड के बिस्तर पर
तड़फती रहती है
जिजीविषा
दवाइयों
और सिरंज में
ढूंढती रहती है जीवन
समीप के बिस्तर से
गुम होती साँसों को देख
सोचती है
जिजिबिषा
कल का सूरज
कैसा होगा .......
क्या अजब जगह है
बिखरी पड़ी है
वेदना दुःख दर्द
जीवन मृत्यु के प्रश्न
इसी अस्पताल के
किसी वार्ड के बिस्तर पर
तड़फती रहती है
जिजीविषा
दवाइयों
और सिरंज में
ढूंढती रहती है जीवन
समीप के बिस्तर से
गुम होती साँसों को देख
सोचती है
जिजिबिषा
कल का सूरज
कैसा होगा .......
शुक्रवार, जुलाई 03, 2015
तू देख ज़रा
दुश्मनों से घिरा हूँ तू देख ज़रा
फिर भी जिंदा हूँ तू देख ज़रा
खुश है तू खुश रह सदा सदा
मर के जी रहा हूँ तू देख ज़रा
कोन अपना कोन पराया यहाँ
कितना अकेला हूँ तू देख जरा
शुक्रवार, मार्च 06, 2015
बिन अपनों होली कैसी
बिन अपनों के होली कैसी
परदेस में अपनी बोली कैसी
होली हुडदंग वाह खुब है
संगी साथी हमजोली कैसी
कौन कहाँ कैसा संदेशा
अकेले अकेले ये टोली कैसी
हिसाब किताब पक्का सबका
घर अपना अपनी खोली कैसी
जीते जी की है शिकवे शिकायते
आने जाने की ये पहेली कैसी
गुरुवार, मार्च 05, 2015
क्या अजब जमाना है
क्या
अजब जमाना है
लोग
बेच डालते है
माँ का नाम
और
करते है व्यवसाय
माँ के नाम पर,
भूल जाते है
संबंधो को
लूट जाते है ज़ज्बात
और
सजा लेते है
अपनी दूकान ,
बाँध डालते है
सीमाएं
धर्म और आस्था की,
तोड़ डालते है
विश्वास की डोर
और
कर डालते है
बेघर विश्वास को,
अर्थ का
समाज है
और
अर्थ के सम्बन्ध
छिनभिन्न कर डालते है
ममत्व और भातृत्व
सच क्या
ज़माना है ?
अजब जमाना है
लोग
बेच डालते है
माँ का नाम
और
करते है व्यवसाय
माँ के नाम पर,
भूल जाते है
संबंधो को
लूट जाते है ज़ज्बात
और
सजा लेते है
अपनी दूकान ,
बाँध डालते है
सीमाएं
धर्म और आस्था की,
तोड़ डालते है
विश्वास की डोर
और
कर डालते है
बेघर विश्वास को,
अर्थ का
समाज है
और
अर्थ के सम्बन्ध
छिनभिन्न कर डालते है
ममत्व और भातृत्व
सच क्या
ज़माना है ?
शनिवार, फ़रवरी 02, 2013
कुते भौंक रहे है
गोरे गए अब काले लूट रहे है
तिजोरियों के तालें टूट रहे है
मुफलिसी का आलम है चहुं ओर
हुक्मरानों के पटाखे फूट रहे है
आवाज उठाना तेरे मेरे बस में नहीं
सांस अन्दर ही अन्दर टूट रही है
ख्वाब की बदल डालोगे जहां
ये कैसी इक हूक उठ रही है
मुन्सिब क्या पकड़ेगा जुर्म को
जनाब के पसीने छूट रहे है
बस्ती में घुस आए है गीदड़
सुनो ज़रा गोर से कुते भौंक रहे है
रौशन जसवाल विक्षिप्त
बुधवार, अगस्त 22, 2012
रविवार, अगस्त 19, 2012
जिजीविषा
जिजीविषा
निरन्तर दौड़ती रहती है
कभी सीढि़यो पर
उतरते चढ़ते ,
वार्ड में प्रतीक्षा करते
स्ट्रेचर पर लेटे
व्हील चेयर पर
और
आप्रेशन थियेटर में,
जिजीविषा
निरन्तर देखती रहती है
सिरंज में बूंद बूंद रक्त
और
सह लेती है
डायलसिस की वेदना,
नर्सो की
अनावश्यक डांट,
जिजीविषा
महाप्रस्थान कभी नहीं चाहती
वो कहती है
यम से
तुम ज़रा
रूकों
अभी बहुत काम करने है मुझे ।
निरन्तर दौड़ती रहती है
कभी सीढि़यो पर
उतरते चढ़ते ,
वार्ड में प्रतीक्षा करते
स्ट्रेचर पर लेटे
व्हील चेयर पर
और
आप्रेशन थियेटर में,
जिजीविषा
निरन्तर देखती रहती है
सिरंज में बूंद बूंद रक्त
और
सह लेती है
डायलसिस की वेदना,
नर्सो की
अनावश्यक डांट,
जिजीविषा
महाप्रस्थान कभी नहीं चाहती
वो कहती है
यम से
तुम ज़रा
रूकों
अभी बहुत काम करने है मुझे ।
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