गोरे गए अब काले लूट रहे है
तिजोरियों के तालें टूट रहे है
मुफलिसी का आलम है चहुं ओर
हुक्मरानों के पटाखे फूट रहे है
आवाज उठाना तेरे मेरे बस में नहीं
सांस अन्दर ही अन्दर टूट रही है
ख्वाब की बदल डालोगे जहां
ये कैसी इक हूक उठ रही है
मुन्सिब क्या पकड़ेगा जुर्म को
जनाब के पसीने छूट रहे है
बस्ती में घुस आए है गीदड़
सुनो ज़रा गोर से कुते भौंक रहे है
रौशन जसवाल विक्षिप्त
3 Reviews:
सटीक सामयिक...
हर तरह उनका राज
कौन सुनेगा आवाज ....
@kuldeep thakurआभार्
@Kavita Rawatआभार्
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