google.com, pub-7517185034865267, DIRECT, f08c47fec0942fa0 आधारशिला : इतिहास

इतिहास लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
इतिहास लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शनिवार, दिसंबर 01, 2012

पारंपरिक लोकोत्सव बूढ़ी दिवाली

0 Reviews


बूढ़ी दिवाली ग्रामीण लोक जीवन की अभिव्यक्ति का माध्यम है। बूढ़ी दिवाली लोक संस्कृति में सामूहिक हर्षोल्लास का पर्व है, जो सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक विशिष्ठता रखता है। यह लोकोत्सव सृजनात्मकता एवं सांस्कृतिक एकता  का प्रतीक है संस्कृति के तीज त्योहारों में कार्तिक माह की अमावस्या को पड़ने वाले उमंग और उत्साह से भरपूर दीपावली का त्योहार बुराई पर अच्छाई तथा अंधकार पर प्रकाश का प्रतीक है, लेकिन हिमाचल प्रदेश के कुछ पर्वतीय भागों में दिवाली के ठीक  एक माह बाद मार्ग शीर्ष मास की अमावस्या की बूढ़ी दिवाली का लोकोत्सव मनाया जाता है। हर प्रांत तथा क्षेत्र में बूढ़ी दिवाली मनाने के कारण एवं तरीके विभिन्न हैं, जहां नई दिवाली भगवान राम की लंका विजय के बाद अयोध्या आगमन के हर्षोल्लास का पर्व है, वहीं बूढ़ी दिवाली का संबंध बाहुबली दानवीर राजा बलि के पाताल लोेक के निर्गमन का सूचक है। इसे बलराज उत्सव भी कहा जाता है। सिरमौर जनपद में बूढ़ी दिवाली की शुरुआत बलग गांव से होती है, जिसे  राजा बलि की स्थली माना जाता है।  सिरमौर के गिरिपार हाटी इलाके के लादी कांगड़ा क्षेत्र (शिलाई) के नौणीधार, द्राबिल, टटियाणा, हलांक, नाया-पंजोल तथा रेणुकाजी क्षेत्र के रजाणा, पुन्नरधार, भराड़ी तथा चाढ़ना आदि स्थानों में बुढ़ाह लोकनृत्य के साथ बूढ़ी दिवाली का शुभारंभ होता है। रात को लोग देव आंगन में पवित्र अग्नि प्रज्वलित करते है, जिसे ‘घियाना’ कहा जाता है। ‘घियाना’  के चतुर्दिक गांववासी अग्नि पूजा करते है। उपस्थित पुरुष सदस्य ‘घियाना’  से मशाले जलाते हैं, जिन्हें ‘डाह’ या ‘हुशु’ कहा जाता है। आराध्य ग्राम देवों के सम्मान में जलती मशालों के साथ होलाच नृत्य किया जाता है और फिर रासा-नाटी नृत्य में महिलाएं और पुरुष एक-दूसरे को अश्लील व्यंग्यात्मक गीतों से रिझाते हैं। अगली सुबह गत रात्रि के भोंडे गीतों के अपराध बोध का पश्चाताप करने के लिए परस्पर अखरोट बांट कर अभिवादन किया जाता है। दो-तीन दिन चलने वाले इस प्रकाशोत्सव में ग्रामीण लार टपकाऊ पहाड़ी व्यंजनों-खीर, पटांडे, तेल पक्की, कांजण-बिलोई व द्रोटी-भात आदि का आनंद उठाते हैं तथा खूब नाच-गान होता है। बूढ़ी दिवाली को यहां ‘मशराली’ के नाम से भी जाना जाता है। संध्याकाल में लोक नाट्यों में रामायण व महाभारत के दृश्यों का मंचन किया जाता है। हिमाचल की लोक संस्कृति व्यापक है। सिरमौर जिला के अलावा शिमला, कुल्लू तथा किन्नौर जिलों में भी बूढ़ी
दिवाली का त्योहार मनाया जाता है। जिला शिमला के रावी गांव में बूढ़ी दिवाली के दिन राजा बलि की आटे की मूर्ति बनाई जाती है और उसकी छाती पर दीये जलाकर स्थानीय देवता बोंडा नाग की पूजा की जाती है तथा महिलाएं ब्रह्म भेंट गीत गाती हैं। नीरथ गांव में मार्ग शीर्ष अमावस्या की दिवाली की रात प्रसिद्ध पारंपरिक मेला लगता है। कुल्लू जनपद के निरमंड गांव की बूढ़ी दिवाली काफी प्रसिद्ध है। यहां के ‘फकीरी’ ब्रह्मण अमावस्या की इस रात महादानी राजा बलि की कथा का भारथ (इतिहास) गाते हैं। ऊपरी कुल्लू घाटी मेें बूढ़ी दिवाली की रात लोग अपने घरों एवं देवालयों में पवित्र अग्नि से बलराज जलाते है, इसे शौली कहा जाता है। गांव के युवा अश्लील गीत ‘जीरू’ का जोर-जोर से गायन पुकार करते हैं, जिसका इस रात कोई बुरा महसूस नहीं करता। किन्नौर जिला के निचार तथा सांगला क्षेत्रों में बूढ़ी दिवाली को ‘दीवाअल’ के नाम से हर्षातिरेक से मनाया जाता है, जहां क्रमशः उषा देवी और देरिंग नाग देवता के सम्मान में गीत गाए जाते हैं। स्वादिष्ट व्यंजनों के साथ ग्रामीण फसलों की कटाई का जश्न मनाते हैं। सिरमौर जनपद की गिरिपार हाटी संस्कृति की समरूपता के लिए पड़ोसी उत्तराखंड राज्य के बावर जौनसार तथा देऊधार क्षेत्र के झोटाड़, मंडोल, चिलाड़ व रडू आदि कई गांव में मार्ग शीर्ष अमावस्या की रात्रि को बूढ़ी दिवाली का दीपोत्सव पारंपरिक ढंग से मनाया जाता है। लोग साझा आंगन में चालदा महासू के नामित ‘उकले’(मशालें) जलाते है और लोक गाथाओं व लोक नाट्यों का प्रस्तुतिकरण होता है। बूढ़ी दिवाली पर सभी स्थानों पर मशालें जलाकर वीर रस आधारित ‘लिंबर’ व ‘होलाच’ लोकनृत्य वास्तव में अंधेरे को परास्त कर रोशनी की ओर जाने का परिचायक है। यह उत्सव ग्रामीण लोक जीवन की अभिव्यक्ति का माध्यम है। बूढ़ी दिवाली लोक संस्कृति में सामूहिक हर्षोल्लास का पर्व है, जो सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक विशिष्ठता रखता है। यह लोकोत्सव सृजनात्मकता एवं सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है।

गुरुवार, अक्तूबर 18, 2012

ऐतिहासिक तारादेवी मन्दिर

0 Reviews

शिमला के निकट बना ऐतिहासिक तारादेवी मन्दिर देश के ऐसे स्थलों में शामिल है जिसे भारत के देवी स्थानों में अत्यन्त महत्व प्राप्त है। वस्तुतः भगवती तारा क्योंथल राज्य के सेन वंशीय राजाओं की कुलदेवी हैं। क्योंथल रियास
त की स्थापना राजा गिरिसेन ने की थी। इसलिए संक्षेप में सेन राजवंश का इतिहास जानना भी आवश्यक है। मध्यकालीन भारत में छोटे-छोटे राज्य हुआ करते थे। उत्तरी भारत में अनेक राजपूत रियासतें थीं जिनमें दिल्ली में तोमर, अजमेर में चौहान, कन्नौज में राठौर, बुन्देलखण्ड में चन्देल, मालवा में परमार, गुजरात में चालुक्य, मेवाड़ में सिसोदिया, बिहार में पाल तथा बंगाल में सेन राजवंश प्रमुख थे। महमूद गज़नवी के बाद शहबद्दीन मुहम्मद गौरी ने भारत पर बार-बार आक्रमण किए। वह कट्टर मुसलमान था और भारत में मूर्तिपूजा का नाश करना तथा मुस्लिम राज्य की स्थापना करना अपना सबसे बड़ा कर्त्तव्य समझता था। वह राजाओं की शक्ति को नष्ट-भ्रष्ट करना चाहता था। उसके एक सेनानायक मुहम्मद-बिन-बख़तियार खिलजी ने जब बंगाल की राजधानी नदिया पर आक्रमण किया तो वहां के तत्कालीन सेन राजवंशीय राजा लक्ष्मणसेन को लाचार होकर अपना राज्य छोड़ना पड़ा और वे राजपरिवार सहित ढाका की ओर विक्रमपुर चले गए। कहा जाता है कि उन्हें उनेक राजज्योतिषी ने पहले ही यह बता दिया था कि वे किसी भी प्रकार से तुर्क आक्रमणकारियों का सामना नहीं कर पाएंगें। कालान्तर में उनके प्रपौत्र राजा रूपसेन को भी विक्रमपुर छोड़ना पड़ा और वे पंजाब प्रान्त के रोपड़ में आकर बस गए। मुसलमान आक्रमणकारियों से वहां भी उन्हें युद्ध लड़ने के लिए विवश होना पड़ा। अंत में उनके तीनों पुत्र पर्वतीय क्षेत्रों की ओर चल पड़े, जिनमें से वीरसेन ने सुकेत, गिरिसेन ने क्योंथल तथा हमीरसेन ने किश्तवाड़ की ओर प्रस्थान किया।
राजा गिरिसेन ने जुनगा को अपने राज्य की राजधानी बनाया। कुलदेवी होने के नाते वे भगवती तारा को भी (मूर्ति रूप में) अपने साथ ही लाए थे। सेनवंश के सभी राजाओं तथा राजपरिवार पर भगवती तारा की असीम कृपा रही है। संकट की घड़ी में भगवती तारा ने हर प्रकार से उनकी सहायता की है।

एक बार अपने राज्यकाल में तत्कालीन क्योंथल रियासत (जुनगा) के राजा भूपेन्द्र सेन जुग्गर के घने जंगल में शिकार खेलने पहुंचे। उन्हें वहां पहुंचे कुछ ही समय हुआ था कि सहसा उन्हें उस स्थान पर भगवती तारा की विद्यमानता का आभास हुआ। भगवती ने आवाज+ देकर कहा- ''हे राजन्‌! तुम्हारी वंश परम्परा बंगाल से चली आ रही है। मैं दश महाविद्याओं में से एक महाविद्या हूँ।'' इस आवाज़ को सुनकर राजा आश्यर्चचकित हो गए और हने लगे- ''हे माता! यदि यह आवाज़ वास्तव में आपकी ही है, तो साक्षात्‌ रूप में प्रकट होकर दर्शन देकर कृतार्थ करो।'' राजा के इस प्रकार कहने पर माता ने साक्षात्‌ दर्शन दिए और कहा- ''राजन्‌! तुम मेरे स्थान का निर्माण करो। मैं सदैव तुम्हारे साथ रहकर तुम्हारे वंश तथा राज्य की रक्षा करूंगी।'' ऐसा कहकर उसी क्षण भगवती अदृश्य हो गईं।

भगवती के इस प्रत्यक्ष चमत्कार से प्रभावान्वित होकर राजा भूपेन्द्र सेन ने भगवती के आदेशानुसार वहां एक मन्दिर का निर्माण करवाया तथा उस मन्दिर में भगवती तारा की मूर्ति को प्रतिष्ठापित करवाया। साथ ही एक बड़ा भूक्षेत्र भी मन्दिर के नाम दान कर दिया। यहां भगवती तारा प्रत्यक्ष रूप में स्वयं प्रकट हुई थीं। इस कारण यह प्रमुख स्थान माना जाता है। पूर्व काल में इस मन्दिर में विधिवत्‌ पूजा हुआ करती थी। इस कार्य के लिए एक पुजारी को यहां नियुक्त किया गया था। उसके बाद उसके वंशज पूजा-अर्चना का कार्य किया करते थे। परन्तु किसी कारणवश एक ऐसा समय आया कि धीरे-धीरे उक्त परिवार का प्रायः अन्त हो गया और यहां की सारी व्यवस्था में व्यवधान पड़ गया। मन्दिर जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पहुंच गया।
परन्तु श्रद्धालुओं के लिए यह प्रसन्नता का विषय है कि कुछ समय पूर्व ही श्री तारादेवी मन्दिर न्यास ने स्थानीय लोगों के प्रशंसनीय योगदान से इस स्थान पर एक नए मन्दिर का निर्माण करवाया है। मन्दिर की वास्‍तुशैली भी आकषर्क है। जुग्गर मन्दिर शिलगांव चक के अन्तर्गत आता है। इसलिए वहां के निवासी ही मुख्यरूप से वर्षों से इस मन्दिर की देख-रेख तथा कार्यभार के उत्तरदायित्व को निभाते चले आ रहे हैं। छठे महीने अर्थात्‌ वर्ष में दो बार ये सभी लोग मिलजुल कर इस मन्दिर में विशेष पूजा-अर्चना तथा कड़ाही-प्रसाद की व्यवस्था करते हैं। ये सभी लोग इस बात को भी मानते हैं कि भगवती कृपा सदैव इन पर बनी रहती है।

एक समय महात्मा ताराधिनाथ नामक एक सिद्ध योगी घूमते-घुमाते तारब के जंगल में पहुंच गए। उन्होंने सांसारिक बन्धनों का त्योग कर दिया था। अभीष्ट सिद्धि की प्राप्ति हेतु कठोर तपस्या तथा योगशक्ति के बल पर उन्होंने अलौकिक शक्तियों से सामंजस्य स्थापित कर लिया था। वे भगवती तारा के अनन्य उपासक थे। वे इस जंगल के उच्च शिखर पर अपने आगे धूनी लगाकर अपने आसन पर ध्यानमुद्रा में बैठे रहा करते थे। जब वर्षा होती थी तो एक बूँद भी उनकी धूनी तथा उनके आसन पर नहीं गिरती थी। वह स्थान को वर्षा से अप्रभावित रहा करता था। जो लोग भी वहां जाते थे, वे इस चमत्कार को देखकर अचम्भित होते थे।

श्री तारादेवी मन्दिर में 7 अगस्त, 1970 को एक बहुत ही निन्दनीय घटना घटित हुई। अर्धरात्रि के समय कुछ लुटेरों ने मन्दिर के द्वार को तोड़कर गर्भगृह में प्रवेश किया। भगवती तारा की मूर्ति को उठाकर वे भागने लगे। वे कुछ ही दूरी तक मूर्ति को ले जा सके थे कि उनका दम घुटने लगा। उनकी आंखों के आगे अन्धेरा छा गया। उन्हें आगे जाने का रास्ता नहीं सूझा। भगवती की अद्भुत शक्ति ने लुटेरों के इस नीचतापूर्ण दुष्कृत्य को विफल कर दिया। विवश होकर उन लुटेरों ने भगवती की मूर्ति को एक बड़ी झाड़ी के बीच फैंक कर छोड़ दिया और वे स्वयं रात्रि के अंधेरे का लाभ उठाकर भाग निकले।

क्योंथल राजवंश की अपनी कुलदेवी भगवती तारा के प्रति अटूट श्रद्धा है। वे समय-समय पर अपने कल्याणार्थ तथा सर्वजनहितार्थ श्री तारादेवी मन्दिर में अनुष्ठान करवाते रहते हैं।

श्री तारादेवी मन्दिर में आने वाले श्रद्धालुओं में से अनेक ऐसे भी हैं, जो भगवती का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए अथवा मांगी गई मन्नत पूरी होने पर दूर-दूर से नंगे पावं पैदल चलकर यहां पहुंचते हैं।

वस्तुतः भगवती सम्पूर्ण जगत की अधीश्वरी हैं। वे अपने भक्तों की रक्षा तथा कल्याण के लिए ही प्रकट रूप में इस मन्दिर में निवास करती हैं।

गुरुवार, जुलाई 12, 2012

श्रीखंड यात्रा 2012

1 Reviews


श्रीखंड यात्रा इस बार 16 जुलाई से 23 जुलाई तक आयोजित होगी।  श्रीखंड जिला कुल्लू के दुर्गम क्षेत्र से लगभग 1800 फीट की ऊंचाई पर स्थित है।
 इस स्थान पर पहुंचने के लिए शिमला से रामपुर, रामपुर से निरमंड व बागीपुल तक बस से पहुंचा जा सकता है।  निरमंड से 4 कि.मी. पीछे  उतर कर देवढांक में महादेव के दर्शन कर लिए जाएं तो श्रीखंड महादेव की यात्रा सफल हो जाती है। यहां से अपनी यात्रा शुरू करनी चाहिए। रात्रि विश्राम बागीपुल में किया जा सकता है। जांव गांव में महामाया का एक बहुत ही पुराना भव्य मंदिर है। जांव गांव में थोड़ा विश्राम करके सिंहगाड तक आराम से पगडंडी द्वारा रास्ता तय करके पहुंचा जा सकता है। बागीपुल से सिंहगाड का रास्ता 9 कि.मी. है। इसके बाद यात्री थाचडू के लिए प्रस्थान करते हैं और फिर बराहटीनाला में गिरचादेव के दर्शन करके आगे की यात्रा शुरू करते हैं और अगला पडाव भीमडुआरी है। यहां घने जंगल व बर्फ से लदे पहाड़ देख कर मन मोहित हो जाता है। थाचडू से भी सुबह-शाम अगर मौसम साफ हो तो श्रीखंड महादेव के दर्शन किए जा सकते हैं। चढ़ाई चढ़ने के बाद महाकाली, जोगणीजोत, कालीघाटी का छोटा सा मंदिर आता है। यहां से भी श्रीखंड महादेव के दर्शन किए जा सकते हैं। इसके आगे घाटी में ढांक दुआर, कुणासा घाटी, व काली घाटी देखने योग्य स्थल हैं।  कहते हैं कि भीमडुआरी में अज्ञातवास के दौरान पांडव यहां पर ठहरे थे इसलिए इसका नाम भीमडुआरी पड़ा। यहां विश्राम करने के बाद यात्री श्रीखंड महादेव के दर्शन के लिए निकल पड़ते हैं। यहां से कैलाश दर्शन की दूरी लगभग 7 कि.मी. है। आगे छोटे-छोटे कल-कल करते नाले व ऊंचे पहाड़ों से गिरती हुई शोर मचाती हुई पानी की धाराएं फूलों से लदी घाटियां व मां पार्वती के बाग यात्रियों को कठिन यात्रा का एहसास नहीं होने देते। चार घंटों का सफर तय करने के बाद नैनसर झील आ जाती है। कहते हैं कि माता पार्वती को जब भस्मासुर ने डराया था तब वे रो पड़ी थीं उनके आंसुओं  की धारा से ही इस आंख के आकार के सरोवर का निर्माण हुआ व इसलिए इसका नाम नैनसर पड़ा। नैनसर से आगे शुरू होती है और भी कठिन और दुर्गम यात्रा। भीमबही में बहुत बड़ी चट्टानें हैं जिन पर कुछ लिखा हुआ है। कहते हैं कि अज्ञातवास के दौरान भीम ये चट्टानें यहां लाए थे। चढ़ाई चढ़ते समय कुछ ऐसी जगह भी आती है जहां पर एक नन्हें बालक की तरह रेंग कर चढ़ना पड़ता है। बर्फ के ग्लेशियर लांघ कर यात्री यहां पहुंचते हैं परंतु श्रीखंड कैलाश से थोड़ा पीछे काफी बड़ा ग्लेशियर लांघना पड़ता है। अब लगभग 60-70 फुट ऊंचे प्राकृतिक शिवलिंग व साथ में थोड़ा हट के भगवान गणपति व मां पार्वती के दर्शन शुरू हो जाते हैं व सामने श्री कार्तिकेय स्वामी के दर्शन किए जा सकते हैं। भारी ठंड व 1800 फीट की ऊंचाई पर श्रीखंड महादेव स्थित होने के कारण यहां पर ज्यादा देर ठहरना संभव नहीं होता। परंतु थोड़ी देर दर्शन करके ऐसा अनुभव होता है कि जैसे स्वर्ग की यात्रा की जा रही हो। यह यात्रा कठिन होने के साथ-साथ अति मनोहारी, सुखदायी व अध्यात्मिक शांति प्रदान करने वाली है।

बुधवार, जुलाई 11, 2012

शहीद सतीश वर्मा

0 Reviews

external image rjv014.jpg
बडागांव सांगरी के शहीद सतीश वर्मा ने एक छोटी सी आयु में सांगरी और शिमला के युवाओं कोराष्ट्र सेवा का सन्देश दिया !

जन्म :- 21 अप्रेल 1972 को पिता करम चंद और माता आमलू देवी के घर सतीश वर्मा ने जन्म लिया
शिक्षा : -सतीश कुमार ने अपनी पढ़ाई राजकीय प्राथमिक पाठशाला और राजकीय वरिष्ठ माद्यमिक  पाठशाला बडागांव (सांगरी) से की मार्च 1988 में दसवी परीक्षा पास कर द्वितीय  बटालियन डोगरा रेजिमेंट में भारती हुए !
साहसिक कार्य: -साहसिक कामों के परिणाम स्वरुप सतीश वर्मा को अनेक प्रन्संसा पात्र दिए गए ! 1991 से 93 में इन्होने जालंधर के सी ऐआपरेशन के दौरान काकड़ सेक्टर में दुश्मनों का जम कर सामना किया
और कारगिल की ऊँची चोटी ओ पी हिल पर कब्जा करने केदौरान सुरक्षा में महत्वपूरण भूमिका
निभाई ! ओपरेशन के समय वे राजस्थान में तेनात थे !  इसके बाद जून 2001 में इन्हें मश्कोहघाटी कारगिल भेजा गया जहाँ सतीश वर्मा को सिपाही से लांस नायक की पदौनती दी गई ! 11 जुलाई 2001 को द्वितीय बटालियन डोगरा रेजिमेंट के सी आई ओपरेशन के समय गुरेज सेक्टर केब्रोब गाँव में  पेट्रोलिंग लाइन पर चोकसी के दौरान दुश्मनों से मुठभेड़ हुई ! इसमें सतीश वर्मा ने तीन दुश्मनों को ढेर किया ! और स्वयं भी मातृभूमि पकी रक्षा करते हुए शहीद हो गए !
अंतिम विदाई:- 15 जुलाई 2001 को शहीद सतीश कुमार का अंतिम संस्कार राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक पाठशाला बड़ागांव के मैदान मै किया गया गाँव के लोगो,सतीश वर्मा के सहपाठियों,परिवारजनों और 1832 एलटी रेजिमेंट के कमांड ऑफिसर ऐ के मोरे सहित मेजर जे सी ओ तथा सेना के जवानो , रामपुर बुशहर के एस डी ऍम अरविन्द शुक्ला, डी एस पी रामपुर बुशहर सहित अनेक लोगो ने शहीद सतीश वर्मा को श्र्दासुमन अर्पित किये..
यादगार :- राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक पाठशाला बड़ागांव के मैदान मे शहीद सतीश वर्मा की याद मे उनकी प्रतिमा लगाई गयी जोकि युवाओ और अन्य सभी लोगो को देशभक्ति की सीख देती है

external image 7769728315279871381-6028785164805139107?l=brahmeswer.blogspot.com

रविवार, जून 10, 2012

श्रीखण्‍ड छड़ी यात्रा 2012

0 Reviews

हिमालय में बसे श्रीखण्‍ड महादेव की पवित्र श्रीखण्‍ड छड़ी यात्रा 30 जून 2012 को जिला कुल्‍लु के निरमण्‍ड से आरम्‍भ हो रही है। छड़ी यात्रा का नेतृत्‍व महंत अशोक गिरी फलाहारी बाबा करेंगे। इसमें दो छडि़या होंगी जिसमें एक माता अंबिका की और दूसरी दतात्रेय महाराज की होगी। श्रीखण्‍ड छड़ी यात्रा एवं ग्राम सुधार समिति के अध्‍यक्ष देवेन्‍द्र पाल शर्मा और सचित कुशल राम शर्मा ने बताया कि 30 जून को छड़ी का विधि विधान से पूजन किया जाऐगा । यात्रा निरमण्‍ड के दशनामी जूना अखाड़े से ब्राहटी नाला तक प्रस्‍थान करेगी 1 जुलाई 2012 को यात्रा ब्राहटी नाला से थाचड़ु से भीमडवार पहुंचेगी । 3 जुलाई को भीम डवारी से श्रीखण्‍ड दर्शन के लिए रवाना होगी। उन्‍होने बताया कि 8 जुलाई को निरमण्‍ड में भंडारे का आयोजन किया जाऐगा। 

सोमवार, जनवरी 30, 2012

गांधी जी

0 Reviews
गांधी जी श्रीमद्भागवत गीता को अपना मार्गदर्शक धर्मग्रंथ मानते थे। एक बार किसी ने उनसे पूछा, 'गीता की किस बात ने आपको सबसे ज्यादा प्रभावित किया है?' गांधी जी ने जवाब दिया, ' वैसे तो गीता के कई उपदेश उल्लेखनीय हैं, पर निष्काम कर्म करते रहने और सत्य-न्याय पर अटल रहने के उपदेश को वह सबसे महत्वपूर्ण मानते हैं। इसके साथ ही आवश्यकता से अधिक संपत्ति संचय करना भी अधर्म है।'  एक बार गांधी जी का एक परिचित धनाढ्य उनसे मिलने पहुंचा। उसने कहा, 'जमाना बेईमानों का है। आप तो जानते ही हैं कि मैंने अमुक नगर में लाखों रुपये खर्च कर धर्मशाला का निर्माण कराया था। अब गुटबाजों ने मुझे ही प्रबंध समिति से हटा दिया है। क्या न्यायालय में मामला दर्ज कराना उचित होगा?' गांधी जी ने कहा, 'तुमने धर्मशाला धर्मार्थ बनवाई थी या उसे व्यक्तिगत संपत्ति बनाए रखने के लोभ में?   असली धर्म तो वह होता है, जो बिना लाभ की इच्छा के किया जाता है। तुम अभी तक नाम व प्रसिद्धि का लालच नहीं त्याग पाए हो। इसलिए तुम पद से हटाए जाने से दुखी हो।' यह सुनकर उस व्यक्ति ने संकल्प लिया कि वह आगे किसी भी पद अथवा नाम के विवाद में नहीं पड़ेगा।  गांधी जी लोगों से स्वाधीनता आंदोलन व हरिजन कल्याण के कार्यों के लिए चंदा लिया करते थे। वह उसका एक पैसा भी अपने ऊपर खर्च नहीं करते थे। उनका मानना था कि दूसरों के खून-पसीने के पैसे का अपने स्वार्थ के लिए दुरुपयोग करना अधर्म है।

साभार अमर उजाला 

बुधवार, जनवरी 25, 2012

हिमाचल प्रदेश का पूर्ण राज्‍यत्‍व दिवस

0 Reviews
आज ही के दिन 1971 में हिमाचल प्रदेश को पूर्ण राज्‍य का दर्जा प्राप्‍त हुआ था। हिमाचल प्रदेश का गठन 15 अप्रेल 1948 को हुआ था। 1 नवम्‍बर 1966 को कुछ और क्षैत्र प्रदेश में शामिल किए गए थे।
सभी मित्रों को इस दिवस की अनेकानेक शुभकामनायें।

शनिवार, नवंबर 19, 2011

रानी लक्ष्मीबाई

1 Reviews

 रानी लक्ष्मीबाई ( 19 नवंबर 1828  17 जून 1858) मराठा शासित झाँसी राज्य की रानी और 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगना थीं। इनका जन्म वाराणसी जिले के भदैनी नामक नगर में हुआ था। इनके बचपन का नाम मणिकर्णिका था पर प्यार से मनु कहा जाता था। इनकी माता का नाम भागीरथी बाई तथा पिता का नाम मोरोपंत तांबे था। मोरोपंत एक मराठी ब्राह्मण थे और मराठा पेशवा बाजीराव की सेवा में थे। माता भागीरथीबाई एक सुसंस्कृतबुद्धिमान एवं धार्मिक महिला थीं। मनु जब चार वर्ष की थीं तब उनकी माँ की म्रत्यु हो गयी। चूँकि घर में मनु की देखभाल के लिए कोई नहीं था इसलिए पिता मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले गए जहाँ चंचल एवं सुन्दर मनु ने सबका मन मोह लिया। लोग उसे प्यार से "छबीली" बुलाने लगे। मनु ने बचपन में शास्त्रों की शिक्षा के साथ शस्त्रों की शिक्षा भी ली।  सन 1842 लक्ष्मीबाई रखा गया। सन 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया पर चार महीने की आयु में ही उसकी मृत्यु हो गयी। सन 1853 में राजा गंगाधर राव का बहुत अधिक स्वास्थ्य बिगड़ने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गयी। पुत्र गोद लेने के बाद राजा गंगाधर राव की मृत्यु 21नवंबर 1853 में हो गयी। दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया। डलहौजी की राज्य हड़पने की नीति के अन्तर्गत ब्रितानी राज्य ने दामोदर राव जो उस समय बालक ही थेको झाँसी राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इन्कार कर दियातथा झाँसी राज्य को ब्रितानी राज्य में मिलाने का निश्चय कर लिया। तब रानी लक्ष्मीबाई ने ब्रितानी वकील जान लैंग की सलाह ली और लंदन की अदालत में मुकदमा दायर किया। यद्यपि मुकदमे में बहुत बहस हुई परन्तु इसे खारिज कर दिया गया। ब्रितानी अधिकारियों ने राज्य का खजाना ज़ब्त कर लिया और उनके पति के कर्ज़ को रानी के सालाना खर्च में से काट लिया गया। इसके साथ ही रानी को झाँसी के किले को छोड़ कर झाँसी के रानीमहल में जाना पड़ा। पर रानी लक्ष्मीबाई ने हर कीमत पर झाँसी राज्य की रक्षा करने का निश्चय कर लिया था। झाँसी 1857के संग्राम का एक प्रमुख केन्द्र बन गया जहाँ हिंसा भड़क उठी। रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी की सुरक्षा को सुदृढ़ करना शुरू कर दिया और एक स्वयंसेवक सेना का गठन प्रारम्भ किया। इस सेना में महिलाओं की भर्ती भी की गयी और उन्हें युद्ध प्रशिक्षण भी दिया गया। साधारण जनता ने भी इस संग्राम में सहयोग दिया। 1857 के सितंबर तथा अक्तूबर माह में पड़ोसी राज्य ओरछा तथादतिया के राजाओं ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने सफलता पूर्वक इसे विफल कर दिया। 1858 के जनवरी माह में ब्रितानी सेना ने झाँसी की ओर बढना शुरू कर दिया और मार्च के महीने में शहर को घेर लिया। दो हफ़्तों की लडाई के बाद ब्रितानी सेना ने शहर पर कब्जा कर लिया। परन्तु रानीदामोदर राव के साथ अंग्रेजों से बच कर भागने में सफल हो गयी। रानी झाँसी से भाग कर कालपी पहुंची और तात्या टोपे से मिली। तात्या टोपे और रानी की संयुक्त सेनाओं ने ग्वालियर के विद्रोही सैनिकों की मदद से ग्वालियर के एक किले पर कब्जा कर लिया. 17 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा-की-सराय में ब्रिटिश सेना से लढ़ते-लढ़ते रानी लक्ष्मीबाई की मौत हो गई.

इंदिरा गांधी

0 Reviews

इंदिरा प्रियदर्शिनी गाँधी :  (19 नवंबर 1917 -31 अक्टूबर 1984) वर्ष 1966 से 1977 तक लगातार 3 पारी के लिए भारत गणराज्य की प्रधानमन्त्री रहीं और उसके बाद चौथी पारी में 1980 से लेकर 1984 में उनकी राजनैतिक हत्यातक भारत की प्रधानमंत्री रहीं। वे भारत की प्रथम और अब तक एकमात्र महिला प्रधानमंत्री रहीं।

इन्दिरा का जन्म 19 नवंबर 1917 को राजनीतिक रूप से प्रभावशाली नेहरू परिवार में हुआ था। इनके पिता जवाहरलाल नेहरू और इनकी माता कमला नेहरू थीं। इन्दिरा को उनका गांधी उपनाम फिरोज़ गाँधी से विवाह के पश्चात मिला था। इनका मोहनदास करमचंद गाँधी से न तो खून का और न ही शादी के द्वारा कोई रिश्ता था। इनके पितामह मोतीलाल नेहरू एक प्रमुख भारतीय राष्ट्रवादी नेता थे। इनके पिता जवाहरलाल नेहरूभारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के एक प्रमुख व्यक्तित्व थे और आज़ाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री रहे।
1934–35 में अपनी स्कूली शिक्षा पूरी करने के पश्चात, इन्दिरा ने शान्तिनिकेतन में रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा निर्मित विश्व-भारती विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ही इन्हे "प्रियदर्शिनी" नाम दिया था। इसके पश्चात यह इंग्लैंड चली गईं और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में बैठीं, परन्तु यह उसमे विफल रहीं, और ब्रिस्टल के बैडमिंटन स्कूल में कुछ महीने बिताने के पश्चात, 1937 में परीक्षा में सफल होने के बाद इन्होने सोमरविल कॉलेज, ऑक्सफोर्ड में दाखिला लिया। इस समय के दौरान इनकी अक्सर फिरोज़ गाँधी से मुलाकात होती थी, जिन्हे यह इलाहाबाद से जानती थीं, और जो लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स में अध्ययन कर रहे थे। अंततः 16 मार्च 1942 को आनंद भवन, इलाहाबाद में एक निजी आदि धर्मब्रह्म-वैदिक समारोह में इनका विवाह फिरोज़ से हुआ।
ऑक्सफोर्ड से वर्ष 1941 में भारत वापस आने के बाद वे भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में शामिल हो गयीं।
1950 के दशक में वे अपने पिता के भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में कार्यकाल के दौरान गैरसरकारी तौर पर एक निजी सहायक के रूप में उनके सेवा में रहीं। अपने पिता की मृत्यु के बाद सन् 1964 में उनकी नियुक्ति एक राज्यसभा सदस्य के रूप में हुई। इसके बाद वे लालबहादुर शास्त्री के मंत्रिमंडल में सूचना और प्रसारण मत्री बनीं।

श्री लालबहादुर शास्त्री के आकस्मिक निधन के बाद तत्कालीन कॉंग्रेस पार्टी अध्यक्ष के. कामराज इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाने में निर्णायक रहे। गाँधी ने शीघ्र ही चुनाव जीतने के साथ-साथ जनप्रियता के माध्यम से विरोधियों के ऊपर हावी होने की योग्यता दर्शायी। वह अधिक बामवर्गी आर्थिक नीतियाँ लायीं और कृषि उत्पादकता को बढ़ावा दिया। 1971 के भारत-पाक युद्ध में एक निर्णायक जीत के बाद की अवधि में अस्थिरता की स्थिती में उन्होंने सन् 1975 में आपातकाल लागू किया। उन्होंने एवं कॉंग्रेस पार्टी ने 1977 के आम चुनाव में पहली बार हार का सामना किया। सन् 1980 में सत्ता में लौटने के बाद वह अधिकतर पंजाब के अलगाववादियों के साथ बढ़ते हुए द्वंद्व में उलझी रहीं जिसमे आगे चलकर सन् 1984 में अपने ही अंगरक्षकों द्वारा उनकी राजनैतिक हत्या हुई।

रविवार, अक्तूबर 30, 2011

बेगम अख्‍तर और वी शांता राम की पूण्‍य तिथि

0 Reviews
आज बेगम अख्‍तर और वी शांता राम की पूण्‍य तिथि है। 

गुरुवार, अक्तूबर 06, 2011

दशहरा

1 Reviews
दशहरा सभी स्‍थानों पर परम्‍परागत और हर्षोल्‍लास के साथ मनाया जाता है । स्‍थान छोटा हो या बड़ा आस्‍था के दर्शन सभी जगहों पर होते है । मेरे कस्‍बे में लगभग 15 वर्षों के बाद रामलीला का मंचन किया गया। सभी ने हर्षोल्‍लास के साथ मंचन में साथ दिया। आज दशहरा पर लोगों में हर्ष व्‍याप्‍त था। कुछ तस्‍वीरें दशहरा आयोजन की 


















शुक्रवार, जुलाई 08, 2011

मां भगयाणी मन्दिर हरिपुर धार

3 Reviews

ज़िला सिरमौर के हरिपुरधार में स्थित मां भगयाणी मन्दिर समुद्रतल से आठ हज़ार की ऊंचाई पर बनाया गया है! यह मन्दिर उतरी भारत का प्रसिद्ध मन्दिर है! यह मन्दिर कई दशकों से श्रद्धालुओं की आस्था का केन्द्र बना हुअ है! वैसे तो यहां वर्ष भर भक्तों का आगमन रहता है परन्तु नवरात्रों और संक्राति में भक्तों की ज्यादा श्रद्धा रहती है! इसका पौराणिक इतिहास श्रीगुल महादेव से की दिल्ली यात्रा से जुडा है जहां तत्कालीन शासक ने उन्हे उनकी दिव्यशक्तियों के कारण चमडे की बेडियों में बांध बन्दी बना लिया था और दर्वार में कार्यरत माता भगयाणी ने श्रीगुल को आज़ाद करने में सहायता की थी! इस कारण श्रीगुल ने माता भगयाणी को अपनी धरम बहन बनाया और हरिपुरधार मेंस्थान प्रदान कर सर्वशक्तिमान का वरदान दिया! आपार प्राकृतिक सुन्दरता के मध्य बना यह मन्दिर आस्था का प्रमुख स्थल है!  बाहर से आने वाले श्रद्धालुओं के लिये मन्दिर समिति ने ठहरने का प्रबन्ध किया हुआ है! हरिपुरधार  शिमला से वाया सोलन राजगढ एक सौ पचास किलोमीटर दूर है! जबकि चण्डीगढ से १७५ किलोमीटर है! हरिपुरधार के लिये देहरादून से भी यात्रा की जा सकती है!

शनिवार, जून 11, 2011

आज के दिन 11 जून

2 Reviews
1778 रूसी खोजकर्ता गेरासिम इज्माइलोव अलास्का पहुंचा। 1866 देश में इलाहाबाद उच्च न्यायालय, तत्कालीन आगरा उच्च न्यायालय की स्थापना। 1901 न्यूजीलैंड ने कुक द्वीप पर कब्जा किया। 1978 पाकिस्तान के कराची विश्वविद्यालय में अल्ताफ हुसैन ने छात्न राजनीतिक संगठन ऑल पाकिस्तान मुहाजिर स्टूडेंट आर्गेनाइजेशन की स्थापना की। 1981 ईरान के गोलबाफ में आए 6.9 की तीव्रता के भूकंप में लगभग दो हजार लोग मारे गए। 1991 माइक्रो सॉफ्ट ने MS DOS 5.0 जारी किया    

बुधवार, जून 08, 2011

श्रीखण्ड यात्रा 2011

0 Reviews
Shrikhand Mahadev
श्रीखण्ड सेवा दल और स्थानीय प्रशासन ने वर्ष 2011 में श्रीखण्ड यात्रा की तिथि की घोषणा कर दी है। सभी शिव भक्तजनों को यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता होगी कि हर साल की भांति इस वर्ष भी 16वीं बार श्रीखण्ड महादेव कैलाश यात्रा 15 जुलाई 2011 (श्रावण संक्रांति) से शुरू होने जा रही है और श्रीखण्ड सेवादल के तत्वावधान में यह यात्रा 23 जुलाई 2011 तक चलेगी। इस अवधि में 15 से 22 जुलाई तक श्रीखण्ड सेवादल द्वारा सिंहगाड से प्रतिदिन प्रातः 5 बजे यात्रा के लिए विधिवत जत्था रवाना किया जाएगा। 
यह स्थान समुद्रतल से लगभग 18000 फुट(5155 मीटर) की ऊंचाई पर है जिस कारण यहां मौसम ठण्डा रहता है। अतः यात्रियों से अनुरोध है कि अपने साथ, गर्म कपड़े, कम्बल, छाता, बरसाती व टार्च साथ लाएं। इस यात्रा की पवित्रता को ध्यान में रखते हुए किसी भी प्रकार के नशीले पदार्थ व प्लास्टिक के लिफाफे साथ न लाएं। यात्रियों से निवेदन है कि पूर्ण रूप से स्वस्थ होने पर ही इस यात्रा में भाग लें। श्रीखण्ड सेवादल कोई सरकारी सहायता प्राप्त संस्था नहीं है, सारा आयोजन सदस्यों के सहयोग से किया जाता है।

आप रामपुर बुशहर (शिमला से 130 किलोमीटर) से 35 किलोमीटर की दूरी पर बागीपुल या अरसू सड़क मार्ग से पहुँच सकते हैं। बागीपुल से 7 किलोमीटर जाँव तक गाड़ी से पहुँचा जा सकता है। जाँव से आगे की यात्रा पैदल होती है। यात्रा के तीन पड़ाव सिंहगाड़ , थाचडू और भीम डवार है। जाँव से सिंहगाड़ तीन किलोमीटर, सिंहगाड़ से थाचडू आठ किलोमीटर की दूरी और थाचडू से भीम डवार नौ किलोमीटर की दूरी पर है। यात्रा के तीनों पड़ाव में श्रीखण्ड सेवादल की ओर से यात्रियों की सेवा में लंगर (निशुल्क भोजन व्यवस्था ) दिन रात चलाया जाता है। भीम डवार से श्रीखण्ड कैलाश दर्शन सात किलोमीटर की दूरी पर है तथा दर्शन उपरांत भीम डवार या थाचडू वापिस आना अनिवार्य होता है।
Shrikhand Mahadev
श्रीखंड महादेव यात्रा के दौरान भक्त जन निरमंड क्षेत्र के कई दर्शनीय स्थलों का भ्रमण भी कर सकते हैं। इस क्षेत्र के प्रसिद्ध दर्शनीय स्थल हैं-

प्राकृतिक शिव गुफा देव ढांक, प्राचीन एवं पौराणिक परशुराम मन्दिर, दक्षिणेश्वर महादेव व अम्बिका माता मन्दिर निरमंड, संकटमोचन हनुमान मन्दिर अरसू, गौरा मन्दिर जाँव, सिंह गाड, ब्राह्टी नाला, थाच्डू, जोगनी जोत, काली घाटी, ढांक डवार, कुनशा, भीम डवार, बकासुर वध, दुर्लभ फूलों की घाटी पार्वती बाग़, माँ पार्वती की तपस्थली नैन सरोवर, महाभारत कालीन विशाल शिलालेख भीम बही।

मंगलवार, मार्च 08, 2011

महिला दिवस

4 Reviews
आज अन्‍तरराष्‍ट्रीय महिला दिवस है। सौ वर्षो पुरानी इस परम्‍परा का आरम्‍भ बीसवीं शताब्‍दी में ही हो गया था। 1908 में न्‍यूयार्क सिटी में कामकाजी महिलाओं ने अपनी मांगों को लेकर रैली का आयोजन किया था।  यह प्रयास  महिलाओं को वोट का अधिकार देने के लिए किया गया था।पहला महिला दिवस  मनाने की घोषणा 28 फरवरी 1909 को अमेरिकी समाजवादी पार्टी ने की थी।   इसके बाद इसे फरवरी के अन्तिम रविवार को मनाया जाने लगा। 1910 में कोपेनहेगन के सोशलिस्‍ट इंटरनेशनल के सम्‍मेलन में इसे अंतर्राष्‍ट्रीय दर्जा दिया गया।  1917 मे रूस की महिलाओं ने महिला दिवस पर रोटी कपड़ा के लिए हड़ताल पर जाने का निर्णय लिया । जो एक ऐतिहासिक निर्णय था। ग्रेगेरियन कैंलेण्‍डर के अनुसार यह दिन 8 मार्च का था और इसलिए इस दिन को महिला दिवस के रूप में घोषित किया गया।  संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ ने 1975 को महिला वर्ष घोषित किया था और इस दिवस को आधिकारिक स्‍वीकृति प्रदान की गई थी।
 
ब्लोगवाणी ! INDIBLOGGER ! BLOGCATALOG ! हिंदी लोक ! NetworkedBlogs ! हिमधारा ! ऐसी वाणी बोलिए ! ब्लोगर्स ट्रिक्स !

© : आधारशिला ! THEME: Revolution Two Church theme BY : Brian Gardner Blog Skins ! POWERED BY : blogger