गांधी जी श्रीमद्भागवत गीता को अपना मार्गदर्शक धर्मग्रंथ मानते थे। एक बार किसी ने उनसे पूछा, 'गीता की किस बात ने आपको सबसे ज्यादा प्रभावित किया है?' गांधी जी ने जवाब दिया, ' वैसे तो गीता के कई उपदेश उल्लेखनीय हैं, पर निष्काम कर्म करते रहने और सत्य-न्याय पर अटल रहने के उपदेश को वह सबसे महत्वपूर्ण मानते हैं। इसके साथ ही आवश्यकता से अधिक संपत्ति संचय करना भी अधर्म है।' एक बार गांधी जी का एक परिचित धनाढ्य उनसे मिलने पहुंचा। उसने कहा, 'जमाना बेईमानों का है। आप तो जानते ही हैं कि मैंने अमुक नगर में लाखों रुपये खर्च कर धर्मशाला का निर्माण कराया था। अब गुटबाजों ने मुझे ही प्रबंध समिति से हटा दिया है। क्या न्यायालय में मामला दर्ज कराना उचित होगा?' गांधी जी ने कहा, 'तुमने धर्मशाला धर्मार्थ बनवाई थी या उसे व्यक्तिगत संपत्ति बनाए रखने के लोभ में? असली धर्म तो वह होता है, जो बिना लाभ की इच्छा के किया जाता है। तुम अभी तक नाम व प्रसिद्धि का लालच नहीं त्याग पाए हो। इसलिए तुम पद से हटाए जाने से दुखी हो।' यह सुनकर उस व्यक्ति ने संकल्प लिया कि वह आगे किसी भी पद अथवा नाम के विवाद में नहीं पड़ेगा। गांधी जी लोगों से स्वाधीनता आंदोलन व हरिजन कल्याण के कार्यों के लिए चंदा लिया करते थे। वह उसका एक पैसा भी अपने ऊपर खर्च नहीं करते थे। उनका मानना था कि दूसरों के खून-पसीने के पैसे का अपने स्वार्थ के लिए दुरुपयोग करना अधर्म है।
साभार अमर उजाला
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