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शनिवार, मई 15, 2010

प्रेम की शक्ति

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अगर अपने दम पर कोई कुछ परिवर्तन ला सकता है तो वह है प्रेम। प्रेम की शक्ति कुछ भी बदल सकती है। हमारे अवतारों ने, संतों-महात्माओं ने, विद्वानों ने प्रेम पर ही सबसे ज्यादा जोर दिया है। केवल हिंदू धर्म ही नहीं, मुस्लिम, सिख, इसाई, बौद्ध हर धर्म का एक ही संदेश है कि निष्काम प्रेम जीवन में होना ही चाहिए। इसमें बड़ी शक्ति है। यह जीवन की दिशा बदल सकता है। परमात्मा के निकट जाने का एक सबसे आसान रास्ता है प्रेम।
फकीरों की सोहबत में क्या मिलता है यह तो तय नहीं हो पाता है लेकिन कुछ चाहने की चाहत जरूर खत्म हो जाती है। सूफियाना अन्दाज में रहने वाले लोग दूसरों से उम्मीद छोड़ देते हैं। अपेक्षा रहित जीवन में प्रेम आसानी से जागता है। प्रेम में दूसरों को स्वयं अपने जैसा बनाने की मीठी ताकत होती है। प्रेम की प्रतिनिधि है फकीरी। अहमद खिजरविया नाम के फकीर बहुत अच्छे लेखक भी थे। रहते तो फौजियों के लिबास में थे लेकिन पूरी तरह प्रेम से लबालब थे। एक दफा उनके घर चोर ने सेंध लगा दी। चोर काफी देर तक ढूंढता रहा कुछ माल हाथ नहीं लगा। घर तो प्रेम से भरा था अहमद का मन भी पूरी तरह से प्रेम निमग्न था। चोर को वापस जाता देख उन्होंने रोका। कहा हम तुम्हे मोहब्बत तो दे ही सकते हैं बाकी तो घर खाली है। बैठो और बस एक काम करो सारी रात इबादत करो। फकीर जानते थे कि जिन्दगी का केन्द्र यदि ढूंढना हो तो प्रेम के अलावा और कुछ नहीं हो सकता। जिनके जीवन के केन्द्र में प्रेम है ऊपर वाला उनकी परीधि पर दरबान बनकर खड़े रहने को तैयार होगा। दुनिया में जिन शब्दों का जमकर दुरुपयोग हुआ है उनमें से एक है प्रेम। इसके बहुत गलत मायने निकाले हैं लोगों ने। आइए देखें प्रेम कैसा आचरण करवाता है, यहीं हमें सही अर्थ पता चलेगा। चोर ने सारी रात इबादत की। सुबह किसी अमीर भक्त ने फकीर अहमद खिजरविया को कुछ दीनारें भेजी। फकीर ने दीनारे चोर को दी और कहा यह है तुम्हारी इबादत के एवज में कुबुल करो। चोर प्रेम की पकड़ में था। आंखों में आंसू आ गए और बोला, मैं उस खुदा को भूले बैठा था जो एक रात की इबादत में इतना दे देता है। चोर ने दीनारे नहीं ली और कह गया यहां प्रेम और पैसा दोनों मिले, पर अब प्रेम हासिल हो गया तो बाकी खुद ब खुद आ जाएगा। जिन्दगी में जब प्रेम का प्रवेश रुक जाता तो अशांति को आने की जगह मिल ही जाती है

निष्काम ध्यान

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ओशो अपने भक्तों को एकाग्रचित्त होकर ध्यान करने की प्रेरणा दिया करते थे। एक दिन एक अनुयायी ने उनसे पूछा, ‘महात्मन, डाइनमिक मेडिटेशन करते समय मुझे राहत मिलने की जगह भारी थकान की अनुभूति होने लगी है। छह माह इस विधि से ध्यान करते हो गए, किंतु अभी तक सुखद लक्षण नहीं दिखाई दिए।’

ओशो ने कहा, ‘मैंने पहले ही कहा था कि परिणाम की चिंता न करके पूरी तन्मयता से ध्यान का अभ्यास करो। महीनों में नहीं, तो कभी-कभी कई वर्षों बाद ध्यान के सुपरिणाम सामने आते हैं। इसलिए श्रीकृष्ण ने निष्काम कर्म का महत्व बार-बार प्रतिपादित किया है। यदि आदमी निराश प्रवृत्ति का होगा, तो वह थककर बीच में ही सत्कर्म छोड़ भागेगा।’

उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा, ‘यदि हम सूर्य की रोशनी और ठंडी वायु का आनंद उठाना चाहते हैं, तो हमें कमरे का दरवाजा, खिड़की आदि खोलकर रखनी चाहिए। फिर सूर्य की किरणों व वायु का स्वतः आभास होने लगेगा। कई बार बादलों से आच्छादित रहने के कारण कुछ स्थानों पर महीनों सूर्य के दर्शन नहीं हो पाते। ऐसे में, क्या निराश होकर हमें खिड़की या द्वार हमेशा के लिए बंद कर देने चाहिए? जैसे हम द्वार खोल सकते हैं और सूर्य की किरणों का पहुंचना सूर्य पर निर्भर है, उसी तरह हम ध्यान का अभ्यास निरंतर करते रहें और आशा रखें कि एक न एक दिन हम उससे लाभान्वित होंगे। निराशा छाते ही महीनों के हमारेअभ्यास का श्रम निरर्थक हो जाता है। इसलिए मैं प्रत्येक साधक को निष्काम ध्यान में लगे रहने की प्रेरणा देता हूं

विद्वान होना जरूरी नहीं

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 भट्टतिरि भगवान गुरुवायूर के परम भक्त और  संस्कृत के प्रकांड ज्ञाता और यशस्वी कवि थे। उन्होंने भगवान गुरवायूर की स्तुति में काव्य रचा। जिसमे  सुंदर श्लोको में गुरुवायूर की पावन महिमा का वर्णन था। एक हजार श्लोकों के इस ग्रंथ का नाम नारायणीयम् रखा। पंडित नारायण भट्टतिरि ने गुरुवायूरप्पन जाकर भगवान के मंदिर में स्वरचित श्लोक सुनाए। उन्हें लगा कि भगवान उन्हें प्रसन्न होकर आशीर्वाद दे रहे हैं। नारायणीयम् काव्य की चर्चा दूर-दूर तक होने लगी। लोग कहने लगे कि पंडित नारायण भट्टतिरि से बढ़कर गुरुवायूर का और कोई भक्त नहीं है। गुरुवायूर का एक और भक्त था पूंतानम। वह केवल मलयालम भाषा जानता था। वह ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं था, किंतु था बिलकुल निश्छल और सरल सात्विक। वह मलयालम में कविताएं लिखता था। एक बार उसने अपने इष्टदेव गुरुवायूर की भक्ति में मलयालम में पद रचे। उन्हें लेकर वह नारायण भट्टतिरि के पास पहुंचा। उसने नारायण को प्रणाम कर कहा, ‘मैंने कुछ भक्ति पद रचे हैं। इन्हें देखने व शुद्ध करने की कृपा करें।’ नारायण ने पूछा, ‘तुम संस्कृत जानते हो?’ पूंतानम द्वारा नहीं कहने पर उन्होंने अहंकार में भरकर कहा, ‘मूर्ख, तुझे यह भी पता नहीं कि भगवान गुरुवायूर केवल संस्कृत में स्तुति किए जाने पर ही प्रसन्न होते हैं? उठाओ अपनी पोथी और भागो यहां से।’ पंडित नारायण जब अन्य दिनों की तरह नारायणीयम् का पाठ करने बैठे, तो उन्हें लगा कि भगवान उनसे कह रहे हैं कि इसमें तो भाषा के अनेक दोष हैं। तुमसे अच्छे गीत तो भक्त पूंतानम सुनाता है। भक्ति गीत सरल मन से लिखे जाते हैं। उसके लिए विद्वान होना जरूरी नहीं। यह इल्म होते ही पंडित नारायण का अहंकार काफूर हो गया। वह भागे-भागे पूंतानम के घर पहुंचे। उसके चरणों में गिरकर उन्होंने माफी मांगी।

भोग-विलास

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एक बार दैत्यों ने देवताओं को युद्ध में बुरी तरह पराजित कर दिया। विजयी दैत्य अपने गुरु शुक्राचार्य के पास आशीर्वाद लेने पहुंचे। उन्होंने कहा, ‘गुरुदेव, अब हम तपस्या कर अपने पापों से मुक्ति पाना चाहते हैं। हमारी तपस्या सफल हो, ऐसा आशीर्वाद दीजिए।’ शुक्राचार्य ने कहा, ‘शील एवं संयम त्यागने के कारण ही समाज दैत्यों को घृणा की दृष्टि से देखता है। इसलिए तपस्या के दौरान मर्यादापूर्ण सात्विक जीवन बिताना।’ दैत्य तपस्या में लीन हो गए। दैत्यों की तपस्या की बात सुनकर देवता चिंतित हो उठे। वे भगवान विष्णु के पास पहुंचकर बोले, ‘दैत्यों की तपस्या से यदि आप प्रसन्न हो गए, तो उन्हें मनचाहा वरदान मिल जाएगा। इसलिए तपस्या विफल करने के उपाय बताएं।’ भगवान विष्णु ने उन्हें युक्ति बता दी। देवताओं ने माया मोह नाम के कपटी को तपस्यारत दैत्यों के पास भेजा। दैत्यों ने उसे देखते ही पूछा, ‘आप कौन हैं?’ उसने कहा, ‘मैं माया मोह हूं। आपकी विजय का समाचार सुनकर आपको बधाई देने चला आया हूं।’ कुछ रुककर माया मोह ने दैत्यों से पूछा, ‘आप सब इस जंगल में बैठे क्या कर रहे हैं?’ दैत्य बोले, ‘हम अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए तपस्या कर रहे हैं, ताकि देवता हमें कभी पराजित न कर सकें।’ यह सुनकर माया मोह ने ठहाका लगाया और कहा, ‘तपस्या तो सबसे ज्यादा देवता करते हैं, फिर भी वे पराजित क्यों हो गए? तपस्या से शक्ति कम हो जाएगी। इसलिए आप लोग खाए-पीएं और मौज करें।’ माया मोह की बातें सुनकर दैत्यों की भोगवृत्ति जाग उठी। उन्होंने तपस्या छोड़कर भोग-विलास करना शुरू कर दिया। मौका पाकर देवताओं ने उन पर आक्रमण कर उन्हें पराजित कर दिया। पराजित दैत्य गुरु शुक्राचार्य के पास पहुंचे। शुक्राचार्य ने उनसे कहा, ‘मैंने कहा था कि शील व संयम का त्याग न करना। तपस्या की जगह भोग-विलास में लगने का यह दुष्परिणाम तो भुगतना ही पड़ेगा।’

ज्ञान

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महाराज युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ समाप्त होने पर एक अद्भुत नेवला, जिसका आधा शरीर सुनहरा था, यज्ञ भूमि में लोट-पोट होने लगा वह रुदन करके कहने लगा कि यज्ञ पूर्ण नहीं हुआ सबको बड़ा आश्चर्य हुआ, पूछने पर नेवले ने बताया 'कुछ समय पहले अमुक देश में भयंकर अकाल पड़ा मनुष्य भूख के मारे तड़प-तड़प कर मरने लगे। एक दिन कहीं से अन्न मिलने पर ब्राहमणी ने चार रोटियां बनाईं उस ब्राहमण परिवार का यह नियम था कि भोजन से पूर्व कोई भूखा होता तो उसे पहले उसे भोजन कराया जाता था। एक भूखा चांडाल वहां आया तो ब्राह्मण ने अपने हिस्से की एक रोटी उसे सौंप दी, उसपर भी तृप्त होने के कारण क्रमश: ब्राह्मण की पत्नी और उसके बच्चों ने भी अपना अपना हिस्सा उसे दे दिया जब चांडाल ने भोजन करके पानी पीकर हाथ धोए तो उससे धरती पर कुछ पानी पड़ गया मैं उधर होकर निकला तो उस गीली जमीन पर लेट गया मेरा आधा शरीर ही संपर्क में आया जिससे उतना ही स्वर्णमय बन गया मैंने सोचा था कि शेष आधा शरीर, युधिष्ठिर के यज्ञ में स्वर्णमय बन जाएगा, लेकिन यहां ऐसा नहीं हुआ। राजन! यज्ञ के साथ त्याग बलिदान की अभूतपूर्व परंपरा जुड़ी हुई है।

संत कवि हरिदास

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निरंजनी संप्रदाय के संत कवि हरिदास युवावस्था में कुसंग में पड़कर अपराधों में लिप्त रहने लगे थे। तब उनका नाम हरि सिंह हुआ करता था। एक दिन वह और उनके साथी राहगीरों को लूट रहे थे, तभी एक भगवाधारी साधु वहां से गुजरा। डाकू हरि सिंह ने साधु को रोका। साधु ने कहा, ‘मैं तो मांगकर काम चलाता हूं। साधु को तो वैसे भी छोड़ देना चाहिए।’ हरि सिंह ने कहा, ‘बातें न बना, पोटली खोल।’ साधु ने पोटली खोली। उसमें कुछ रुपये थे। हरि सिंह ने वे रुपये ले लिए। लुटेरों की नजर पोटली में पड़ी एक पुड़िया पर पड़ी, उनमें से एक ने उसकी ओर हाथ बढ़ाया, तो साधु ने कहा, ‘इसे मत छीनो। यह दवा की पुड़िया है। गांव का एक व्यक्ति मरणासन्न है। मैं उसके लिए यह औषधि लाया हूं।’ हरि सिंह ने साधु के ये शब्द सुने, तो वह हक्का-बक्का रह गए। उन्हें लगा कि यह साधु कितना महान है। इसके हृदय में कितनी दया भावना है। वह साधु के पैरों में गिर पड़े और उसके रुपये वापस करते हुए बोले, ‘बाबा, आज से आप मेरे गुरु हैं। मुझे आशीर्वाद दें कि मैं भविष्य में लूट-मार जैसा अधर्म न करूं।’ साधु ने हरि सिंह को उपदेश देते हुए कहा, ‘बेटा, कभी किसी कुसंगी का साथ न करना। भगवान तुम पर कृपा करेंगे।’ आगे चलकर यही हरि सिंह निरंजनी संप्रदाय के सुविख्यात संत हरिदास निरंजनी के नाम से विख्यात हुए। उन्होंने अनेक भक्ति-पदों की रचना की।

प्रेम

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ईसा के समय की बात है। साल नाम का एक उद्दंड व्यक्ति भोले-भाले मछुआरों व अन्य लोगों को सताया करता था। ईसा के अनुयायियों को वह विशेष रूप से तंग करता था। एक बार ईसा मछुआरों के पास पहुंचे। उन्होंने उन सबको प्रेम से गले लगाया। मछुआरे अपना जाल छोड़कर ईसा के पीछे हो लिए। साल ने यह देखा, तो उसे बर्दाश्त नहीं हुआ। उसने मछुआरों को और सताना शुरू कर दिया। उनके जाल भी तोड़ दिए। कभी-कभी वह ईसा के शिष्य बने बुनकरों की बस्ती में पहुंच जाता और उनके करघे तोड़ डालता। ईसा को पता चला, तो उन्हें काफी दुख हुआ। उन्होंने प्रार्थना की, ‘साल को सद्बुद्धि मिले।’ साल एक दिन ईसा के सामने आया, तो ईसा ने उसे मुसकराकर देखा। उसे आश्चर्य हुआ कि ईसा को सब पता है, फिर भी उन्होंने क्रोध नहीं किया। वह घर जाकर सो गया। पहली बार उसे नींद नहीं आई। ईसा का प्रेम से सराबोर चेहरा उसे बार-बार दिखाई देता रहा। कुछ देर बाद उसे झपकी आई, तो उसे लगा कि सपने में ईश्वर कह रहे हैं, ‘साल, तुम मुझे क्यों सताते हो?’ साल ने कहा, ‘मैंने आपको कब सताया?’ प्रभु बोले, ‘तुम मेरे भक्त मछुआरों व बुनकरों को सताते हो। वे मुझसे अलग कहां हैं?’ इन शब्दों ने साल की आंखें खोल दीं। वह दूसरे दिन ईसा के पास पहुंचा और उनके पैरों में गिरकर क्षमा मांगी। ईसा ने उसे साल से पॉल बना दिया। आगे चलकर वह ईसा के महान शिष्य ‘सेंट पॉल’ के नाम से विख्यात हुए। 

अनैतिकता

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आचार्य तुलसी के सत्संग के लिए दूर-दूर से लोग पहुंचा करते थे। एक बार किसी जिज्ञासु ने उनसे पूछ लिया, ‘परलोक सुधारने के लिए क्या उपाय किए जाने चाहिए?’ आचार्यश्री ने कहा, ‘पहले तुम्हारा वर्तमान जीवन कैसा है या तुम्हारा विचार व आचरण कैसा है, इस पर विचार करो। इस लोक में हम सदाचार का पालन नहीं करते, नैतिक मूल्यों पर नहीं चलते और मंत्र-तंत्र या कर्मकांड से परलोक को कल्याणमय बना लेंगे, यह भ्रांति पालते रहते हैं।
आचार्य महाप्रज्ञ प्रवचन में कहा करते थे, ‘धर्म की पहली कसौटी है आचार, और आचार में भी नैतिकता का आचरण। ईमानदारी और सचाई जिसके जीवन में है, उसे दूसरी चिंता नहीं करनी चाहिए।
एक बार उन्होंने सत्संग में कहा, ‘उपवास, आराधना, मंत्र-जाप, धर्म चर्चा आदि धार्मिक क्रियाओं का तात्कालिक फल यह होना चाहिए कि व्यक्ति का जीवन पवित्र बने। वह कभी कोई अनैतिक कर्म न करे और सत्य पर अटल रहे। अगर ऐसा होता है, तो हम मान सकते हैं कि धर्म का परिणाम उसके जीवन में आ रहा है। यह परिणाम सामने न आए, तो फिर सोचना पड़ता है कि औषधि ली जा रही है, पर रोग का शमन नहीं हो रहा। चिंता यह भी होने लगती है कि कहीं हम नकली औषधि का इस्तेमाल तो नहीं कर रहे।
आज सबसे बड़ी विडंबना यह है कि आदमी इस लोक में सुख-सुविधाएं जुटाने के लिए अनैतिकता का सहारा लेने में नहीं हिचकिचाता। वह धर्म के बाह्य आडंबरों कथा-कीर्तन, यज्ञ, तीर्थयात्रा, मंदिर दर्शन आदि के माध्यम से परलोक के कल्याण का पुण्य अर्जित करने का ताना-बाना बुनने में लगा रहता है

दोषों से मुक्त

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एक बार ईसा मसीह को एक ऐसे व्यक्ति ने अपने घर आमंत्रित किया, जिसे लोग दुर्व्यसनी होने के कारण घृणा करते थे। ईसा खुशी-खुशी उसके घर पहुंचे, प्रेम से भोजन किया और आशीर्वाद देकर लौट आए। ईसा के शिष्यों ने कहा, ‘आपको समाज से बहिष्कृत व्यक्ति के यहां नहीं जाना चाहि था।ईसा ने उत्तर दिया, ‘अच्छे व्यक्ति तो अच्छे हैं ही, उन्हें उपदेश देने की क्या आवश्यकता है? हमें ऐसे ही व्यक्ति के पास जाना चाहिए, जिसे कुछ बातें बताकर अच्छा बनाया जा सके।

अथर्ववेद में कहा गया है, ‘उत देवा, अवहितं देवा उन्नयथा पुनः। उतागश्चक्रुषं वा देव जीवयथा पुनः॥अर्थात, हे दिव्य गुणयुक्त विद्वान पुरुषो, आप नीचे गिरे हुए लोगों को ऊपर उठाओ। हे देवो, अपराध और पाप करने वालों का उद्धार करो। हे विद्वानो, पतित व्यक्तियों को बार-बार अच्छा बनाने का प्रयास करो। हे उदार पुरुषो, जो पाप में प्रवृत्त हैं, उनकी आत्मज्योति को जागृत करो।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे कि घर-बार त्यागकर साधु बने व्यक्ति का परम धर्म है कि वह जिस समाज से प्राप्त भिक्षा से प्राणों की रक्षा करता है, उस समाज के लोगों को भक्ति और सेवा का उपदेश देता रहे। लोगों को प्रेरणा देकर ही साधु समाज के ऋण से उऋण हो सकता है। दुर्व्यसनों में लिप्त लोगों के दुर्गुण छुड़वाना, उन्हें सच्चा मानव बनाने का प्रयास करना साधु का कर्तव्य है। यह कार्य वही संत कर सकता है, जो स्वयं दुर्व्यसनों से मुक्त हो। परमहंस जी स्वयं दोषों से मुक्त थे, इसलिए वह पतितों के आमंत्रण को स्वीकार करने में नहीं हिचकिचाते थे।

संयम

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हमारे ऋषि-मुनियों तथा धर्मशास्त्रों ने संकल्प को ऐसा अमोघ साधन बताया है, जिसके बल पर हर क्षेत्र में सफलता पाई जा सकती है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था, ‘दृढ़ संकल्पशील व्यक्ति के शब्दकोश में असंभव शब्द नहीं होता। लक्ष्य की प्राप्ति में साधना का महत्वपूर्ण योगदान होता है। संकल्प जितना दृढ़ होगा, साधना उतनी ही गहरी और फलदायक होती जाएगी।’
शास्त्र में कहा गया है, ‘अमंत्रमक्षरं नास्ति-नास्ति मूलमनौसधम्। अयोग्यः पुरुषो नास्ति योजकस्तत्र दुर्लभः।’
यानी ऐसा कोई अक्षर नहीं है, जो मंत्र न हो। ऐसी कोई वनस्पति नहीं, जो औषधि नहीं हो। ऐसा कोई पुरुष नहीं है, जो योग्य न हो। प्रत्येक शब्द में मंत्र विद्यमान है, उसे जागृत करने की योग्यता होनी चाहिए। प्रत्येक वनस्पति में अमृत तुल्य रसायन विद्यमान है, उसे पहचानने का विवेक चाहिए। व्यक्ति में योग्यता स्वभावतः होती है, किंतु उस योग्यता का सदुपयोग करने का विवेक होना चाहिए।
साधना को लक्ष्य से जोड़कर मानव अपनी योग्यता का उपयुक्त लाभ उठा सकता है। दृढ़ संकल्प और साधना के बल पर मानव नर से नारायण भी बन सकता है। प्रमाद, अहंकार, असीमित आकांक्षाएं मनुष्य को दानव बना सकती हैं। और इस तरह वे उसके पतन का कारण हैं। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में सत्संग, सात्विकता, सरलता, संयम, सत्य जैसे दैवीय गुणों को जीवन में ढालकर निरंतर अभ्यास-साधना करते रहने का उपदेश दिया है। संयम का पालन करते हुए साधना में रत रहने वाला व्यक्ति निश्चय ही अपने सर्वांगीण विकास में सफल होता है

विनयशीलता

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विख्यात दार्शनिक बेंजामिन फ्रेंकलिन ने सभी धर्म-संप्रदायों की बारह श्रेष्ठ चीजों, जैसे अहिंसा, सत्य, सद्भाव, मौन आदि का चयन कर जीवन में उनका पालन करने का संकल्प ले लिया। वह प्रतिदिन आकलन करते कि क्या उस दिन उन सद्गुणों का पालन किया गया? कुछ ही दिनों में वह अहंकारग्रस्त होकर सोचने लगे कि शायद ही कोई इतने नियमों का पालन करता होगा। एक दिन उन्हें एक संत मिले। वह हर क्षण ईश्वर की याद में खोए रहते थे। वह परम विरक्त थे और सांसारिक सुख-सुविधाओं की उन्हें लेशमात्र भी चाह नहीं थी। फ्रेंकलिन उस संत के प्रति अनन्य श्रद्धा भावना रखते थे।

संत से लंबे अरसे बाद उनकी भेंट हुई थी। संत ने पूछा, ‘वत्स, क्या तुम तमाम समय अध्ययन, उपदेश और लेखन में ही व्यस्त रहते हो या कभी-कभी उसे भी याद करते हो, जिसने तुम्हें इस संसार में भेजा है?’ फ्रेंकलिन ने गर्व से कहा, ‘महात्मन, मैं बारह नियम व्रतों की साधना कर चुका हूं। उनका दृढ़ता से पालन कर रहा हूं। मैं शपथपूर्वक कह सकता हूं कि शायद ही किसी ने इतने नियमों का पालन व्रत लिया हो।’

संत समझ गए कि इस दार्शनिक को अपने नियम पालन का अहंकार हो गया है। उन्होंने कहा, ‘मेरे बताए तेरहवें नियम व्रत का पालन शुरू कर दो। जीवन सफल हो जाएगा। वह है, विनयशीलता और विनम्रता।’ संत के शब्द सुनते ही फ्रेंकलिन के ज्ञान-चक्षु खुल गए। उन्हें लगा कि वास्तव में विनम्रता, व संवेदनशीलता ही तो समस्त गुणों का शील प्राण है। उस दिन से फ्रेंकलिन ने तुच्छ भाव से अपने हृदय में झांकना शुरू कर दिया

चरित्र

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धर्मशास्त्रों में शील (चरित्र) को सर्वोपरि धन बताया गया है। कहा गया है कि परदेश में विद्या हमारा धन होती है। संकट में बुद्धि हमारा धन होती है। परलोक में धर्म सर्वश्रेष्ठ धन होता है, परंतु शील ऐसा अनूठा धन है, जो लोक-परलोक में सर्वत्र हमारा साथ देता है।

कहा गया है कि शीलवान व्यक्ति करुणा एवं संवेदनशीलता का अजस्र स्रोत होता है। जिसके हृदय में करुणा की भावना है, वही सच्चा मानव कहलाने का अधिकारी है। संत कबीर भी शील को अनूठा रत्न बताते हुए कहते हैं-
सीलवंत सबसों बड़ा, सील सब रत्नों की खान
तीन लोक की संपदा, रही सील में आन॥

सत्य, अहिंसा, सेवा, परोपकार, ये शीलवान व्यक्ति के स्वाभाविक सद्गुण बताए गए हैं। कहा गया है कि ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी’ यानी, मानव भगवान का अंशावतार है। अतः उसे नर में नारायण के दर्शन करने चाहिए। दीन-दुखियों की सेवा करने वाला, अभावग्रस्तों व बीमारों की सहायता करने वाला मानो साक्षात भगवान की ही सेवा कर रहा है। निष्काम सेवा को धर्मशास्त्रों में निष्काम भक्ति का ही रूप बताया गया है।

स्वामी विवेकानंद तो सत्संग के लिए आने वालों से समय-समय पर कहा करते थे, ‘आचरण पवित्र रखो और दरिद्रनारायण को साक्षात भगवान मानकर उसकी सेवा-सहायता के लिए तत्पर रहो। लोक-परलोक, दोनों का सहज ही में कल्याण हो जाएगा।’ हम अपनी शुद्ध और बुद्ध आत्मा से अनाथों, निर्बलों, बेसहारा लोगों की सेवा करके पितृऋण, देवऋण और आचार्य ऋण से मुक्त हो सकते हैं।

मदद

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गीतोपदेश' विहंगम दृश्य और झिंझोड़ता सबक....     दोनों तरफ लाखों-करोड़ों की सेना। दोनों ही पक्षों में ऐसे सेकड़ों योद्धा जो अकेले ही युद्ध का परिणाम बदल दें। युद्ध के अंतिम निर्णायक तो श्री कृष्ण ही थे। किन्तु कृष्ण के अतिरिक्त पांडव पक्ष का सारा का सारा दारोमदार अर्जुन पर ही था। वही अर्जुन अचानक मोह और कायरता से ग्रसित यानि कि संक्रमित हो गया। ऐसे में श्री कृष्ण, जो कि अधर्म का विनाश करने ही अवतरित हुए थे को सक्रीय होना पड़ा। लगभग पूरी तरह हताश हो चुके अर्जुन को विष्णु अवतार गोविंद ने इंसानी जिंदगी के जो सूत्र दिये वे आज भी कालजई हैं। महाभारत के उस अद्भुत और अद्वितीय दृश्य से जो अनमोल सबक मिलते हैं, वो इंसान को जिंदगी का महाभारत जीतने का रहस्य दे जाते है:-- स्वयं श्री कृष्ण इंसान को विश्वास दिलाते हैं कि यदि हम न्याय और कर्तव्य के रास्ते पर हैं, तो वो खुद हमारे जीवन रथ की लगाम अपने हाथ मे ले लेंगे।- जीवन है तो संघर्ष भी है। धर्म, न्याय और कर्तव्य की रक्षा के लिये यदि युद्ध भी करना पड़े तो जरूर करना चाहिये।- इंसान को ईश्वर ने संघर्ष करने और शक्तिवान बनने ही भेजा है। संघर्षों से मुक्त सीधी सरल और आसान जिंदगी कोरी कल्पना के सिवाय कुछ भी नहीं।- मोह इंसान को कायर और कमजोर बनाता है अत: इस पर सदैव नियंत्रण रखें।- धर्म, न्याय और कर्तव्यों के लिये जो इंसान, अपनी जान हथेली पर रख कर लडऩे को तैयार हो जाता है उसे धन, मान-सम्मान और प्रसिद्धि अपने आप ही मिल जाती है।- किस्मत हमेशा संघर्ष करने वालों का ही साथ देती हैं। यह सौ फीसदी सत्य है कि भगवान भी उसी की सहायता करता हैं जो स्वयं अपनी मदद करता है

वाणी

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धर्मशास्त्रों में वाणी संयम पर बहुत बल दिया गया है। मनुस्मृति में कहा गया है
पारुष्यमनृतं चैवं पैशुन्यं चापि सर्वशः। असंबद्ध प्रलापश्च वांगमयं स्याच्चतुर्विधम्।
अर्थात् वाणी में कठोरपन लाना, झूठ बोलना, दूसरे के दोषों का वर्णन करना और व्यर्थ बातें बनाना, ये वाणी के चार दोष हैं। इन दोषों से बचने वाला व्यक्ति हमेशा सुखी और संतुष्ट रहता है।
किसी कवि ने कहा था, ‘रसों में रस निंदा रस है।अनेक श्रद्धालु भगवद्कथा सुनने जाते हैं, तीर्थों सत्संगों में जाते हैं, किंतु वहां भी भगवल्लीला के अनूठे प्रेम रस भक्ति रस से तृप्त होने की जगह निंदा रस का रसास्वादन करने में नहीं हिचकिचाते। मौका मिलते ही दूसरों की निंदा और दोष वर्णन करने में लग जाते हैं। संस्कृत में दूसरे के दोष देखने कोपैशुन दोषकहा गया है। 

धर्मशास्त्रों में पंचविध चांडालों में पैशुनयुक्त पुरुष को भी एक प्रकार का चांडाल माना गया है। एक संस्कृत श्लोक में बताया गया है कि दूसरे व्यक्ति में दोष देखने वाला, दूसरों के अवगुणों का वर्णन करने वाला, किए गए उपकार को याद रखने वाला तथा बहुत देर तक क्रोध को मन में रखने वाला व्यक्ति चांडाल श्रेणी में ही आता है। पैशुन दोष को वाणी के तप द्वारा जीतने की प्रेरणा देते हुए महर्षि कहते हैं, ‘उद्वेग से रहित वाणी का उच्चारण, सत्य, प्रिय और हितकर वचन बोलना, अनर्गल बातचीत में समय व्यर्थ करके सत्साहित्य का अध्ययन करना एवं भगवन्नाम का कीर्तन करना वाणी का तप कहलाता है। अतः वाणी से प्रत्येक शब्द सोच-समझकर निकालने में ही लाभ होता है।
 
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