विख्यात दार्शनिक बेंजामिन फ्रेंकलिन ने सभी धर्म-संप्रदायों की बारह श्रेष्ठ चीजों, जैसे अहिंसा, सत्य, सद्भाव, मौन आदि का चयन कर जीवन में उनका पालन करने का संकल्प ले लिया। वह प्रतिदिन आकलन करते कि क्या उस दिन उन सद्गुणों का पालन किया गया? कुछ ही दिनों में वह अहंकारग्रस्त होकर सोचने लगे कि शायद ही कोई इतने नियमों का पालन करता होगा। एक दिन उन्हें एक संत मिले। वह हर क्षण ईश्वर की याद में खोए रहते थे। वह परम विरक्त थे और सांसारिक सुख-सुविधाओं की उन्हें लेशमात्र भी चाह नहीं थी। फ्रेंकलिन उस संत के प्रति अनन्य श्रद्धा भावना रखते थे।
संत से लंबे अरसे बाद उनकी भेंट हुई थी। संत ने पूछा, ‘वत्स, क्या तुम तमाम समय अध्ययन, उपदेश और लेखन में ही व्यस्त रहते हो या कभी-कभी उसे भी याद करते हो, जिसने तुम्हें इस संसार में भेजा है?’ फ्रेंकलिन ने गर्व से कहा, ‘महात्मन, मैं बारह नियम व्रतों की साधना कर चुका हूं। उनका दृढ़ता से पालन कर रहा हूं। मैं शपथपूर्वक कह सकता हूं कि शायद ही किसी ने इतने नियमों का पालन व्रत लिया हो।’
संत समझ गए कि इस दार्शनिक को अपने नियम पालन का अहंकार हो गया है। उन्होंने कहा, ‘मेरे बताए तेरहवें नियम व्रत का पालन शुरू कर दो। जीवन सफल हो जाएगा। वह है, विनयशीलता और विनम्रता।’ संत के शब्द सुनते ही फ्रेंकलिन के ज्ञान-चक्षु खुल गए। उन्हें लगा कि वास्तव में विनम्रता, व संवेदनशीलता ही तो समस्त गुणों का शील प्राण है। उस दिन से फ्रेंकलिन ने तुच्छ भाव से अपने हृदय में झांकना शुरू कर दिया
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