शनिवार, मई 15, 2010
विद्वान होना जरूरी नहीं
भट्टतिरि भगवान गुरुवायूर के परम भक्त और संस्कृत के प्रकांड ज्ञाता और यशस्वी कवि थे। उन्होंने भगवान गुरवायूर की स्तुति में काव्य रचा। जिसमे सुंदर श्लोको में गुरुवायूर की पावन महिमा का वर्णन था। एक हजार श्लोकों के इस ग्रंथ का नाम नारायणीयम् रखा। पंडित नारायण भट्टतिरि ने गुरुवायूरप्पन जाकर भगवान के मंदिर में स्वरचित श्लोक सुनाए। उन्हें लगा कि भगवान उन्हें प्रसन्न होकर आशीर्वाद दे रहे हैं। नारायणीयम् काव्य की चर्चा दूर-दूर तक होने लगी। लोग कहने लगे कि पंडित नारायण भट्टतिरि से बढ़कर गुरुवायूर का और कोई भक्त नहीं है। गुरुवायूर का एक और भक्त था पूंतानम। वह केवल मलयालम भाषा जानता था। वह ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं था, किंतु था बिलकुल निश्छल और सरल सात्विक। वह मलयालम में कविताएं लिखता था। एक बार उसने अपने इष्टदेव गुरुवायूर की भक्ति में मलयालम में पद रचे। उन्हें लेकर वह नारायण भट्टतिरि के पास पहुंचा। उसने नारायण को प्रणाम कर कहा, ‘मैंने कुछ भक्ति पद रचे हैं। इन्हें देखने व शुद्ध करने की कृपा करें।’ नारायण ने पूछा, ‘तुम संस्कृत जानते हो?’ पूंतानम द्वारा नहीं कहने पर उन्होंने अहंकार में भरकर कहा, ‘मूर्ख, तुझे यह भी पता नहीं कि भगवान गुरुवायूर केवल संस्कृत में स्तुति किए जाने पर ही प्रसन्न होते हैं? उठाओ अपनी पोथी और भागो यहां से।’ पंडित नारायण जब अन्य दिनों की तरह नारायणीयम् का पाठ करने बैठे, तो उन्हें लगा कि भगवान उनसे कह रहे हैं कि इसमें तो भाषा के अनेक दोष हैं। तुमसे अच्छे गीत तो भक्त पूंतानम सुनाता है। भक्ति गीत सरल मन से लिखे जाते हैं। उसके लिए विद्वान होना जरूरी नहीं। यह इल्म होते ही पंडित नारायण का अहंकार काफूर हो गया। वह भागे-भागे पूंतानम के घर पहुंचे। उसके चरणों में गिरकर उन्होंने माफी मांगी।
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