पूछते हो अब कहां रहता हूँ मैं
जहां कोई नहीं वहीं रहता हूँ मैं ।
भीड़ है, लोग हैं सब ही तो हैं यहां,
एकाकी हूँ खामोशी से बहता हूँ मैं ।
पुष्प पसन्द है सबको, लेते है सुंगध
बंजर हूँ, वेदना कांटों की सहता हूँ मैं ।
खूब सजाए है महल तुमने कैसे कैसे,
किराए के मकां को घर कहता हूं मैं।
चलो अच्छा है अब भ्रम तो टूटा ,
रिश्तों की ओट में बिकता रहा हूँ मैं ।
छला है अपना बन कर सभों ने,
यूं ही नहीं विक्षिप्त सा घूमता हूं मैं।
4 Reviews:
आपकी लिखी रचना आज "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 14 जनवरी 2018 को साझा की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
वाह!!!
बहुत सुन्दर...
बहुत ही सुंदर पंक्तियों से सजी रचना बहुत मर्मस्पर्शी है | दुसरा शेर खास तौर पर पसंद आया | सादर शुभकामना --
बहुत बढ़िया
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