google.com, pub-7517185034865267, DIRECT, f08c47fec0942fa0 आधारशिला : भक्ति में सुख

शनिवार, मई 15, 2010

भक्ति में सुख

कुरु का राजकुमार भगवान श्रीकृष्ण का भक्त था। उसने संकल्प लिया कि अपना समस्त जीवन वह वृंदावन में बिताएगा। वृंदावन पहुंचकर यमुना तट पर उसने कुटिया बनाई और पूजा-उपासना करने लगा। एक बार मगध देश के राजा सपरिवार वृंदावन पहुंचे। जब राजा-रानी यमुना स्नान करने जा रहे थे तब वृक्ष के नीचे उपासना में लीन तेजस्वी साधु को देखकर वे रुक गए। साधु की समाधि पूरी होने के बाद मगधराज ने विनम्रतापूर्वक कहा, तपस्वी, मुझे आपके चेहरे के तेज से आभास होता है कि कहीं आप राजकुमार तो नहीं। साधु ने कहा,  भगवान श्रीकृष्ण की पावन लीला-भूमि में न कोई राजकुमार होता है और न राजा। श्रीकृष्ण तो अपने सखा गवालो  को भी गले लगाते थे। इसलिए यहां कुल और जाति का विचार करना अधर्म है।’ राजा  तपस्वी के वचनों से अत्यधिक प्रभावित हुए। उन्होंने अनुरोध किया, ‘आप हमारे साथ चलें। अभी आप युवक हैं। हम आपका विवाह अपने कुल की कन्या से करा देंगे। गृहस्थ आश्रम के सभी सुख आप भोगेंगे। कभी दुखी नहीं रहेंगे।’ साधु ने पूछा, ‘क्या राजा व धनवान को कभी दुख नहीं सताता? क्या राजा व गृहस्थ के परिवार में किसी की अकाल मृत्यु नहीं होती? फिर सुख से रहने की बात कहकर आप मुझे साधना से विरक्त क्यों करना चाहते हैं? श्रीकृष्ण की भक्ति में मुझे अनूठा सुख मिलता है।’ राजा ने युवा साधु को गुरु मान लिया और स्वयं भी राजपाट त्यागकर वृंदावन में रहने लगे। 

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