शनिवार, मई 15, 2010
सच्चा धर्म
प्रतिष्ठित विचारक टॉलस्टॉय ने अपनी यूरोप यात्रा के दौरान देखा कि उनके लिखे साहित्य से बड़े-बड़े बुद्धिजीवी प्रभावित हैं। उनकी प्रतिष्ठता चरम पर पहुंच रही है। अपनी आत्मकथा कन्फेशन में उन्होंने लिखा है, ‘प्रतिष्ठा से पुलकित मेरे मन में यह जिज्ञासा पैदा हुई कि कीर्ति, धन, ऐश्वर्य पाकर क्या मानव का जीवन सार्थक हो जाता है? मैं विचार करता कि क्या ये सभी चीजें मृत्यु को रोक सकती हैं? मनुष्य जन्म क्यों लेता है? किसलिए जीता है? उसके जीवन की सार्थकता क्या है? ये प्रश्न मेरे मन-मस्तिष्क को झकझोरते रहते।’ टॉलस्टॉय ने गीता तथा अन्य धर्मग्रंथों का भी अध्ययन किया था। उन्हें अनुभूति होने लगी कि जीवन की सार्थकता कर्म में है। एक किसान मौसम की चिंता किए बिना प्रत्येक दिन खेत में पहुंचता है और शारीरिक श्रम करता है। यदि मौसम प्रतिकूल होने के कारण फसल मनमाफिक नहीं होती है, तब भी वह अपने परिश्रम पर पछतावा नहीं करता। वह बिना घबराए सभी प्रकार के कष्ट सहने की क्षमता रखता है। टॉलस्टॉय ने कर्म को ही मानव का धर्म माना। वह भारतीय संस्कृति के प्रमुख सूत्रों, सत्य, अहिंसा, करुणा की भावना से बहुत प्रभावित रहे। उन्होंने लिखा, ‘केवल भौतिकवाद, सांसारिक सुख-सुविधाओं से मानव-हृदय को पूर्ण संतुष्टि नहीं मिल सकती। दूसरे की सहायता करने व दुख में सहभागी बनने से ही मानव को सच्ची आत्मिक शांति प्राप्त होती है।’
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