सभी धर्मग्रंथों, वेदों, पुराणों, उपनिषदों आदि में गुरु का महत्व प्रदर्शित किया गया है। किसी भी प्रकार के अज्ञान को दूर कर ज्ञान और आत्मकल्याण का आभास कराने वाले को गुरु कहा जाता है।
पद्मपुराण में कहा गया है, साक्षातकृतधर्मा ऋषयो वभूवुः यानी, जिन्होंने तत्वों का साक्षात्कार कर लिया, वे ऋषि कहलाते हैं। जब वे अपने शिष्यों को उन तत्वों का बोध कराने के लिए उपदेश देते हैं, तब गुरु कहलाते हैं। गुरु के लक्षणों का वर्णन करते हुए कहा गया है, ‘जो स्वयं हर प्रकार के अज्ञान से मुक्त होकर ज्ञान प्राप्त कर चुका है, जो अपनी सभी इंद्रियों पर नियंत्रण कर संयमी, सदाचारी हो, जो लोभ, लालच आदि किसी भी प्रकार के प्रपंच से मुक्त हो चुका है, वही गुरु शिष्य का कल्याण करने में समर्थ होता है।’
उपनिषदों में कहा गया है, ‘माता को देवतुल्य मानना चाहिए, क्योंकि वह पहला गुरु है। माता ही सबसे पहले बच्चे को अच्छे संस्कार-शिक्षा देकर आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त करती है। पिता को भी देवतुल्य मानना चाहिए, क्योंकि वह कुलदीपक बनाता है। गुरु को भी देवतुल्य मानना चाहिए, क्योंकि वह ज्ञान और वाणी का स्वामी है। विद्या द्वारा वह शिष्य में सद्गुणों का विकास करता है।’
पुराण में यह भी कहा गया है कि जिसे आत्मज्ञान प्राप्त नहीं हुआ है, वह शिष्य का कल्याण कैसे करेगा। महामति संत प्राणनाथ चेतावनी देते हैं, बैठत सतगुरु होय के आस करे सिस केरी। सो डूबे आप शिष्यन सहित जाय पड़े कूप अंधेरी। अज्ञानी गुरु स्वयं तो डूबता ही है, शिष्य को भी डूबोता है।
साभार
पद्मपुराण में कहा गया है, साक्षातकृतधर्मा ऋषयो वभूवुः यानी, जिन्होंने तत्वों का साक्षात्कार कर लिया, वे ऋषि कहलाते हैं। जब वे अपने शिष्यों को उन तत्वों का बोध कराने के लिए उपदेश देते हैं, तब गुरु कहलाते हैं। गुरु के लक्षणों का वर्णन करते हुए कहा गया है, ‘जो स्वयं हर प्रकार के अज्ञान से मुक्त होकर ज्ञान प्राप्त कर चुका है, जो अपनी सभी इंद्रियों पर नियंत्रण कर संयमी, सदाचारी हो, जो लोभ, लालच आदि किसी भी प्रकार के प्रपंच से मुक्त हो चुका है, वही गुरु शिष्य का कल्याण करने में समर्थ होता है।’
उपनिषदों में कहा गया है, ‘माता को देवतुल्य मानना चाहिए, क्योंकि वह पहला गुरु है। माता ही सबसे पहले बच्चे को अच्छे संस्कार-शिक्षा देकर आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त करती है। पिता को भी देवतुल्य मानना चाहिए, क्योंकि वह कुलदीपक बनाता है। गुरु को भी देवतुल्य मानना चाहिए, क्योंकि वह ज्ञान और वाणी का स्वामी है। विद्या द्वारा वह शिष्य में सद्गुणों का विकास करता है।’
पुराण में यह भी कहा गया है कि जिसे आत्मज्ञान प्राप्त नहीं हुआ है, वह शिष्य का कल्याण कैसे करेगा। महामति संत प्राणनाथ चेतावनी देते हैं, बैठत सतगुरु होय के आस करे सिस केरी। सो डूबे आप शिष्यन सहित जाय पड़े कूप अंधेरी। अज्ञानी गुरु स्वयं तो डूबता ही है, शिष्य को भी डूबोता है।
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