google.com, pub-7517185034865267, DIRECT, f08c47fec0942fa0 आधारशिला : उपहार

शनिवार, मई 15, 2010

उपहार

संत जेरोम जैसा उपदेश देते थे वैसा ही आचरण भी करते थे  कथनी और करनी में कोई भेद नहीं था। वह सादगी, सरलता और सात्विकता की साक्षात मूर्ति थे। जेरोम प्रतिदिन अपने हाथों से किसी-न-किसी असहाय-अनाथ व्यक्ति की सेवा अवश्य करते। इतना करने के बावजूद वह हमेशा कहा करते थे, मैं संसार का सबसे बड़ा पापी हूं। जाने-अनजाने अनेक पाप मुझसे होते हैं। ईसा मसीह उनकी इस सरलता से बहुत प्रभावित थे। एक बार क्रिसमस की रात अचानक संत जेरोम की भेंट ईसा मसीह से हो गई। यीशु ने कहा, ‘आज मेरा जन्मदिन है। क्या जन्मदिन का उपहार नहीं दोगे?’ संत जेरोम ने कहा, ‘मेरे पास देने को क्या है भला। मैं अपना हृदय आपको भेंट कर सकता हूं।’ यीशु ने कहा, ‘मुझे आपका हृदय नहीं, कुछ और चाहिए।’ संत ने कहा, ‘वैसे तो, मैं अपना पूरा शरीर आपको भेंट कर सकता हूं। पर मैं पापी हूं। यदि मेरे खजाने में पुण्य होते, तो मैं उन्हें आपको जन्मदिन के उपहारस्वरूप जरूर भेंट कर देता।’ यीशु ने कहा, ‘जब आपके खजाने में पाप ही पाप हैं, तो फिर उन्हें ही मुझे उपहार में दे दें। आप अपना कोई अवगुण मुझे दे दें। मैं आपके तमाम पापों का फल भोग लूंगा।’ यीशु की प्रेमभरी वाणी सुनकर संत जेरोम की आंखों से अश्रुधारा बह निकली। यीशु ने उन्हें प्यार से गले लगा लिया। 

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