google.com, pub-7517185034865267, DIRECT, f08c47fec0942fa0 आधारशिला : परख

शनिवार, मई 15, 2010

परख

आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती वर्ष 1872 में धर्म प्रचार के लिए कोलकाता पहुंचे। प्रसिद्ध समाजसेवी व विद्वान केशवचंद्र सेन वहां ब्रह्म समाज के प्रचार-प्रसार में जुटे थे। उन्होंने स्वामी जी की ख्याति सुन रखी थी। स्वामी जी भी केशवचंद्र सेन के विचारों से सुपरिचित थे। एक दिन अचानक श्री सेन स्वामी जी से मिलने जा पहुंचे। बिना परिचय दिए ही उन्होंने वार्ता शुरू कर दी। कुछ देर बाद उन्होंने स्वामी जी से पूछा, ‘कोलकाता आने के बाद क्या केशवचंद्र सेन से मिले।’ स्वामी जी उनकी बातचीत से समझ गए थे कि वही केशवचंद्र हैं। वह बोले, ‘आज ही अभी-अभी मिला हूं। मेरे सामने बैठे हैं वह।’ केशवचंद्र सेन ने पूछा, ‘आपने कैसे पहचान लिया?’ स्वामी जी ने जवाब दिया, ‘विचार व्यक्त करते समय ही मैं समझ गया कि आप कौन हैं।’ केशवचंद्र सेन ने जिज्ञासा व्यक्त की, ‘वेद को आप ईश्वरीय ज्ञान कैसे मानते हैं?’ स्वामी जी ने कहा, ‘असली ज्ञान तार्किक होता है। वेदों में कोई चमत्कारिक घटना नहीं है। वे मानव मात्र के कल्याण का साधन बताते हैं। इसलिए वेद ज्ञान सर्वश्रेष्ठ हैं।’ केशवचंद्र उनके ज्ञान से प्रभावित होकर बोले, ‘यदि आप अंगरेजी जानते, तो मैं आपको अपने साथ धर्म-प्रचार के लिए इंग्लैंड ले जाता।’ स्वामी जी ने कहा, ‘यदि आप अंगरेजी के साथ-साथ संस्कृत जानते, तो आप यहां के लोगों को अपनी बात अच्छे ढंग से समझा सकते थे।’ यह सुनकर सेन मुस्करा उठे। धार्मिक विषयों में मतभेद के बावजूद समाज सुधार के क्षेत्र में दोनों का सहयोग बना रहा। 

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