सतलुज निष्प्राण हो गई
ममता पाषाण हो गई।
सीना हो रहा निरंतर छलनी
वीरानगी अब प्राण हो गई।
संस्कृति हो रही रोज विलुप्त
वीभत्सता अब विज्ञान हो गई।
जीवन की आशा है कम कम
अंधेरा, सिसकियाँ जान हो गई।
पहाड़ सिसकता है अन्तस है सूखा
पानी की एक बूंद अरमान हो गई।
दौड़ते घूमते देखते है सब
निर्जीव सेल्फी शान हो गई।
(कल्पा यात्रा के दौरान कड़छम के पास )
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